देश के सुप्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी सालिम अली का जन्म हुआ और उनके जन्म दिवस को ‘राष्ट्रीय पक्षी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।डॉ सलीम मोइज़ुद्दीन अब्दुल अली, जिन्हें ‘बर्डमैन ऑफ इंडिया’ के नाम से जाना जाता है। एक भारतीय पक्षी विज्ञानी, वन्यजीव संरक्षणवादी और प्रकृतिवादी थे।
पक्षियों के बारे में अध्ययन में उनका योगदान उल्लेखनीय है। कह सकते हैं कि अगर वह नहीं होते तो आज देश में पक्षियों का सुनियोजित ढंग से सर्वे मुमकिन नहीं हो पाता। लोगों को विभिन्न प्रकार की पक्षियों और उनके गुणों के बारे में पता नहीं चलता। डॉ. सलीम देश के पहले ऐसे पक्षी विज्ञानी थे जिन्होंने सम्पूर्ण भारत में व्यवस्थित रूप से पक्षियों का सर्वेक्षण किया और पक्षियों पर ढेर सारे लेख और किताबें लिखीं। उनके द्वारा लिखी पुस्तकों ने भारत में पक्षी-विज्ञान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 27 जुलाई 1987 को 91 साल की उम्र में डॉ. सालिम अली का निधन मुंबई में हुआ।
डॉ सलीम बॉम्बे के एक सुलेमानी बोहरा मुस्लिम परिवार में 12 नवम्बर 1896 को जन्मे थे, वे अपने माता-पिता के सबसे छोटे और नौंवे बच्चे थे। जब वे 1 साल के हुए तो उनके अब्बा मोइज़ुद्दीन चल बसे और 3 साल की उम्र में अम्मी ज़ीनत भी नहीं रहीं। सलीम और उनके भाई-बहनों की देखरेख उनके मामा अमिरुद्दीन तैयबजी और चाची हमीदा द्वारा मुंबई की खेतवाड़ी इलाके में हुआ। जब वे मुंबई के सेंट जेविएर में प्रारंभिक शिक्षा ले रहे थे तब वे गंभीर सिरदर्द की बीमारी से पीड़ित हुए, जिसके कारण उन्हें अक्सर कक्षा छोड़नी पड़ती थी।
जिसके बाद उन्हें अपने एक चाचा के साथ रहने के लिए सिंध भेज दिया गया। वे लंबे समय के बाद सिंध से वापस लौटे और बड़ी मुश्किल से सन 1913 में बॉम्बे विश्वविद्यालय से 10 वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की इसके बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और परिवार के बुलफ्रेम माइनिंग और इमारती लकड़ियों के व्यवसाय की देख-रेख के लिए बर्मा चले गए। यहां के घने जंगल में इनका मन तरह-तरह के परिन्दों को देखने में लगता।
लगभग 7 साल बाद सलीम अली मुंबई वापस लौट गए और पक्षी शास्त्री विषय में प्रशिक्षण लिया और बंबई के नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के म्यूज़ियम में गाइड के पद पर नियुक्त हो गये। यहां भी उनका मन नहीं लगा और वे जर्मनी चले गए जहां पर पक्षी विज्ञान में उच्च प्रशिक्षण प्राप्त किया।उन्होंने जर्मनी के बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक इरविन स्ट्रेसमैन से शिक्षा लेने के बाद सन् 1930 में भारत लौट आये। फिर यहां पर पक्षियों पर तेजी से कार्य प्रारंभ किया। कहा जाता है कि डॉ. सलीम मोइज़ुद्दीन अब्दुल अली परिंदों की ज़ुबान समझते थे।
उन्होंने पक्षियों के अध्ययन को आम जनमानस से जोड़ा और कई पक्षी विहारों की तामीर में अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने पक्षियों की अलग-अलग प्रजातियों के बारे में अध्ययन के लिए देश के कई भागों और जंगलों में भ्रमण किया। कुमाऊं के तराई क्षेत्र से डॉ. सलीम ने बया पक्षी की एक ऐसी प्रजाति ढूंढ़ निकाली जो लुप्त घोषित हो चुकी थी।
साइबेरियाई सारसों की एक-एक आदत की उनको अच्छी तरह पहचान थी। उन्होंने ही अपने अध्ययन के माध्यम से बताया था कि साइबेरियन सारस मांसाहारी नहीं होते, बल्कि वे पानी के किनारे पर जमी काई खाते हैं।वे पक्षियों के साथ दोस्ताना व्यवहार करते थे और उन्हें बिना कष्ट पहुंचाए पकड़ने के 100 से भी ज़्यादा तरीक़े उनके पास थे।
पक्षियों को पकड़ने के लिए डॉ सलीम अली ने प्रसिद्ध गोंग एंड फायर व डेक्कन विधि की खोज की जिन्हें आज भी पक्षी विज्ञानियों द्वारा प्रयोग किया जाता है। देश की आज़ादी के बाद डॉ सलीम अली बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के प्रमुख लोगों में रहे। भरतपुर पक्षी विहार की स्थापना में उनकी प्रमुख भूमिका रही।