Happy Day: ख़ुश रहना खुद सीखें, किसी के मोहताज न रहें!
गुदगुदाकर किसी को थोड़ी देर तो हंसाया जा सकता है। पर, ये दिल से निकली ख़ुशी नहीं होगी! जब तक निजी जिंदगी में निश्चिंतता का आभास नहीं होगा, खुशियां दस्तक नहीं दे सकती। साथ में मॉर्निंग वॉक करने वाले लोग अपना तनाव दूर करने के लिए कई बार साथ खड़े होकर बेवजह हंस लेते हैं! लॉफिंग क्लब भी इसी मकसद से बनाए जाते हैं, पर उससे वास्तविक ख़ुशी किसी को नहीं मिलती। चुटकुले सुनकर भी हंसी आ जाती है, गुदगुदी भी हंसाती है! पर, ये सब कहीं से भी सच्ची ख़ुशी नहीं होती! क्योंकि, ये क्षणिक है। जिन लोगों के जीवन में तनाव है, अभाव है और हर वक़्त चिंता है। उनको कोई ख़ुशी आनंदित नहीं कर सकती! खुशहाली का समृद्धता से भी कोई वास्ता नहीं होता! कुछ लोग तो अभाव को अपनी नियति समझकर भी खुश रहते हैं! उनके लिए कोई सुविधाएं मायने नहीं रखती!
खुश हो जाइए, क्योंकि आज (20 मार्च) ‘अंतर्राष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस’Happy Day है। आप अभाव में हों, तनाव में हों, अवसाद ने आपको घेर रखा हों फिर भी आप दिनभर हंसिए और खुशियां मनाइए! इस साल की थीम ‘बिल्ड बैक हैप्पीयर’ है, जो महामारी से वैश्विक स्वास्थ्य लाभ पर केंद्रित है। लेकिन, क्या ऐसा संभव है! महामारी की पीड़ा क्या इतनी क्षणिक थी कि उसे भुलाया जाए! आंकड़ों की गवाही है कि प्रसन्नता यानी ख़ुशी के मामले में हमारा देश लगातार पिछड़ता जा रहा है। ‘विश्व प्रसन्नता दिवस’ Happy Day मनाने की शुरुआत 2013 में हुई थी। उस समय हम खुशियों की रैंक में 111 वें पायदान पर थे। 2021 में भारत 149 देशों की सूची में प्रसन्नता के स्तर में 139 वीं पायदान पर पहुंच गया। 25 प्रतिशत की गिरावट यह बताने के लिए काफ़ी है कि खुशियों की राह में हम कितना पिछड़ गए। आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश जैसे देशों से भी हमारी ख़ुशी निचले पायदान पर है। कहने को हम दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था है। दुनिया में दूसरी सबसे ज्यादा आबादी हमारी है, पर खुशियों के पैमाने में हम बहुत निचले स्तर पर हैं।
भूटान ने 1972 में ‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ का मॉडल बनाया था! वहाँ जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट) के बजाए लोगों की खुशियों को देश की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। जबकि, अभी तो वो फार्मूला ही नहीं बना जो लोगों की ख़ुशी मापने का मीटर हो! दुनिया में कई जगह लोगों के जीवन में खुशहाली लाने का काम हो रहा है। लेकिन, खुशहाली लाने के लिए सबसे पहले सरकार को अपनी जिम्मेदारियां निभाना होती है। वो सारे प्रयास करना होते हैं, जिससे लोगों की व्यक्तिगत मुसीबतें ख़त्म हों और वे खुश हों! सरकारी गुदगुदी से कोई खुलकर कैसे हँस सकेगा! जिनके जीवन में तनाव, अभाव और हर वक़्त भविष्य की चिंता हो, उन्हें अंतर्मन की ख़ुशी कैसे दी जा सकती है! भूटान के अलावा वेनेजुएला, यूएई में भी ये प्रयोग हो चुके हैं।
जिंदगी के तौर तरीके जिस तरीके से बदल रहे है, उनसे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि हम तरक्की के नए आयाम भले गढ़ रहे हों, पर हमारे अंदर की इंसानियत पीछे छूट रही है। छोटी-छोटी बातों पर लोग मरने या मारने को तैयार होते हैं। निराशावादी ने लोगों को इतना जकड़ लिया कि वे उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहते! क्या वजह है कि हम अपनी संस्कृति को बिसरा रहे है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मां कश्चित् दुख भाग भवः’ की संस्कृति मानने वाले हम यही कामना करते थे कि सभी सुखी हो, सभी निरोगी हों, सभी के साथ अच्छा हो किसी को दुःख न मिले। फिर ऐसी क्या वजह आ गई जो हम अपनों के ही दर्द की वजह बनते जा रहे हैं। रिश्तों की डोर इतनी नाज़ुक क्यों हो गई कि वो जरा से तनाव में दरक जाती है। हम बुलंदियों का आसमान छू रहे हैं, लेकिन मन को दो पल का सुकून नसीब नहीं हो रहा।
वास्तव में ख़ुशी को किसी परिभाषा में नहीं समेटा जा सकता है। हिन्दू शास्त्रों में भी खुशी को परम आंनद कहा गया है। 6ठी सदी के दार्शनिक और बुद्धिजीवी आदी शंकराचार्य ने कहा था ‘अल्पकालिक वस्तुओं के प्रति उदासीनता और आंतरिक चेतना के साथ संबंध ही सच्ची प्रसन्नता है।’ वहीं 350 ईसा पूर्व लिखे गए ‘निकोमैचियन एथिक्स’ में अरस्तू ने कहा था ‘धन, सम्मान, स्वास्थ्य या दोस्ती के विपरीत, खुशी ही एकमात्र ऐसी चीज है, जो मनुष्य अपने लिए चाहता हैं।’ अरस्तू ने तर्क दिया था कि अच्छा जीवन उत्कृष्ट तर्कसंगत गतिविधि का जीवन है। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में कहा ही है कि फल की आशा के बिना निरपेक्ष भाव से किया गया कर्म ही सर्वोत्तम है। यह सच भी है कि जहां स्वार्थ होगा वहां छल कपट भी होगा। स्वार्थ से परे ही सच्चा सुख प्रसन्नता की राह सुगम बनाता है।
हमारी संस्कृति ने दुनिया को शांति का पाठ पढ़ाया। विश्व को योग, ध्यान और अध्यात्म सिखाया। फिर देश किस राह पर चल पड़ा! हमारी खुशी का स्तर गिरता क्यों जा रहा है। क्या सिर्फ भोग विलास ही सुखी जीवन का पैमाना बन गया। आधुनिकता की चकाचौंध में इंसान अंधा हो गया। इसलिए वह अपने सामाजिक मूल्यों का पतन करने से भी पीछे नहीं हटता। बाजारवाद की प्रवृत्ति में इंसान की इंसानियत गुम हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया में सबसे अवसादग्रस्त लोगों का देश बन गया है। एक तरफ तो हम विश्व गुरु बनने का दंभ भरते नहीं थकते। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की बात करते है। लेकिन, अपने ही परिवार में बूढ़े, बुजुर्ग अकेले हो गए। कोरोना काल ने हमें अकेले रहने की पीड़ा का एहसास जरूर कराया, लेकिन अकेले रहने का दर्द जस का तस बना हुआ है।
हमने घर तो मजबूत बना लिए पर रिश्ते की डोर बहुत ही कमजोर कर ली। जहां कभी एक छत के नीचे पूरा परिवार ख़ुशी मनाता था आज हम अपने ही कमरे में कैद होकर रह गए है! आज दुनिया ‘ग्लोबल विलेज बनती जा रही है। चंद पलों में हम मीलों का सफर तय करने में सक्षम हो गए हो, सूचना के बड़े बड़े माध्यम बनाने में सफलता हासिल कर ली है, लेकिन दिलों में दूरियों की गहरी खाई बना बैठे है। आज हमें जरूरत है कि हम अपनी खुशी के लिए किसी और पर निर्भर न रहे। अपनी ज़िंदगी के निर्माता स्वयं बने। जिस दिन हम सही गलत का निर्णय करने में सक्षम हो जाएंगे। भौतिकवाद से परे मानवता की राह पकड़ लेंगे तो उससे अच्छी ख़ुशी कोई और नहीं होगी।
लगता है ‘ख़ुशी’ और ‘सुविधा’ के फर्क को ठीक से नहीं समझा गया! ‘ख़ुशी’ किसी को दी नहीं जा सकती, ये अनुभूति है जो अंदर से उपजती है! उसे खोजना भर होता है। लोगों के अभाव की पूर्ति कर देने से वो व्यक्ति सुखी तो हो सकता है, पर खुश नहीं! ये भी कहा जा सकता है कि ख़ुशी कभी खो नहीं सकती, इसलिए उसे पाया भी नहीं जा सकता! वह तो मौजूद है, उसे केवल जाना जाता है। कहा ये भी जाता है कि जो आनंद फकीरी में है, वो अमीरी में कहाँ! धन, दौलत, पद या प्रतिष्ठा से आनंद नहीं आता, बल्कि सकारात्मक सोच जीवन को खुशियों से भरता है। भौतिक समृद्धि महज सुविधा है, ख़ुशी नहीं। इससे कभी आंतरिक खुशी और शांति नहीं मिलती। यदि हम ख़ुशी चाहते हैं, तो हमें ऐसे वातावरण का निर्माण करना होगा, जिससे लोगों को वास्तविक आनंद की अनुभूति हो। गुदगुदाने से भी हँसी आती है, ख़ुशी नहीं होती।
‘ख़ुशी’ और ‘सुख’ में अकसर कहीं न कहीं भ्रम होता है। आनंद की अनुभूति बाहर से नहीं होती, ये अन्तर्निहित है। इसलिए सुविधाभोगी सुख को आनंद नहीं समझा जाना चाहिए। ‘ख़ुशी’ और ‘सुख’ में बड़ा अंतर है। अभाव के कारण दुख होना स्वाभाविक है, पर सुख होने पर ख़ुशी की अनुभूति होगी, ये नहीं कहा जा सकता! ख़ुशी का सही मतलब है जहाँ बाहर की कोई भी प्रतिक्रिया हमें प्रभावित नहीं करे, न दुख का न सुख का! सुख और दुख बाहर से आई हुई अनुभूतियां हैं। ‘ख़ुशी’ वह अनुभूति है, जिसमें बाहर से कुछ नहीं आता। ‘आनंद’ बाहर का अनुभव न होकर स्वयं का अनुभव है। लोगों के जीवन में खुशहाली लाने का काम किसी और का नहीं, ये वैयक्तिक है और नितांत सत्य भी! गरीबों को पुराने कपड़े बाँट देने, उसे उसकी जरूरतों का सामान दे देने या उनके साथ थोड़ी देर पतंग उड़ा लेने से किसी को ‘ख़ुशी’ की अनुभूति हो जाएगी, ये कैसे संभव है! सिर्फ गरीब को ही ख़ुशी जरुरत है, सोच भी सही नहीं कहा जा सकता!
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