कहानी :काफल वाली

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कहानी :काफल वाली

कहानी :काफल वाली

रणीराम गढ़वाली

जन्म-  6 जून सन 1957 को ग्राम मटेला पौड़ी गढ़वाल उत्तराखण्ड।
सम्प्रति- दिल्ली एम. ई. एस. गैरीजन इन्जीनियर  प्रोजेक्ट ईस्ट में सेवारत।
प्रकाशित कृतिया-  कहानी संग्रह, खण्डहर, बुरांस के फूल, देवदासी,व शिखरों के बीच, प्रकाशित। लघु कथा संग्रह आधा हिस्सा तथा एक बाल कहानी संग्रह प्रकाशित। एक उपन्यास व एक बाल कहानी संग्रह प्रकाशन पथ पर।
अनुबाद- कन्नड़, तेलगू , व असमिया भाषाओं में रचनाओं का अनुबाद।
सम्प्राप्ति-  उत्तरांचल जनमंच पुरस्कार व साहित्यालंकार की उपाधि से सम्मानित।

सम्पादन-   काव्य संग्रह हस्ताक्षर का सम्पादन।

कहानी की दुनिया में रणी राम गढ़वाली ने इधर अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई है। गढवाली की ‘काफल वाली’कहानी  काफी चर्चा में रही है। गढवाली की कहानियों मेंउत्तराखंड का असीम सौंदर्य भी है और  जीवन की विडंबनाओं का वर्णन जिस रूप में आता है वह हमें चकित नहीं करता बल्कि हम उस घटना या दृश्य के सहभागी बन जाते हैंआईये पढ़ते हैं रणी राम गढ़वाली की चर्चित कहानी—-

काफल वाली

मेरी नणदा सुशीले नणदा
मिठि बेरी खयोंले य।
अचानक ही इस गीत के बोल सुनते ही एकाएक उसके मुँह से निकला, रुक्मा…! हाथ में काफल के पेड़
की टहनियों से तोड़े गए ताजे व काले-काले काफल अचानक ही नीचे गिर गए। वह कुछ पल तक उस
आवाज की दिशा को नापता रहा, और फिर वह काफल के पेड़ से उतर कर तेजी से उस दिशा की ओर
चल पड़ा जिधर से आवाज आ रही थी।
रुक्मा से मिले उसे बरसों बीत गए…। कैसी होगी रुक्मा…कैसी दिखती होगी वह…? हर साल वह मई-
जून के महीने में दिल्ली से अपने गाँव आकर इस लंगोरा डांडा में काफल तोड़ने आता है ताकि उसे
उसकी रुक्मा मिल सके लेकिन उसे रुक्मा कभी नहीं मिली।
जैसे-जैसे गीत की लाइनें एक-एक करके धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रही थी। वैसे-वैसे उसके हृदय
की धड़कने तेज होती जा रही थी। अगर गीत समाप्त होने से पहले वह वहाँ नहीं पहुँच सका तो रुक्मा
इस घने जंगल में उसकी नजरों के सामने से गायब हो जाएगी, और फिर वह रुक्मा से फिर कभी नहीं
मिल सकेगा।
जंगली पेड़-पौंधों व कटीली झाड़ियों से उलझतेे हुए, उनसे लड़ते हुए, हाँफते हुए जब वह वहाँ पहुँचा तो
रुक्मा को न देखकर उसे एक गहरा सदमा लगा। गीत गाने वाली वह रुक्मा नहीं बल्कि कोई आठ-नौ
साल की एक नन्हीं लड़की काफल के पेड़ पर चढ़कर काफल तोड़ते हुए गीत गा रही थी।
रुक्मा को न पाकर वह उदास व बेचैन हो गया। सालों बाद रुक्मा से मिलने की जो खुशी पलभर
पहले उसकी आँखों में दिखाई दे रही थी वह किसी गहरे सन्नाटे में बदल चुकी थी। अचानक ही रात के
अंधेरे में किसी रेगिस्तान की सी बीरानी उसके चेहरे पर दौड़ने लगी।
अपने चेहरे पर आए पसीने को पोंछते हुए वह कुछ पल तक उसे देखता रहा, और फिर वह रुक्मा की
याद में खो गया…।
बरसों पहले रुक्मा उसे यहीं इसी जंगल में मिली थी। वह अपने गाँव की लड़कियों से काफल तोड़ते
हुए बिछुड़ गई थी। जंगल से लगातार उसकी आवाजों को सुनकर वह समझ चुका था कि वह अपने
साथियों से बिछुड़ गई है। घना जंगल व अकेली होने के कारण उसके साथ किसी भी वक्त कुछ भी होसकता है। इससे पहले कि उस लड़की के साथ कोई अनहोनी घटना घटे उसे जल्दी-से-जल्दी उस लड़की
के पास पहुँच जाना चाहिए।
सोचते हुए वह तेजी से उस लड़की की ओर दौड़ पड़ा। जंगल के पेड़, पौधों ने तथा कटीली झाड़ियों ने
अपने नाखूनों से उसके मुँह को चीरते हुए उसका रास्ता रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वह उनकी
परवाह किए बिना जब रुक्मा के पास पहुँचा तो वह बुरी तरह से हाँॅफ रहा था…। उसका चेहरा पसीने से
भीगा हुआ तथा लाल हो चुका था…। कटीली झाड़ियों के नुकीले नाखूनों ने उसके चेहरे पर लम्बी-लम्बी
टेढ़ी-मेढ़ी खरोंचे पैदा कर दी थी, जिन से खून रिसने लगा था। बदन पर पहनी कमीज पर भी कई घाव
दिखाई देने लगे…।
अचानक उसे अपने सामने देखकर रुक्मा उसके सीने से लिपट पड़ी। डर के मारे उसका गोरा चेहरा
काला पड़ चुका था। गालों पर मोटे-मोटे आँसू ढुलक रहे थे। उसकी साँसे इस कदर तेज चल रही थी जैसे
कि वह किसी जंगली जानवर से अपने को बचाने के लिए मीलों दूर से दौड़ती आ रही हो। उसकी
हिचकियाँ दूर-दूर तक सुनाई दे रही थी। उसका सारा शरीर इस तरह से काँप रहा था जैसे कि वह कहीं
बर्फीली जगह में फँस गई हो।
वह बड़ी देर तक रुक्मा को अपने सीने से लगाए रहा। जब उसका रोना कुछ कम हुआ तो उसने
अपने हाथों से उसके आँसूं पोंछते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ कोई नहीं है…?’’
‘‘हमारे गाँव के लड़के व लड़कियाँ थी लेकिन वे मुझे कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। मुझे बहुत डर लग
रहा है।’’ कहते हुए वह उसके सीने से लगकर फिर से रोने लगी।
‘‘चलो मैं तुम्हें रास्ते तक छोड़ देता हूँ।’’ कहकर वह रुक्मा का हाथ पकड़कर जंगल को पार करता हुआ
जब रास्ते में पहुँचा तो रुक्मा के होंठों पर मुस्कान तैर गई। आस-पास के गाँवों व गाय-बछियों का
रम्भाना सुनकर उसने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए।
‘‘क्या नाम है तुम्हारा…?’’ सड़क के किनारे बाँज के पेड़ की छाँव में बैठते हुए उसने कहा।
‘‘रुक्मा…रुक्मणी…।’’
‘‘तुम बहुत अच्छी हो…।’’
वह चुप रही। उसकी नजरें झुक गई।

‘‘रोते हुए तुम बहुत सुन्दर लगती हो, काफल की तरह सुन्दर…लेकिन रोते हुए जब तुम्हारें गालों पर
आँसू बहते हैं तो पता कैसे लगते है?’’
‘‘कैसे लगते हैं ? मुझे क्या पता…?’’
‘‘जैसे आकाश से चन्दा के आँसू टपक रहे हों….।’’
‘‘चन्दा भी रोता है क्या…?’’
‘‘हाँ…। वह भी तुम्हारी तरह रोता है। सुबह होते ही घास की पत्तियों में, पेड़ों की पत्तियों में जो मोती
जैसी सफेद बूँदें दिखाई देते हैं न, वही तो चन्दा के आँसूं होते हैं। चन्दा भी तुम्हारी तरह बहुत सुन्दर
है…। अरे…! तेरे काफल कहाँ हैं…?’’
‘‘हाय राम…। मेरा झोला तो वहीं रह गया, अब मैं क्या करूँ…?’’
‘‘ये ले, तू मेरा काफलों से भरा झोला ले जा।’’ कहते हुए उसने रुक्मा को अपना झोला पकड़ा दिया।
‘‘और तू क्या ले जाएगा…?’’ रूक्मा ने उसके हाथों से काफलों से भरा झोला लेते हुए कहा।
‘‘मैं अपनी जेबें भर कर ले जाऊँगा…।’’
तभी रूक्मा को अपने गाँव के लड़के व लड़कियाँ वापस आते हुए दिखाई दिए। वे सभी उसी की खोज
में वापस लौट आए थे।
‘‘वे मुझे खोजने आ रहे हैं।’’
उसने जल्दी से अपने झोले में से काफल निकाल कर अपनी जेेबें भरते हुए कहा, ‘‘अब तू कब
मिलेगी…?’’
‘‘परसों…! इसी जंगल में…। हम एक दिन छोड़कर काफल लेने आते हैं।’’
‘‘इतने बड़े जंगल में मुझे कैसे पता चलेगा कि तू कहाँ है…?’’
‘‘आएगा तो तुझे सब पता चल जाएगा।’’ कहते हुए उसने बड़ी तेजी से उसके दाएँ गाल का चुम्बन लिया
जिसके कारण उसके शरीर में सनसनी फैल गई।
‘‘क्यों…लगा न झटका…, अब बता तेरा नाम क्या है…?’’
‘‘म…म…महेश…।’’ उसने अपने दाएँ गाल पर हाथ फेरते हुए अचकचाते हुए कहा।

‘‘तू हकला क्यों रहा है, और अपने गाल क्यों पोंछ रहा है, चख कर देख न…? गुड़ की भेली की तरह
बहुत मीठा है…भुक्की ली है, कोई थप्पड़ नहीं मारा…, साला…लड़का होकर डरता है।’’
कहते हुए वह तेजी से उस दिशा की ओर चल पड़ी। जिधर से उसके साथी उसकी खोज में आ रहे थे।
उसके चले जाने के बाद वह बड़ी देर तक अपने गाल को सहलाता रहा, और फिर वह अपने हाथ की
हथेली को चूमते हुए अपने घर के लिए चल पड़ा।
उस रात न तो उसकी आँखों में नींद थी, और न ही रुक्मा की आखों में। दोनों रात के अंधेरे में अपने-
अपने गाँव में अपने-अपने घरों में जागते हुए एक-दूसरे की याद में खोये हुए तारे गिनने की कोशिश कर
रहे थे। रुक्मा ने तो कई बार तारे गिनने की कोशिश की। एक…दो…तीन…लेकिन तभी उसकी पलकें
झपकती तो फिर उसे ध्यान ही नहीं रहता कि उसने किस तारे से गिनती शुरू की थी।
लेकिन जब तीसरे दिन महेश अपने गाँव के लड़कों व लड़कियांें के साथ काफल तोड़ने के लिए गया
तो उस वक्त वह बहुत खुश था लेकिन लंगोरा जंगल में रुक्मा को न पाकर वह उदास हो गया।
तभी गीत के बोल सुनकर वह चौंक पड़ा।
मेरी नणदा सुशीले नणदा
मिठि बेरी खयोंले य।
गीत के बोल सुनते ही उसका चेहरा प्यूँली के फूल की तरह खिल उठा। अभी कुछ देर पहले जो चेहरा
गमगीन व उदास लग रहा था वह अब तरोताजा व खिला-खिला लगने लगा।
‘‘अरे यार कितनी सुरीली आवाज है?’’ उसके एक साथी ने कहा।
‘‘ऐसा लग रहा है जैसे लतामंगेशकर गा रही हो…।’’ दूसरे साथी ने काफल के पेड़ की टहनी से काफल
तोड़कर अपने थैले में डालते हुए कहा।
‘‘यार…इसे तो मुम्बई फिल्मों में होना चाहिए, क्या गाती है यार…? जब आवाज ही इतनी सुन्दर होगी
तो वह कितनी सुन्दर होगी…?’’ तीसरे लड़के ने काले-काले काफल तोड़कर अपने मुँह में डालते हुए कहा।

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‘‘यार कौन होगी ये…? किस गाँव की होगी…पता करना चाहिए कि यह किस गाँव की है…?’’
‘‘तुझे क्या लेना है कि वह कौन है और किस गाँव की है…? होगी कोई काफल वाली…। मैं जाकर देखता
हूँ…।’’ कहते हुए वह पेड़ से उतर कर आवाज वाली दिशा की ओर जाने लगा तो एक लड़के ने उसे

आवाज देते हुए कहा, ‘‘अबे वो सिन्धु घाटी के ताम्र पत्र, मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खोज, सिर मजबूत है
न तेरा, वो आशिक, सम्भल कर जाना। अगर कहीं रास्ते में भालू या सुंगर मिल जाएगा, तो तेरी आशिकी
भागती हुई नजर आएगी। अबे वो छूछंदर…! पता नहीं यार ये दिल्ली वाले भी न, पता नहीं अपने-आप
को क्या समझने लगते है…? जब ये गाँव में होते हैं तो बड़े शरीफ होते हैं लेकिन दिल्ली जाने के बाद तो
इनकी आवोहवा ही बदल जाती है। गाँव में आकर कोई लड़कियों के चक्कर काटने लगता है, कोई बाजार
में अपनी कमीज के कालर खड़े करके दादागीरी दिखाने लगता है, तो कोई रंग-बिरंगा कुर्ता-पजामा पहने
नेता की तरह भाषण देने लगता है…।’’

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‘‘अरे यार, बात तो तेरी सौ आने सही है, आज तक सड़क छाप मंजनू तो सुना था लेकिन आज जंगल
छाप मंजनू भी देख लिया।’’
वह उनकी बातों की परवाह किए बिना चुपचाप उस पेड़ की ओर चल पड़ा । जिस पेड़ पर चढ़कर
रुक्मा गीत गाते हुए काफल तोड़ रही थी।
उसे देखते ही रुक्मा के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। रुक्मा को अकेले देखकर वह भी पेड़ पर चढ़
गया। काफल तोड़ते हुए वे दोनों बड़ी देर तक बातें करते रहे लेकिन जब उसके गाँव की लड़कियों ने उसे
आवाज दी, तो वह उसके गालों को नोचते हुए उनके पास चली गई।
इस तरह से धीरे-धीरे दोनों का मिलना आपसी प्यार में बदल गया। घने जंगल के बीच पेड़ों की छाँव
तले एक-दूसरे को अपनी बाहों में समेटे उनके शरीर एक हो गए, और यह क्रम तब तक चलता रहा जब
तक जंगल के काफल समाप्त नहीं हो गए।
काफल समाप्त होते ही महेश दिल्ली चला आया, तब से कई साल बीत गए। उसके बाद उसे रुक्मा
फिर कभी नहीं मिली…।
पेड़ के तने से अपनी पीठ सटाए वह बीती यादों में खोया हुआ था। कितना अच्छा गाती है वह
लड़की…। रुक्मा भी तो कभी ऐसा ही गाती थी लेकिन रुक्मा कैसी होगी…? किस हाल में होगी…? उसे
याद करती होगी या नही…कौन बताए…?
तभी पत्तों की चर्रड़…चर्रड़ की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ा। उसने इधर-उधर अपनी नजरें दौड़ाते हुए
देखा। सामने काफलों से भरा थैला लेकर आती एक औरत को देखकर उसकी आँखें फटी-की-फटी ही रह
गई। उसकी शक्ल रुक्मा से मिलती-जुलती लग रही थी लेकिन जैसे ही वह उसके पास आई अचानक ही
उसके मुँह से निकला, रुक्मा…!

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और फिर उसने रुक्मा के चेहरे पर अपनी नजरें गड़ा दी। पहले की अपेक्षा उसके चेहरे पर वह तेज,
वह रौनक, और वह ताजगी नहीं थी जो कभी उस वक्त हुआ करती थी। जब वह अपना मुँह खोले रहता
और रुक्मा निशाना साधकर एक…दो…तीन…गिनती गिनते हुए उसके मुँह में काफल फेंकती रहती। कभी-
कभी तो काफल का कोई दाना महेश के दाँतों से टकराते हुए नीचे गिर जाता और कभी-कभी रुक्मा
जानबूझकर निशाना उसके माथे से साधकर काफल फेंक देती। जैसे ही काफल उसके माथे से टकराता
रुक्मा जोर-जोर से हँसने लगती…।

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महेश उस वक्त उसे अपनी बाहों में लेते हुए उसके चेहरे पर कई चुम्बन जड़ देता। ऐसे में रुक्मा का
चेहरा बुराँस के फूल की तरह खिला-खिला व ओंस की बूँदों की तरह नहाया हुआ लगता। दिन के समय
तेज गरमी में भी उसके चेहरे को देखकर ऐसा लगता जैसे आकाश से ओंस की बूँदें टपकती हुई उसके
चेहरे को भिगो रही हों…।
लेकिन आज उसके चेहरे पर कोई हँसी नहीं थी, उसका चेहरा सूखा-सूखा लग रहा था। ऐसा लग रहा
था जैसे वह असंख्य दुःखों को झेल रही है। फूलों ने जैसे उसे देखकर खिलना ही बंद कर दिया है…।
ओंस की बूँदें जैसे उसके चेहरे से रूठ गई हैं…। जिसके कारण उसके चेहरे पर काली छायाएँ अपना तम्बू
गाड़ चुकी हैं…। आँखें धूप को सहन न करते हुए धीरे-धीरे छाँव की तलाश में अन्दर धँसती जा रही हैं…।
वे दोनों बड़ी देर तक टकटकी लगाए एक-दूसरे के चेहरे को देखते रहे, बातों का सिलसिला शुरु करने
के लिए उसने कहा, ‘‘कैसी हो तुम…?’’
‘‘ठीक हूँ, और तुम…?’’
‘‘तुम्हारी ही तरह तो हूँ…।’’
‘‘कभी मेरी याद नहीं आई…?’’ कहते हुए उसका चेहरा उदास व गमगीन हो चला था।
‘‘तुम मुझे हमेशा याद आती हो।’’
‘‘अगर तम्हें मेरी याद आती तो मेरी खोज करते हुए तुम मुझे कभी-न-कभी जरूर मिलते लेकिन तुमने
मुझे मिलना उचित ही नहीं समझा।’’ एकाएक उसकी आँखों में गीलापन झिलमिलाने लगा।
‘‘नौकरी के दौरान कभी गाँव नहीं आ सका। अगर कभी आया भी तो तुम नहीं मिली। मिल जाती तो
मैं तुझे अपने साथ ले जाकर अपना घर बसा लेता। बहुत कमजोर हो गई हो तुम…?’’

‘‘जिसे लोग हर रोज उसके पति के बारे में पूछेंगे वह कमजोर नहीं तो क्या मोटी होगी…? जब कोई
लड़की आए दिन अपनी माँ से अपने उस पिता के बारे में पूछती है जिसके बारे में उसे कुछ भी पता नहीं
कि वह कहाँ है…? क्या कर रहा है…? जिन्दा है भी या नहीं है, तो उस वक्त उसकी माँ के दिल पर क्या
गुजरती होगी यह तुम क्या जानो…?’’
‘‘बरसों बीत गए, मैंने तुम्हारे हाथों के काफल नहीं खाए हैं। आज मैं तुम्हारें हाथों से काफल खाना
चाहता हूँ…। तुम्हारे हाथों के काफल बहुत ही स्वादिष्ट व मीठे होते हैं, क्या तुम मुझे आज काफल नहीं
खिलाओगी…, पहले की ही तरह…, गिनती गिनते हुए…?’’ कहते हुए उसकी नजरें रुक्मा के हाथों में पकड़े
थैले पर टिक गई।
रुक्मा ने एक बार उसके चेहरे को देखा और फिर अपने थैले में से काफल निकाल कर गिनती गिनतेेे
हुए उसके मुँह में काफल डालने लगी। काफल खाते हुए उसने कहा, ‘‘बहुत दिन हो गए, तुम्हारे मुँह से उस
गीत को सुने हुए। बहुत अच्छा गाती थी तुम…? मैं तुम्हारी खूबसूरत आवाज में उस गीत को एक बार
फिर सुनना चाहता हूँ, पहले की ही तरह…। सुनाओ न, मैं देखना चाहता हूँ कि तुम्हारी आवाज पहले की
ही तरह आज भी सुरीली है या नहीं ?’’
रुक्मा के चेहरे पर उदासी की पर्तें जम गई। बड़ी देर तक खामोश रहने के बाद उसने गाना चाहा
लेकिन वह गा नहीं सकी। उसने गाने की बहुत कोशिश की लेकिन जब गीत के बोल उसके गले से बाहर
ही नहीं निकले तो उसे लगा जैसे कि वह उस गीत को हमेशा-हमेशा के लिए भूल गई है।
तभी दूर से आने वाली एक खूबसूरत आवाज उसके कानों से टकराई। गीत के बोल सुनते ही वह उस
दिशा की ओर देखने लगा। हाथ में पकड़े हुए काफल हाथ में ही रह गए। यह वही गीत था जिसे रुक्मा
बरसों पहले इसी जंगल में उसे अपने पास बुलाने के लिए गाया करती थी।
मेरी नणदा सुशीले नणदा
मिठि बेरी खयोंले य।
वह बड़ी देर तक उस गीत को सुनता रहा, और फिर गीत के बोल समाप्त होते ही उसकी नजरें रुक्मा
के चेहरे पर टिक गई। रुक्मा सामने थी लेकिन गीत के बोल कहीं दूर से आ रहे थे जिन्हें सुनते ही
उसका मन उदास हो गया। चेहरे पर उदासी भरी सलवटें तैरने लगी। हृदय की धड़कनों ने एकाएक दौड़ना
सुरू कर दिया। आँखों में बरसों पहले का वह दृश्य तैरने लगा जब वह रुक्मा की गोद में अपना सिर
टिकाए रखता और रुक्मा गीत गाते हुए उसके मुँह में काफल डालती रहती। एक लम्बा साँस लेते हुए
उसने कहा, ‘‘बहुत अच्छा गाती है वह लड़की, ठीक तुम्हारी तरह…! ऐसा लगता है जैसे वह गीत तुम ही

गा रही हो। पहले तुम भी तो इसी तरह से गाया करती थी। कितनी खूबसूरत आवाज है उसकी, कौन है
वह लड़की…? मैं उससे मिलना चाहता हूँ।’’
‘‘वह नन्हीं लड़की और कोई नहीं तुम्हारी खुद की अपनी ही बेटी है। वह बार-बार तुम्हारे बारे में पूछती
है लेकिन मैं आज तक उसे हकीकत नहीं बता सकी। सोचती रही कि जब तुम आओगे तो उसे सचाई
बताते हुए उससे नजरें मिलाने का साहस कर सकूँगी। वह अपने पिता की गोद में बैठने के लिए बहुत
तरसती है लेकिन अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि आज उसे उसका पिता मिल गया है।’’
रुक्मा के शब्दों को सुनकर वह सिर से लेकर पैरों तक झनझना गया। माथे पर पसीने की बूँदें
चुहचुहा आई। चेहरे का रंग एकाएक सर्द हो गया। उसे खामोश देखकर रुक्मा ने कहा, ‘‘तुम्हारे जाने के
बाद जब मेरी शादी हुई उस समय मैं पेट से थी। शादी के ठीक सातवें महीने में जब मैंने इसे जन्म
दिया तो गाँव वाले मेरे बारे में तरह-तरह की बातें करने लगे। फिर भी गाँव की कुछ एक बूढ़ी औरतों ने
मेरा पक्ष लेते हुए कहा, ‘औरत सतौंसी भी तो होती है’ लेकिन हकीकत क्या थी, यह तो मैं ही जानती थी,
या फिर मेरी माँ…। जिसे मेरे बारे में मेरी शादी से पहले उस वक्त पता चल जब मैं ज्यादा खट्टा खाने
लगी लेकिन सातवें महीने में बेटी को देखकर मेरे पति ने मुझे घर से निकालते हुए मेरे गले का चरेऊ
तोड़ दिया। मुझे तो उसने घर से बाहर निकाल दिया लेकिन वह खुद अपनी बिधवा भाभी के साथ घर
बसाए हुए है।’’
रुक्मा के शब्दों को सुनकर महेश सन्न रह गया। वह जानता था कि इन पहाड़ों में दो तरह की
औरतों का चरेऊ तोड़ा जाता है, एक तो उस औरत का जिसका पति मर गया हो, और दूसरी उस औरत
का जिसे उसका पति हमेशा-हमेशा के लिए घर से निकाल देता है।
‘‘लेकिन तुम्हारे गले में यह चरेऊ ?’’ उसने रुक्मा के गले में पहने काले-काले छोटे दानों वाले मंगलसूत्र
को छूते हुए कहा…।
‘‘यह चरेऊ तुम्हारे लिए है। इसे मेरे गले में देखकर कई बार लोग पूछते हैं कि कौन है वह…? जिसके
नाम के दिन ब्यतीत कर रही है तू…,कभी देखा नहीं उसे…, कभी आएगा भी या नही…ं? लखमा कई बार
मुझे इस मंगलसूत्र के बारे में पूछती है लेकिन मैं उसे कोई जवाब नहीं दे पाती। लखमा जब मुझसे अपने
पिता के बारे में पूछती है कि उसका पिता कौन है…? वह कहाँ रहता है…? क्या करता है…? वह उससे से
मिलना चाहती है, तो उसके शब्दों को सुनकर मैं टूट जाती हूँ…क्या कहूँ उसे…? कैसे समझाऊँ उसे…?
जितनी बार वह पूछती है न, उतनी ही बार मैं मरती हूँ, और फिर लखमा को सहारा देने के लिए एक नया
जन्म लेती हूँ लेकिन चाहकर भी मैं लखमा को हकीकत नहीं बता पाती। बताऊँगी तो उसकी नजरों में
हमेशा-हमेशा के लिए गिर जाऊँगी…’’

‘‘लखमा कौन…?’’
‘‘लखमा, तुम्हारी बेटी…! जो गीत गा रही है…। जिसे लोग ‘काफल वाली’ की लड़की कहकर बुलाते हैं।’’
‘‘काफल वाली…! मैं समझा नहीं…?’’
‘‘अपना गुजारा करने के लिए मैं मई-जून के महीने में लंगोरा के इस जंगल से काफल लेकर बाजार में
बेचने जाती हूँ लोग मुझे ‘काफल वाली…वो काफल वाली’ और लखमा को ‘ये काफल वाली की लड़की’
कहकर बुलाते हैं। इन दो महीनों में घर का खर्चा तो ठीक चल जाता है लेकिन उसके बाद घर का खर्चा
चलाना बहुत मुश्किल हो जाता है। लोगों के साथ काम करते हुए जो मिल जाता है, उसी में सन्तोष
करना पड़ता है। मैं लखमा के लिए स्कूल की ड्रेस नहीं ले पाती…। गाँव की स्कूल जाने वाली लड़कियाँ
जब अपने लिए नई ड्रेस सिलवाती हैं तो उनकी पुरानी ड्रेस लखमा के काम आ जाती है लेकिन अब तुम
आ गए हो तो मुझे लखमा के लिए किसी लड़की की पुरानी ड्रेस नहीं लेनी पड़ेगी। कितनी खुश होगी
हमारी बेटी, जब उसे पता चलेगा कि अपने जिस पिता को देखने के लिए वह रात-दिन तरस रही है वह
तो, उसके सामने ही हैं…।’’
वह खामोश रहकर किसी अपराधी की तरह सिर झुकाए रुक्मा की बातों को सुनता रहा। उसमें इतनी
हिम्मत नहीं रही कि वह उस रुक्मा को कुछ कह सके। जिसकी तलाश में वह हर साल मई-जून के
महीने में दिल्ली से आकर इस घने जंगल में काफल तोड़ने आता है।
आज वही रुक्मा उसके सामने बैठी अपनी जिन्दगी की एक-एक सच्चाई उसे बता रही थी लेकिन
उसकी बातों को सुनकर वह पत्थर के बुत की तरह जड़वत हो गया।
धीरे-धीरे नजदीक आते हुए पहाड़ी गीत के बोल उसके कानों से टकराते हुए तेज होने लगे। वही
सुरीली आवाज, वही सुन्दर गीत।
मेरी नणदा सुशीले नणदा
मिठि बेरी खयोंले य।
(मेरी ननद सुशीला ननद, चल मीठी बेरियाँ खाने चलते हैं)
‘‘लखमा आ रही है। तुम्हारे बारे में पूछेगी तो सब सच-सच बता दूँगी।’’
अब तक लखमा गीत गाते हुए उनके पास आ चुकी थी। अनायास ही अपनी माँ के सामने एक
अजनवी को देखकर उसके कदम जहाँ थे, वहीं रुक गए। वह कुछ पल तक महेश को देखती रही और फिर

उसने रुक्मा से कहा, ‘‘चल माँ घर चल, बहुत देर हो गई है। अभी काफल बेचने भी जाना है, पिता होते तो
हमें इतनी मेहनत करने की जरूरत नहीं होती।… पता नहीं पिता कब आएँगे, चल माँ चल…।’’

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रुक्मा ने एक बार महेश की ओर देखा। उसकी आँखों में अब भी कई असंख्य प्रश्न तैर रहे थे। जिन्हें
वह महेश से पूछना चाहती थी लेकिन लखमा के आने से वह कुछ भी नहीं पूछ सकी। लखमा थोड़ी देर
बाद आती तो वह महेश से अपने सवालों के जवाब पूछ लेती। पूछती कि वह इतना निर्दयी कैसे हो गया
है… ? फिर मिलेगा तो पूछेगी…।
लखमा के साथ आगे बढ़ते हुए वह बार-बार पीछे मुड़कर महेश को देखते हुए जा रही थी। अचानक
ही महेश के मन में खयाल आया कि बेचारी कब घर पहुँचेगी… ? कब खाना बनाएगी…और कब काफल
बेचने जाएगी…. ? क्यों न वह उसके सारे काफल यहीं ले ले। उसने रुक्मा को जोर से आवाज लगाई,
‘काफल वाली…वो काफल वाली…!’
एकाएक महेश के मुँह से अपने लिए ‘काफल वाली’ सुनकर उसके पैरों के तले की जमीन खिसक गई।
उसका सारा शरीर झनझना गया। काफलों से भरा थैला अचानक ही उसके हाथों से छूटकर नीचे पहाड़ी
की ओर लुढ़कते हुए उसकी आँखों से ओझल हो गया।
उसे इतना दुःख बीते सालों में कभी नहीं हुआ जितना दुःख उसे महेश के शब्दों को सुनकर आज हो
रहा था। अपने लिए, ‘काफल’ वाली’ सुनकर उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े। अपने माथे पर आए पसीने
को अपनी धोती से पोंछते हुए वह बड़बड़ाई, ‘तेरे मुँह से रुक्मा शब्द सुनने के लिए बरसों से तरस गई हूँ
मैं, और आज जब तू मिला तो तूने भी वही कहा जो सभी लोग मुझे कहते हैं, ‘काफल वाली…वो काफल
वाली…!’ एक बार पहले की ही तरह अगर आज तू अपनी बच्ची के सामने मुझे रुक्मा कहकर बुला लेता
तो शायद मैं तुम्हारी बेटी के सामने सिर उठाकर जीने का साहस कर लेती।’
बड़बड़ाते हुए वह वहीं पर पसर गई। आँसुवों की बहती धारा ने हिचकियों का रूप ले लिया। मन में
समाई हुई पीड़ा को वह आज पूरी तरह से आँखों के रास्ते बहा देना चाहती थी। शायद वे इसी दिन के
लिए उसकी आँखों में रुके पड़े थे।
(काफल एक पहाड़ी फल, यह पहाड़ी घने जंगलों में गर्मियों में मिलता है। यह बहुत ठंडा होता है।)

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रणीराम गढ़वाली