
“जयंती पर विशेष”
मुंशी प्रेमचंद: मिट्टी की गंध और मनुष्यता की आवाज़
राजेश जयंत
31 जुलाई 1880, वाराणसी के पास लामही गांव… एक साधारण किसान परिवार में जन्मे धनपत राय श्रीवास्तव। आगे चलकर यही बालक “मुंशी प्रेमचंद” नाम से हिंदी साहित्य का सूर्य बन गया। उनका जीवन संघर्षों, अभाव और कठिन परिस्थितियों से भरा था- मां का साया बचपन में ही उठ गया, पिता का प्रेम भी सीमित रहा, लेकिन इन दुःखों ने ही उन्हें गहराई और संवेदना की संपदा दी।

प्रेमचंद ने अपनी कलम को समाज के सबसे उपेक्षित और उत्पीड़ित वर्ग की आवाज़ बनाया। उनके उपन्यास- ‘गोदान’, ‘गबन’, ‘रंगभूमि’, ‘निर्मला’, ‘कर्मभूमि’, कहानियां – ‘कफन’, ‘पूस की रात’, ‘ईदगाह’ हर पंक्ति में गांव, भूख, दर्द, मोह, त्याग, आस्था और करूणा का स्पंदन घुला है। उनके पात्र- होरी, धनिया, हमीद, घीसू, मदन, बुधिया- ऐसे आम इंसान हैं, जिनमें समाज की सच्चाई पूरी पारदर्शिता के साथ उजागर होती है।

प्रेमचंद की भाषा सीधी, सच्ची और आत्मीय है- जैसे दीवारों पर लटकी धूल-धूसरित तस्वीर, लेकिन उसमें छुपा हर दर्द और उम्मीद हमारे जीवन का हिस्सा लगता है। वो लिखते हैं-
“साहित्य समाज का दर्पण है, उसमें वही दिखता है, जो समाज में घटता है।”
प्रेमचंद की रचनाएं सिर्फ कथा नहीं, सामाजिक विवेक की मशाल हैं। वे समाज के घावों पर मरहम रखते ही नहीं, बल्कि व्यवस्था की अकर्मण्यता और तमाम रूढ़ियों पर करारी चोट भी करते हैं। आज जब आदमी आदमी से दूर होता जा रहा है, जब जात-पांत, धर्म और पैसा इंसानियत के रास्ते में दीवार बन चुके हैं, प्रेमचंद की कल्पना, करुणा और सादगी, इंसान को फिर अपने जड़ों से जोड़ने की सबसे ज़रूरी कोशिश है

आज प्रेमचंद की प्रासंगिकता कई गुना बढ़ जाती है- गरीब किसान आज भी कर्ज में मरता है, मज़दूर की मेहनत की बोली अब भी सस्ती है, नारी की पीड़ा, सामाजिक विषमता और धर्म-जाति के जख्म बदस्तूर कायम हैं।

प्रेमचंद की मशहूर कृति ‘गोदान’ का होरी आज भी हमारे गांवों के हर खेत में हल चला रहा है, ‘कफन’ के घीसू और माधव आज भी भूख और बेबसी का गान गा रहे हैं।
प्रेमचंद की जयंती न सिर्फ उनकी स्मृति का उत्सव है, बल्कि यह हमारे भीतर सोई मानवता, सामाजिक न्याय और करुणा को फिर से जगाने का दिवस है। उनकी रचनाएँ ऐतिहासिक दास्तान नहीं, आज की ज्वलंत चुनौती हैं। वे बार-बार याद दिलाते हैं कि श्रेष्ठ साहित्य वही है, जो जीवन में भी इंसान को बड़ा बनाता है।
क्या आज के हमारे समाज, व्यवस्था, और नई पीढ़ी को प्रेमचंद की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा नहीं है..?





