तुलसी जयंती पर विशेष:रचनाओं में तुलसी के गायक होने के प्रमाण
– दिनेश पाठक
मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास में भक्ति आंदोलन एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जाता है।भक्तिकाल में काव्य और संगीत के अभूतपूर्व गठबंधन से संत कवि भगवान की लीला की व्याख्या करते-करते लीला-गान भी करने लगे थे। इसी कारण, काव्य-रचना में पद शैली का प्राधान्य प्रचलित हुआ। इस प्रवृत्ति को जयदेव कृत ‘गीत गोविंद’ और चैतन्य की भक्ति धारा ने प्रेरणा एवं प्रश्रय प्रदान किया। भक्ति काल की इस विशेषता से श्रृंगार, प्रेम और भक्ति की त्रिवेणी बह निकली और रसिक तथा सहृदय समाज उल्लासपूर्वक उसमें गोते लगाने लगा।
भक्तिकालीन गद्य व पद्य में अनुभूति की जितनी तीव्रता और संगीतात्मकता है उतनी किसी और काल के गद्य पद्य में नहीं। हालांकि, इस काल के सभी रचनाकार न तो गायक थे और न सभी गायक, पद-रचयिता और सभी गायकों का संगीत का जानकार होना भी अनिवार्य नहीं था।किंतु कुछ रचनाकार अवश्य ऐसे थे जिन्हें संगीत का भी गहन ज्ञान था और यह उनकी रचनाओं से सिद्ध होता था। भक्त कवियों ने अपनी दिव्य एवं मधुर वाणी द्वारा संगीत से परिपूर्ण ललित काव्य को गाकर गीत काव्यों को अमरता प्रदान की और संगीत, भक्ति के माध्यम से लोक मानस के समीप आया। जयदेव, विद्यापति, चंडीदास, चैतन्य, हरिदास, कबीर, नानक, मीरा, तुलसी सूर, नामदेव तथा तुकाराम आदि ने धार्मिक स्पर्श से इसे नई चेतना प्रदान की और संपूर्ण राष्ट्र प्रबंधों, गीतों और अभंगों की तरंग में तरंगित हो उठा। इन वाग्गेयकारों ने अपने काव्य को राग रागनियों में ढाल कर भक्ति भावना से ओतप्रोत संगीतमय वातावरण की सृष्टि की।
इसी भक्ति काल में लोकमंगल की भावना से अनुप्रेरित गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रचना संसार को हिन्दू संस्कृति एवं हिन्दू राष्ट्र की उदात्त भावना के साथ प्रतिस्थापित कर आत्मबोध और भगवत भक्ति को जनसाधारण में सतत प्रवाहित किया। तुलसीदास का युग संगीत का स्वर्णकाल था अतः उनकी रचनाओं में गेय तत्व प्रधान था। उनके रचनाओं का साहित्यिक स्वर सांगीतिकता को खंडित नहीं करता था इसलिए उनके पदों में काव्य, स्वर माधुर्य एवं ताल पद्धति का त्रिवेणी संगम उपस्थित था। वे कवि होने के साथ संगीत के शास्त्रीय व लोक पक्ष का गहन ज्ञान भी रखते थे। उन्होंने संगीत के माध्यम से रामभक्ति का व्यापक प्रचार प्रसार सफलतापूर्वक किया।
जब ‘रामचरितमानस’ की चौपाइयां विभिन्न स्वर लहरियों में निबद्ध कर प्रस्तुत की जाती हैं तो इन चौपाईयों को अमीर गरीब, शिक्षित-अशिक्षित,शहरी और ग्रामीण समस्त वर्गो द्वारा समान रूप से आनंद व तन्मयता से गाया जाता है और यही ‘रामचरितमानस’ की विशिष्टता है। तुलसी की रचनाओं में काव्यात्मक और संगीतात्मक तत्वों का अनुपम संयोग सहज ही दृष्टिगत होता है इसलिए सामान्य और विशिष्ट सभी विद्वानों को तुलसी काव्य में अनुकूल सामग्री प्राप्त होती है। तुलसी काव्य की सहज गेयता ने इसका सामान्य गान करने वालों से लेकर विशिष्ट संगीतज्ञों तक को अपनी ओर आकर्षित किया है। तुलसी की रचनाओं में रचना कौशल, प्रबन्ध और भाव-प्रवणता का अद्भुत संगम भी दृष्टिगत होता है।
गोस्वामी तुलसीदास का काव्यशास्त्र तथा छन्द शास्त्र पर सहज अधिकार था। विद्वानों के मतानुसार विनय पत्रिका और गीतावली के अतिरिक्त उनकी रचनाओं में पच्चीस छन्द प्रकार व्यवहृत हुए हैं। गोस्वामी जी की भावानुकूल राग योजना, ताल युक्त शब्द योजना तथा माधुर्य युक्त वर्ण विधान से सिद्ध होता है कि वे सांगीतिक व्याकरण के ज्ञाता भी थे। संगीत शास्त्र के ज्ञाता मानते हैं कि उन्होंने अपनी गीत काव्य कृतियों में इक्कीस राग-रागनियों को समाविष्ट किया है।
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गोस्वामी तुलसीदास जी,संगीत मर्मज्ञ वाग्गेयकार थे इसी कारण उनके काव्य पदों की अभिव्यक्ति में एक कोमल संगीतात्मक लय, भाव तथा रस का सहज प्रवाह विद्धमान है। इनकी लय में ऐसा मोहक आकर्षक है कि मन स्वतः ही उन्हें गुनगुनाने के लिए प्रेरित होता है। निश्चय ही तुलसी के काव्य का संगीतमय जादू आज भी जनमानस को अभिभूत कर देता है।