नवरात्र महोत्सव व गरबा का आध्यात्मिक मर्म

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नवरात्र महोत्सव व गरबा का आध्यात्मिक मर्म

प्रसंग वश ~ वरिष्ठ साहित्यकार व पत्रकार चंद्रकांत अग्रवाल का कालम // मां की कृपा छाया में साधना,त्याग,प्रेम व समर्पण के नवरात्र महापर्व का आध्यात्मिक मर्म// // मातृ शक्ति के प्रति समर्पण को, महारास से, जो अब गरबा बन गया, नूतन आयाम दिए थे द्वापर में श्री कृष्ण ने
शक्ति की आराधना, माँ की साधना-भक्ति का पावन नवरात्र, 26 सितंबर 2022, सोमवार से प्रारंभ हो गया है। जब भी कहीं माँ का जिक्र आता है तो मुझे लगता है कि वास्तव में मानव सभ्यता के अब तक के इतिहास में माँ , प्रकृति का सबसे बड़ा वरदान है, जिसका थोड़ा अहसास हमें प्रायः हर नवरात्र में होता है। वैसे भी संसार के संचालन में योगमाया की केंद्रीय भूमिका हमारे वेद, पुराण भी स्वीकारते ही हैं। दरअसल दोनों ही नवरात्र वास्तव में ऋतुओं के संधिकाल की बेला होती है। श्री मद भागवत के रासपंचाध्यायी में महारास का उल्लेख है जो अब गरबा बन गया है व गुजरात से प्रारंभ हो सम्पूर्ण देश में छा गया है। खासतौर से नवरात्र उत्सव में मां को प्रसन्न करने की नृत्य, गीत,संगीत कला साधना के टैग के साथ। पर अब इसमें मां के प्रति भक्ति ,प्रेम का भाव कम हो गया है। बड़े शहरों में तो यह ग्लैमर व व्यावसायिकता का प्रतीक बन गया है। देश भर में हजारों करोड़ का व्यापार बन गया है। अलबत्ता इटारसी जैसे छोटे शहरों में यह अभी भी मां को रिझाने के भाव से हो रहा है। द्वापर में श्री कृष्ण ने मातृ शक्ति स्वरूपा श्री राधा के अलौकिक प्रेम,दिव्यता व सानिध्य में महारास रचा था। जिसमें इतनी मर्यादा थी कि भोलेनाथ शिव को भी गोपी वेष धारण करने पर भी श्री राधा ने पहचान लिया था। क्योंकि महारास में शरीर नहीं आत्मा का परमात्मा के साथ एकाकार होने का समर्पण का,प्रेम का भाव था। जिसमें किसी भी छल रूपी गोपी के लिए प्रवेश निषेध था, फिर भले ही वे शिव ही क्यों न हों। तो फिर हम मानवों की तो औकात ही क्या। वरना अपने व परायों की, पहचान करना तो कोरोना ने 3 साल में करोड़ों को सिखा ही दिया है। सोशल डिस्टेंसिंग बढ़ाकर किस तरह इमोशनल डिस्टेंसिंग भी बढ़ा लेते हैं लोग, यह व्यवहारिक रुप से सबको महसूस हुआ। अन्यथा तो व्यक्ति झूठे व बेमतलब के सम्बन्धों के चक्रव्यूह में ही जीवन भर फंसे रहते हुए अपने आप को धोखा देता रहता है। सार्थक जीवन ही अहम होता है, वास्तव में तो फिर चाहे वह छोटा ही क्यों न हो। नवरात्र की पूर्व बेला के लमहों ने फिर मां के प्रति मेरे चिंतन के आयाम रोशन कर दिये। वैसे भी जब संसार धोखा देता है, तभी मां याद आती है,तभी अध्यात्म की तेजस्विता का अहसास होता है हमें। वैसे भी मेरी स्पष्ट मान्यता है कि जीवन की हर समस्या का स्थायी समाधान सिर्फ भारतीय दर्शन के अध्यात्म में ही है। किसी भी पर्व की भौतिक तैयारी तो 1 घण्टे में भी हो सकती है पर आध्यात्मिक तैयारी अपने भीतर झांकने के लिए वक्त भी लेती हैं व आपको अपने भीतर कहीं छुपा, मां का दिया निश्च्छल, समर्पण भाव भी जाग्रत करने हेतु प्रेरित करती है। श्री कृष्ण मेरे आराध्य , मेरे ईष्ट हैं ,तो वैसे तो इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि श्री राधा को मैंने सदैव अपनी अलौकिक माँ के रूप में महसूस किया है, अपनी आत्मा में, अपने दिलो दिमाग में। गीता मनीषी श्री ज्ञानानंदजी ने बड़े स्नेह के साथ मुझे श्री कृष्ण कृपा काव्य दिया था 12 वर्ष पूर्व। उसी काव्य- ग्रन्थ की ये पंक्तियां मेरे जेहन में सदैव जीवंत रहती हैं। जब भी कोई दुविधा, कष्ट या मानसिक संताप या अशांति होती है तो मेरा मन उन्हें गुनगुनाने लगता है, बड़ी दीनता, कातरता पर अधिकार से भी, जो आपके साथ शेयर करने की इच्छा हो रही है-
राधा मम बाधा रहो, श्री कृष्ण करो कल्याण।
युगल छबि वंदन करूं,जय-जय राधेश्याम।।
राधे मेरी मात है, पिता मेरे घनश्याम।
इन दोनों के चरणों में, कोटि- कोटि प्रणाम।।
ये पंक्तियां उस काव्य के चरमोत्कर्ष पर आती हैं। बिना पूरा काव्य पढ़े पाठकों को इन पंक्तियों की गहराई का दिव्य अहसास महसूस नहीं होगा। मुझे स्वयं एक साल तक लगातार पढऩे के बाद ही धीरे-धीरे यह अहसास होना शुरू हुआ था। इन पंक्तियों को आपके साथ शेयर करने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि मेरे लिए व मेरे जैसे सभी श्री कृष्ण भक्तों के लिए व जो कृष्ण भक्त नहीं भी हैं पर उनकी दिव्य लीलाओं को जानते हैं, उन सबकी हर बाधा का एक सहज समाधान राधा ही हैं क्योंकि वो माँ हैं। माँ भगवती भी वहीं हैं जिनकी आराधना हम नवरात्र में करेंगे। श्री कृष्ण तो पिता हैं, परमपिता हैं। बस इसी मोड़ पर हम माँ होने से श्री राधा के चरणों के ज्यादा करीब हो जाते हैं। श्री कृष्ण से भी ज्यादा।

 

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मैंने पूर्व में लिखा कि माँ भगवती भी वही हैं। माँ के भक्तों व विद्वानों के सर्वमान्य व प्रामाणिक ग्रन्थ श्री दुर्गा सप्तशती में माँ की जो आरती अंतिम पृष्ठों पर दी गई है, उसकी दो पंक्तियों पर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा-

राम -कृष्ण तू सीता ब्रजरानी राधा।
तू वांच्छाकल्पद्रुम हारिणी सब बाधा।।

अर्थात नाम व स्वरूप हम जो भी मान लें , सीता, गौरी, दुर्गा , काली, लक्ष्मी, सरस्वती, पर सभी उस मातृ शक्ति को अभिव्यक्त करती हैं, जो परम पिता परमात्मा जिसे हम चाहे राम कहें, कृष्ण कहें , शिव कहें, विष्णु कहें या अन्य कोई भी नाम देवें, इनकी आराध्या शक्ति , आत्म शक्ति, ही हैं।वास्तव में तो नवरात्र में मां की भक्ति साधना करने वाला हर जीव दुर्गा सप्तशती को परम सत्य मानता हैं और वहीं ग्रंथ आपको स्पष्ट कह तो रहा है कि भक्तों की सब बाधा हरती हैं ब्रजरानी राधा स्वरूपा मातृ शक्ति। खैर, अब आपको ले चलता हूँ, उस धरा , उस द्वापर युगीन कालखण्ड की पृष्ठभूमि में जहां है हिरण्य, कपिला और सरस्वती का अद्भुत संगम। इसी धरा से मैंने एक प्रबंध काव्य भी लिखा है, जिसका एक अंश अंतरराष्ट्रीय स्तर के वर्चुअल साहित्य मंचों व सोशल मीडिया पर काफी लोकप्रिय भी हुआ है। उसका शीर्षक है,महाप्रयाण की बेला में श्री कृष्ण राधा संवाद। मैंने इसकी पृष्ठभूमि भी कालपुरुष श्री कृष्ण के अपने मानवीय अवतार से महाप्रयाण की ही चुनी है। कोरोना संक्रमण काल ने हमें जीवन के अंतिम सत्य मौत से बहुत अच्छी तरह रूबरू करा दिया है। हर व्यक्ति अपने अंतिम समय में अपने सम्पूर्ण जीवन को एक फिल्मी फ्लेश बेक की तरह देखता महसूस करता है। हालांकि कालपुरुष तो अविनाशी व कण कण में सदा व्याप्त होता है, पर चूंकि यहां मैं श्री कृष्ण रूप में कालपुरुष के मानवीय अवतार से महाप्रयाण की बात कर रहा हूँ, जिस पर मैंने उक्त प्रबंध काव्य लिखा है। पर आज इस गद्य कॉलम में उस में अंतर्निहित कुछ भाव अलग तरह से उल्लेख के साथ जोड़ रहा हूँ। प्रभास क्षेत्र में दूर तक फैली अपूर्व शांति, अश्वत्थ के सहारे मौन लेटा है कालपुरूष। हवा के साथ विशाल वृक्ष की डालियां जाने किस संवाद में खोई हैं। खोए हुए तो कृष्ण भी हैं। अपनी द्वापर की जीवन गाथा के पन्ने उलट-पलट रहे हैं। यमुना के जल में धीमे-धीमे घुल रहा है मोर पंख का रंग और इस जल के बीच सुंदर-सजल आंखें झिलमिलाती हैं, सवाल करती – जा रहे हो कान्हा पर क्या सचमुच अकेले जा सकोगे?सवाल करती इन आंखों के साथ जाने कितनी आंखें याद हो आती है उन्हें । वसुदेव के साथ गोकुल भेजती देवकी की आंखें , ऊखल से बांधती यशाोदा की आंखें , गोकुल में गोपियों की आंखें, राजसभा में पुकारती द्रौपदी की आंखें , प्रभास उत्सव के लिए बिदा करती रूक्मिणी की आंखें, यमुना की आंखें और यमुना की धार में विलीन होती परम प्रिया राधा की आंखें। उन आंखों का जल कृष्ण की आंखों से बहने लगता है- तुमसे अलग होकर कहां जाऊंगा? छाया से काया कैसे अलग हो सकती है भला। जहां तुम हो, वहां मैं हूं। कृष्ण की एकमात्र शरण तुम ही तो हो। ऐसा परिहास न करो। मेरी शरण की तुम्हें क्या आवश्यकता कान्हा? कहां मैं एक साधारण-सी ग्वालिन और कहां तुम जैसा असाधारण पुरूष । तुम तो सारी सृष्टि को शरण देते हो। तुम मेरे शरणाार्थी कैसे हो सकते हो? परिहास नहीं सखी। जन्म लेते ही जिसे मां के आंचल को छोड़कर भवसागर की लहरों के बीच उतरना पड़ा, उसकी पीड़ा को तुम्हारे अतिरिक्त कौन हर सकता है? सारी सृष्टि को शरण देने की सामर्थ्य भले ही कृष्ण में हो, लेकिन कृष्ण को शरण देने की सामर्थ्य तो केवल तुम्हारे हदय में है। कृष्ण के प्रत्येक सृजन की पृष्ठभूमि में तुम ही हो। गोवर्धन धारण करने वाली मेरी तर्जनी का बल भी तुम ही थी। कन्हैया का बांकपन भी तुम ही थी, योगेश्वर कृष्ण का ध्यान भी तुम ही हो। तुमने ही तो सिखाई मुझे , प्रेम ,समर्पण,त्याग की वर्णाक्षरी। इस चैत्र नवरात्र में काल पुरूष द्वारा स्वयं के द्वारा मातृ शक्ति के इस अभिनंदन से बड़ी कोई आराधना नहीं हो सकती। तो कौन है वह मातृ शक्ति, जिसकी शरण का आकांक्षी है तीनों लोकों को तारने वाला असाधारण पुरूष? कृष्ण को शरण देने की सामर्थ्य रखने वाला यह हदय किसका है? कृष्ण को शरण देने वाला ये हदय उसी आराधिका का है, जो पहले राधिका बनी और फिर राधिका से कृष्ण की आराध्या हो गई। कृष्ण आराधना करते हैं, इसलिए वे राधा हैं या वे कृष्ण की आराधन करती है, इसीलिए राधिका कहलाती है। सच, बहुत कठिन है इसको परिभाषित करना, क्योंकि इसकी परिभाषा स्वयं कृष्ण हैं। खुद को असाधारण होने की सीमा तक साधारण बनाए रखने वाली सिर्फ मां ही होती है संसार भर में। संपूर्ण ब्रज रंगा है कृष्ण रंग में, कदंब से लेकर कालिंदी अर्थात यमुना तक । सब ओर कृष्ण ही कृष्ण। लेकिन इस कृष्ण की आत्मा बसती है राधा में। वृंदावन की कुंज गलियां हों या मथुरा के घाट हर ओर, हर तरफ बस एक नाम, एक रट, राधा राधा राधा । बांके का बांकपन भी राधा है और योगेश्वर का ध्यान भी राधा है। कृष्ण के विराट को समेटने के लिए जिस राधा ने अपने हदय को इतना विस्तार दिया कि सारा ब्रज ही उसका हदय बन गया । उसी राधा के बारे में जो कृष्ण की आत्मशक्ति भी हैं, गोपियां पूछती है कि ये आराधिका वास्तव में है कौन? कौन है वो मानिनी, जिसकी वेणी गूंथता है उनका श्याम, जिसके पैर दबाता है सलोना घनश्याम और हां जब वो रूठ जाती है तो मोर बनकर नृत्य भी करता है । गोपियां ही नहीं, कृष्ण भी पूछते हैं, बूझत श्याम, कौन तू गोरी । लेकिन मां को बुझ पाना,राधा को बूझना इतना सरल नहीं और मां या राधा को बूझ पाने से भी कठिन है- मां या राधा के प्रेम की थाह बूझ पाना। इसी अथाह प्रेम की थाह पाने के लिए एक बार लीलाधर ने एक लीला रची। स्मृतियां कृष्ण को खींच ले गईं उत्सव के क्षणों में। हर ओर खुशी का सैलाब। हास-परिहास के बीच अचानक पीड़ा से छटपटाने लगे कृष्ण। ढोल , ढप, मंजीरे खामोश होकर मधुसूदन के मनोहारी मुख पर आती-जाती पीड़ा की रेखाओं को पढऩे लगे। चंदन का लेप शूलांतक वटी कोमलांगी स्पर्श सब व्यर्थ। वैद्य लज्जित से एक-दूसरे को निहार रहे थे। सत्या ने डबडबाती आंखों से पूछा तो उत्तर मिला, मेरे किसी परम प्रिय की चरण धूलि के लेप से ही मेरी पीड़ा ठीक हो सकती है। कृष्ण की पीड़ा बढ़ती ही जा रही है। सोलह हजार रानियां-पटरानियां करोड़ों भक्त, सखा, सहोदर सब प्राण होम करके भी अपने प्रिय की पीड़ा हरने को तैयार हैं, लेकिन प्रभु के मस्तक पर अपनी चरण धूलि लगाकर नर्क का भागी कोई नहीं बनना चाहता। सबने अपने पांव पीछे खींच लिए। राधा ने सुना तो नंगे पांव भागती चली आई। आंसुओं में चरण धूलि का लेप बनाकर लगा दिया कृष्ण के भाल पर। सब हतप्रभ थे। ये कैसी आराधिका है, इसे नर्क का भी भय नहीं। कृष्ण मुस्कुरा दिए, जिसने मुझमें ही तीनों लोक पा लिए हों, वो अन्यत्र किसी स्वर्ग की कामना करें भी तो क्यों ? सारे संसार को मुक्त करने वाला इसीलिए तो बंधा है इस आराधिका से। कृष्ण सबको मुक्त करते हैं, लेकिन राधा कभी मुक्त नहीं करती कृष्ण को। कृष्ण खुद भी कहां मुक्त होना चाहते हैं, ब्रज की इस गोरी के मोहपाश से। कभी-कभी रूक्मिणी छेड़ती हैं, क्या सचमुच बहुत सुंदर थी राधा? कृष्ण कहते हैं हां, बहुत सुंदर इतनी सुंदर कि उसके सामने मौन हो जाती हैं, सौंदर्य की समस्त परिभाषाएं। माँ का सौंदर्य आज तक भला कौन बता पाया। एक प्रसंग आता है कि सूर्योपराग के समय महाभारत के युद्ध के उपरांत कुरूक्षेत्र में सब उपस्थित हुए हैं । राधा भी आई है, नंद-यशोदा, गोप-ग्वाल, गोपियों के साथ। रूक्मिणी आश्चर्य में हैं । इस राधा के आते ही सारा परिवेश कैसे एकाएक नीला हो गया है। और कृष्ण का नीलवरण राधा के बसंत से मिलकर कैसे सावन-सावन हो उठा है। राधा को बड़भागिनी कहता है ये संसार लेकिन बड़भागी तो कृष्ण हैं, जिन्हें राधा जैसी गुरू मिली , सखी मिली, आराधिका मिली। जिसने उन्हें प्रेम, समर्पण और त्याग की वर्णाक्षरी सिखाई। तभी तो दानगढ़ में दान मांगते हैं कृष्ण । दानगढ़ जो बसा है सांकरी खोर और विलासगढ़ से विपरीत दिशा में।
यहां राधा के चरणों में झुककर याचक हो जाते हैं कृष्ण । हे राधे बड़ी दानी है तू, सुना है तेरे बरसाने में जो भी आता है, वो खाली हाथ नहीं जाता। मुझे भी दान दे। दानगढ़ में कृष्ण को दिया गया, ये महादान ही पाथेय बन जाता है कृष्ण का, गैया चराने वाले गोपाल से द्वारिकाधीश बनने तक की लंबी यात्रा में। कुरूक्षेत्र से लेकर प्रभास तक राधा का यही प्रेम तो जीवन रसधार बनकर बहता रहा कृष्ण के भीतर। गीता का आधार भी यही प्रेम है और नवरात्र के पावन गरबों का रस भी। वेणु हो या पांचजन्य, दोनों में एक ही स्वर फूटता है। एक ही पुकार उठती है, राधे तेरे नैना बिंधो री बान । कृष्ण से जुड़ी हर स्त्री राधा होना चाहती है। स्वयं कृष्ण भी राधा हो जाना चाहते हैं। लेकिन कृष्ण जानते हैं कि राधा का पर्याय केवल राधा ही हो सकती हैं। इसलिए तो कृष्ण बार बार आना चाहते हैं राधा की शरण में। सच तो यह लगता है मुझे कि कृष्ण व मां राधा कोई स्वरूप नहीं वरन समर्पण व प्रेम के भाव स्वरूप ही हैं। जिसका कोई आकार नहीं होता मात्र अहसास होता है। प्रेम ही कृष्ण हैं समर्पण ही राधा हैं , फिर चाहे वह हमारा अपने माता पिता से हो भाई बहन से हो पुत्र पुत्री से हो या पति पत्नी के मध्य हो या अपने मित्रों, गली मोहल्ले के , शहर के,जिले,प्रदेश के लोगों से हो ,अपनी मातृभूमि से या अपने देश से हो। वह क्या इतना प्रगाढ़ है कि हम उसमें कृष्ण को देख सकें, राधा को देख सकें , यही आत्म चिंतन का दुर्लभ अवसर मिला है हमें पुनः इस बार भी नवरात्र में,अन्यथा तो हमें अपने स्वयं के बारे में सोचने के लिए भी वक्त नहीं मिलता है। पर सोशल डिस्टेंन्स के साथ कहीं हमने अपनी इमोशनल डिस्टेंन्स भी तो नहीं बढ़ा ली हैं? हम आज के अर्थप्रधान युग में पैसों को ही कलयुग का सबसे बड़ा भगवान मानकर पहले से अधिक स्वार्थी, असंवेदनशील, तो नहीं हो गए हैं, अन्य की पीड़ा को लेकर भी, भले ही वे हमारे अपने हों या पराए ही क्यों न हों? इसलिए मैं कहता हूं कि लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे, दूसरे कैसा व्यवहार कर रहे हैं आपके साथ, यह सब मत सोचिए। अन्यथा आपका यह चिंतन ही आपके लिए घातक हो सकता है । गोप गोपियों ने, सुदामा ने ,मीरा ने, कबीर ने,रसखान ने,सूरदास ने और भी असंख्य लोगों ने यहां तक कि कलयुग में भी कई कई प्रेमियों ने यह सब नहीं सोचा तभी उनको प्रेम के श्री कृष्ण मिल सके, समर्पण व ममता की माँ राधा मिल सकीं। फिर माँ राधा की कृपा के बिना कौन पा सका श्री कृष्ण को। तो मैं बात कर रहा था श्री कृष्ण के महाप्रयाण की बेला की। आंखों में एक चमक सी कोंधती हैं। दूर कांलिंदी की लहरों पर एकांत पथिक सा नि:शब्द बढ़ रहा है राधा की मन्नतों का एक दीया। कृष्ण मौन सुन रहे हैं। आप भी महसूस कीजिए कि नवरात्र की इस पावन बेला में मां खुद चलकर हमारे पास आई है। उसको रिझाने,प्रसन्न करने के लिए, हमें अपना मन निर्मल, निश्च्छल, बनाना होगा। यह तभी सम्भव होगा जब हम दूसरों की पीड़ा को भी अपनी पीड़ा की तरह महसूस कर पाएं। भले ही उसके लिए कुछ भी न करें पर कम से कम हमारे भीतर कुछ करने का भाव तो जागृत हो । प्रारब्ध भोग तो सबको अपना अपना स्वयं ही काटना होता है। पर जब मां की कृपा दृष्टि रहती है तो यह प्रारब्ध भोग आसानी से कट जाता है। इस नवरात्र के दिनों व उसके बाद के भी शांत एकांत के निर्बाध कालखंड में जप, तप, यज्ञ, योग, ध्यान, आत्म चिंतन आदि साधनाओं व चिंतन, मनन, ध्यान के असीम आयामों में , गरबों में अपनी मां के प्रति भक्ति,प्रेम,समर्पण का इंद्रधनुष रच कर। फिर देखिए मां की ममता का जादू। घर दफ्तर , बाज़ार या कहीं पर भी रहते हुए यदि कृष्ण भक्त,भगवती स्वरूप माँ राधा के इस अलौकिक अहसास को जरा सा भी महसूस कर सके तो मैं अपना आज का यह कालम लिखना सार्थक समझूंगा। तब आपकी यह नवरात्र जीवन की अनमोल धरोहर बन जाएगी और आपके भौतिक, मानसिक व सामाजिक जीवन में अध्यात्म के प्रकाश से कई नए सकारात्मक बदलाब कर देगी। जय श्री कृष्ण।