
सियासत के सितारे Scindia’s Royal Family: सत्ता, संघर्ष और विचारधारा की 3 पीढ़ियों की कहानी
राजेश जयंत
भारत की राजनीति में कुछ परिवार ऐसे हैं, जिनकी विरासत सिर्फ सत्ता की कुर्सी तक सीमित नहीं, बल्कि विचारधारा, संघर्ष और बदलाव की मिसाल बन गई है। सिंधिया राजघराना उन्हीं में से एक है- जिसने रियासतों के वैभव से लेकर लोकतंत्र की गलियों तक अपनी पहचान और असर को लगातार जिंदा रखा। सत्ता के शिखर, विचारधारा की टकराहट और जनता के साथ रिश्तों की यह कहानी तीन पीढ़ियों से भारतीय राजनीति को नई दिशा देती रही है, और आज भी मध्यप्रदेश की राजनीति में सिंधिया नाम एक बड़ा सितारा बना हुआ है।
मध्यप्रदेश की राजनीति में सिंधिया परिवार का नाम हमेशा सत्ता, बदलाव और विचारधारा के प्रतीक के रूप में लिया जाता रहा है। 1956 में राज्य के गठन के बाद जब पंडित नेहरू ग्वालियर आए, तो सिंधिया रियासत के वैभव से प्रभावित होकर उन्होंने महाराज जीवाजी राव सिंधिया को कांग्रेस में शामिल होने का न्योता दिया। लेकिन जीवाजी राव हिंदू महासभा के समर्थक थे और कांग्रेस को आमजन के लिए उपयुक्त नहीं मानते थे, इसलिए उन्होंने नेहरू का प्रस्ताव ठुकरा दिया। परिवार पर राजनीतिक दबाव बढ़ा, तो महारानी विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस से राजनीति की शुरुआत की और 1957 व 1962 में सांसद बनीं। महाराज के निधन के बाद वे ‘राजमाता’ के नाम से पहचानी जाने लगीं।

1967 में राजमाता ने कांग्रेस छोड़ जनसंघ (अब बीजेपी) का दामन थामा और मध्यप्रदेश की राजनीति में भूचाल ला दिया। उन्होंने कांग्रेस के 36 विधायक तोड़कर सरकार गिरा दी और गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनवाया। राजमाता ने कभी सत्ता का पद नहीं लिया, बल्कि सेवा और विचारधारा को प्राथमिकता दी। उनके नेतृत्व ने बीजेपी को राजवंशियों और प्रभावशाली वर्ग का मजबूत समर्थन दिलाया। हालांकि, उनका प्रभाव ग्वालियर-चंबल क्षेत्र तक सीमित रहा, और गांधी परिवार से राजनीतिक प्रतिद्वंदिता भी बनी रही।

सिंधिया परिवार की राजनीतिक विरासत सिर्फ मध्यप्रदेश तक सीमित नहीं रही। माधवराव सिंधिया की बहन वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं और दो बार राज्य की कमान संभाली। उन्होंने महिला सशक्तिकरण, सड़क और सामाजिक योजनाओं में बड़ा योगदान दिया। वहीं, यशोधरा राजे सिंधिया मध्यप्रदेश में भाजपा की वरिष्ठ नेता और मंत्री रही हैं। एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग पार्टियों में सक्रिय रहकर भी अपनी-अपनी पहचान और असर कायम रखते आए हैं।


राजमाता के बेटे माधवराव सिंधिया ने अलग राह चुनी- वे कांग्रेस में शामिल हुए और पार्टी के बड़े नेता बने। लेकिन परिवार की विरासत और विचारधारा का संघर्ष यहीं नहीं रुका।

हाल के वर्षों में सिंधिया परिवार की राजनीति में एक और बड़ा मोड़ आया, जब 2019 के लोकसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया को गुना-शिवपुरी सीट से हार का सामना करना पड़ा। यह सिंधिया परिवार के इतिहास में पहली बड़ी चुनावी हार थी, जिसने परिवार की पकड़ को झटका दिया। इसके बाद 2020 में ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया, जिससे मध्यप्रदेश की सियासत में भूचाल आ गया। उनके साथ कई विधायक भी बीजेपी में चले गए, जिससे कमलनाथ सरकार गिर गई और बीजेपी सत्ता में लौट आई। आज ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्र सरकार में मंत्री हैं, लेकिन अब भी यह सवाल कायम है कि क्या सिंधिया परिवार का कोई सदस्य कभी मुख्यमंत्री बन पाएगा, क्योंकि तीन पीढ़ियों के बावजूद यह सपना अधूरा ही है।

माधवराव के निधन के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से राजनीति शुरू की, युवा चेहरा बने और 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत में अहम भूमिका निभाई। लेकिन मुख्यमंत्री न बनाए जाने और पार्टी में उपेक्षा के चलते 2020 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ बीजेपी जॉइन कर ली। उनके साथ कई विधायक भी बीजेपी में आ गए, जिससे कमलनाथ सरकार गिर गई और बीजेपी सत्ता में लौटी। ज्योतिरादित्य सिंधिया आज केंद्र सरकार में मंत्री हैं।

सिंधिया परिवार की यह यात्रा सत्ता के गलियारों में बदलाव, विचारधारा की जद्दोजहद और राजनीतिक विरासत के अद्भुत मेल का उदाहरण है। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में आज भी सिंधिया परिवार का प्रभाव कायम है- जिस दल के साथ वे रहे, वहां चुनावी नतीजे उसी के पक्ष में रहे। हालांकि, 2019 में ज्योतिरादित्य की गुना-शिवपुरी सीट से हार ने परिवार की पकड़ को झटका दिया, फिर भी, सिंधिया परिवार की राजनीतिक चालें और फैसले आज भी मध्यप्रदेश की राजनीति को नई दिशा देने की ताकत रखते हैं।
तीन पीढ़ियों की यह कहानी सत्ता, संघर्ष, विचारधारा और जनता के साथ रिश्ते की मिसाल है, जो भारतीय राजनीति में विरले ही देखने को मिलती है। तीन पीढ़ियों के उतार-चढ़ाव के बावजूद, उनका नाम आज भी मध्यप्रदेश की राजनीति में असरदार और प्रेरणादायक बना हुआ है। यह कहानी बताती है कि सियासत में विरासत और बदलाव साथ-साथ चल सकते हैं और जनता का भरोसा ही असली ताकत है।





