
एक अध्ययन –
Gender Equality in Bhil Community:भील समुदाय में महिलाओं की स्थिति और लैंगिक समानता
प्रीति डावर
पश्चिमी मध्य प्रदेश के भील समुदाय में महिलाओं की स्थिति और लैंगिक समानता एक जटिल विषय है, जहाँ पारंपरिक सामाजिक संरचनाएं और आधुनिकता का प्रभाव एक साथ दिखाई देते हैं। भील महिलाएं अपने समाज की धुरी मानी जाती हैं, जो परिवार और अर्थव्यवस्था दोनों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उनका श्रम, चाहे वह कृषि में हो या घर चलाने में, उनके समुदाय की आर्थिक रीढ़ है। यह लेख भील महिलाओं के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है और अन्य प्रमुख जनजातियों से उनकी स्थिति की संक्षिप्त तुलना करता है।
भील समाज में महिला की स्थिति: पारंपरिक शक्ति और आधुनिक चुनौतियाँ
पश्चिमी मध्यप्रदेश के झाबुआ, अलीराजपुर, धार और खरगोन जैसे जिलों में निवास करने वाली भील जनजाति का समाज पितृसत्तात्मक होते हुए भी महिलाओं को कुछ हद तक स्वतंत्रता और सम्मान प्रदान करता है। भील समुदाय में कन्या का जन्म शुभ माना जाता है, जो कई अन्य समाजों से भिन्न है। विवाह के समय ‘दापा’ या वधू मूल्य की प्रथा प्रचलित है, जहाँ वर पक्ष द्वारा वधू के अभिभावकों को कुछ राशि या सामान दिया जाता है। यह प्रथा महिला के आर्थिक मूल्य को दर्शाती है और एक तरह से उसे सामाजिक सुरक्षा प्रदान करती है।
भील महिलाएं घर और कृषि दोनों में कंधे से कंधा मिलाकर काम करती हैं। वे न केवल घरेलू कामकाज संभालती हैं, बल्कि खेतों में पुरुषों के साथ बुवाई, कटाई और निराई जैसे कठिन कार्य भी करती हैं। इसके अलावा, वे जंगल से लकड़ी और कंद-मूल इकट्ठा करने, मवेशियों को चराने और बेचने जैसे कार्यों में भी संलग्न रहती हैं। यह श्रम न केवल उनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत करता है, बल्कि उन्हें परिवार के निर्णयों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अधिकार देता है। कई भील महिलाओं में निर्णय लेने की क्षमता भी देखने को मिलती है, चाहे वह घर से संबंधित संपत्ति खरीदने-बेचने का निर्णय हो या बच्चों की शिक्षा का।
पारंपरिक कला और संस्कृति में भी भील महिलाओं की महत्वपूर्ण भागीदारी है। वे नृत्य, लोकगीत और भित्तिचित्रों, हस्तकला सामग्री निर्माण आदि में निपुण होती हैं। भगोरिया जैसे प्रसिद्ध उत्सवों में उनकी भागीदारी इस बात का प्रमाण है कि वे अपने समाज के सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग हैं।
लैंगिक समानता का स्तर: एक मिश्रित तस्वीर
Gender Equality in Bhil Community -भील समाज में लैंगिक समानता :की तस्वीर पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है, बल्कि यह एक मिश्रित तस्वीर है। एक तरफ, महिलाओं को आर्थिक और सामाजिक निर्णय लेने में अधिकार है, वहीं दूसरी तरफ, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं तक उनकी पहुँच सीमित है। अशिक्षा के कारण उनमें रूढ़िवादिता और अंधविश्वास भी देखने को मिलता है, जिससे स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं, जैसे मातृ और शिशु मृत्यु दर, कुपोषण और अपर्याप्त प्रसवपूर्व देखभाल, बढ़ जाती हैं।
आधुनिकता और बाहरी दुनिया के संपर्क से भी भील महिलाओं के जीवन में बदलाव आ रहे हैं। कुछ मामलों में यह बदलाव सकारात्मक है, जैसे कि शिक्षा और सरकारी योजनाओं तक बेहतर पहुँच, वहीं कुछ मामलों में यह नकारात्मक भी है। वैवाहिक और पूर्व-वैवाहिक संबंधों की जटिलता, और कभी-कभी शोषण की समस्या भी सामने आती है, जो उनकी पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था को कमजोर करती है। हालाँकि, यह भी सच है कि कई भील महिलाएं अब शिक्षा प्राप्त कर रही हैं और सरकारी योजनाओं का लाभ उठाकर आत्मनिर्भर बन रही हैं, जो लैंगिक समानता की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।

अन्य प्रमुख जनजातियों से तुलना
मध्य प्रदेश में भील के अलावा गोंड, कोरकू और बैगा जैसी अन्य प्रमुख जनजातियाँ भी निवास करती हैं। इन जनजातियों में भी महिलाओं की स्थिति मिश्रित है, लेकिन कुछ सूक्ष्म अंतर देखे जा सकते हैं।
गोंड जनजाति, जो मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी जनजाति है, में महिलाएं सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे पारंपरिक गोंडी गीतों और नृत्य में भाग लेती हैं। हालांकि, गोंड समाज में भी पितृसत्तात्मक संरचना मौजूद है, लेकिन कुछ क्षेत्रों में महिलाएं आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रही हैं।
बैगा जनजाति में महिलाएं प्रकृति और जंगल के साथ गहरे जुड़ाव के लिए जानी जाती हैं। वे जड़ी-बूटियों और पारंपरिक चिकित्सा की अच्छी जानकार होती हैं। बैगा समाज में महिलाओं के लिए कुछ कठोर सामाजिक बंधन नहीं हैं और उन्हें पुरुषों के बराबर स्थान दिया गया है। बैगा महिलाएं भी अपने समाज की संस्कृति को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
कोरकू जनजाति में भी महिलाएं कृषि और मजदूरी के कामों में पुरुषों के साथ मिलकर काम करती हैं। इस जनजाति में भी ‘दापा’ या वधू मूल्य की प्रथा प्रचलित है। कोरकू महिलाएं अपनी पारंपरिक कला और संगीत के लिए जानी जाती हैं, और वे अपने समुदाय के सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से भाग लेती हैं।
संक्षेप में, सभी प्रमुख जनजातियों में महिलाओं की स्थिति सम्मानजनक है, और वे अपने-अपने समाज की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक धुरी हैं। हालांकि, भील जनजाति में महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता और निर्णय लेने की क्षमता अन्य कुछ जनजातियों की तुलना में अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, जो उनके समाज में एक अद्वितीय स्थान रखती है।
पश्चिमी मध्यप्रदेश की भील जनजाति में महिला की स्थिति और लैंगिक समानता की कहानी एक संघर्ष और सशक्तिकरण की कहानी है। एक तरफ, वे परंपराओं के बोझ तले हैं और अशिक्षा व स्वास्थ्य समस्याओं जैसी चुनौतियों का सामना कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ, वे अपनी कड़ी मेहनत, आर्थिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक योगदान के माध्यम से अपने समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए हैं। आधुनिकता के प्रभाव से आ रहे बदलावों के बावजूद, भील महिलाएं अपनी पहचान और स्वाभिमान को बनाए रखने का प्रयास कर रही हैं। उन्हें सशक्त बनाने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक बेहतर पहुँच की आवश्यकता है, जिससे वे अपने जीवन को और भी बेहतर बना सकें और लैंगिक समानता की दिशा में आगे बढ़ सकें।
पश्चिमी मध्य प्रदेश की भील जनजाति में महिला की स्थिति और लैंगिक समानता
पश्चिमी मध्य प्रदेश के झाबुआ, आलीराजपुर, धार और बड़वानी जैसे जिलों में भील जनजाति का बड़ा समुदाय निवास करता है। पर्वतों, वनों और नदियों से घिरा यह क्षेत्र अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान और सामुदायिक जीवन शैली के लिए जाना जाता है। भील समाज की सामाजिक संरचना में पुरुष और स्त्री दोनों ही श्रम और जीवन के आधार स्तंभ हैं। खेत, जंगल, मेले और उत्सव – सबमें महिला की सक्रिय भागीदारी है। किंतु जब हम महिला की वास्तविक स्थिति और लैंगिक समानता का प्रश्न उठाते हैं तो तस्वीर उतनी सरल और संतुलित नहीं दिखाई देती।
भील स्त्रियाँ बचपन से ही श्रम की अभ्यस्त होती हैं। खेतों में बुआई-कटाई, लकड़ी और चारा लाना, महुआ-चार-तेंदूपत्ता बीनना, घर संभालना – यह सब उनका दैनंदिन जीवन है। पुरुषों के बराबर परिश्रम करने के बावजूद उन्हें भूमि और संपत्ति पर बराबरी का अधिकार प्रायः नहीं मिलता। कई बार उनके नाम पर कागज़ी अधिकार दर्ज होते हैं, पर निर्णय लेने की शक्ति अब भी सीमित रहती है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी स्थिति चिंताजनक है। आदिवासी अंचलों की लड़कियाँ आज भी विद्यालय से जल्दी छूट जाती हैं। किशोरावस्था में विवाह और घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ उन्हें पढ़ाई से दूर कर देती हैं। यद्यपि सरकारी योजनाओं और छात्रावासों ने अवसर बढ़ाए हैं, पर दूरस्थ गाँवों की लड़कियाँ आज भी उस सहज पहुँच से वंचित हैं, जो शिक्षा को उनके जीवन का स्थायी आधार बना सके।
स्वास्थ्य की दृष्टि से भील महिलाओं के सामने दोहरी चुनौती है। एक ओर गर्भावस्था, प्रसव और पोषण जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में कठिनाई है, तो दूसरी ओर मद्यपान और गरीबी से उपजी पारिवारिक समस्याएँ भी उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती हैं। गाँवों में संस्थागत प्रसव और आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच बढ़ी है, परंतु परंपरागत मान्यताओं और संकोच के कारण वे इन सेवाओं का पूरा लाभ नहीं ले पातीं।
भील संस्कृति में स्त्री का सामाजिक योगदान अवश्य मान्यता पाता है। उत्सवों, मेलों और धार्मिक अनुष्ठानों में उनकी सक्रिय उपस्थिति रहती है। विशेषकर झाबुआ का “हलमा” – सामूहिक श्रम का उत्सव – स्त्रियों की सामुदायिक चेतना का प्रमाण है। वे जल संरक्षण, वृक्षारोपण और ग्राम विकास के कार्यों में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी होती हैं। किंतु इन सामुदायिक गतिविधियों के बावजूद घर और ग्राम सभा जैसे निर्णयकारी मंचों पर उनका स्वर अपेक्षित मजबूती से नहीं उभर पाता।
लैंगिक समानता का स्तर देखें तो यह कहना उचित होगा कि भील समाज ने परंपरागत श्रम और सामाजिक जीवन में स्त्री को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है, किंतु अधिकार और अवसरों की दृष्टि से समानता का आदर्श अभी दूर है। शिक्षा, स्वास्थ्य और संपत्ति-अधिकार में सुधार की आवश्यकता है, ताकि स्त्रियाँ केवल श्रमिक नहीं बल्कि निर्णयकर्ता और नेतृत्वकारी भूमिका में भी देखी जा सकें।

यदि अन्य प्रमुख जनजातियों से संक्षिप्त तुलना करें तो स्पष्ट होता है कि गोंड समुदाय में स्त्रियाँ कृषि और वनोपज में सक्रिय हैं, किंतु शिक्षा में अपेक्षाकृत थोड़ी आगे दिखती हैं। कोरकू और साहारिया महिलाओं के सामने कुपोषण और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियाँ कहीं अधिक गहरी हैं, जबकि बैगा जैसी जनजातियों की स्त्रियाँ भौगोलिक दुर्गमता और आर्थिक अभाव से सबसे अधिक प्रभावित हैं। इनकी तुलना में भील स्त्रियों की सामुदायिक चेतना और संगठन क्षमता अपेक्षाकृत मजबूत कही जा सकती है।
निष्कर्षतः, भील महिला अपने श्रम, धैर्य और सामुदायिक सहयोग से समाज की रीढ़ हैं, परंतु लैंगिक समानता की सच्ची तस्वीर तब ही उभरेगी जब उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य में बराबरी का अवसर, संपत्ति और संसाधनों पर वास्तविक अधिकार, तथा ग्राम शासन में निर्णायक स्थान मिलेगा। तभी वह पारंपरिक मेहनतकश स्त्री से आगे बढ़कर आधुनिक समाज की सशक्त प्रतिनिधि बन सकेगी।
— प्रीति डावर
आदिवासी संस्कृति की विशेषज्ञ और शिक्षाविद्





