अपरिमेय ताकत और कुश्ती किवदन्ती बन चुके गामा पहलवान की आज 144 वीं जयंती है।
उनकी विश्वव्यापी ख्याति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज गूगल ने उनका डूडल बनाकर अपने बैनर में स्मरण किया है।
1910 के दौर में लोग उन्हें दुनिया के सबसे ताकतवर शख़्स रूप में परिभाषित करते थे। आइए उनके बारे में उन अनछुए और अनजाने पहलुओं की चर्चा करें जिन्हें जानना जरूरी है।
पिछले कुछ दिनों से विश्वविजयी गामा पहलवान के बारे में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। उन पर केन्द्रित फिल्में और बेवसीरीज पर काम चल रहा है।
वेबसाइट्स खोलिए तो गामा से जुड़े किस्से अटे पड़े हैं।
पर इतिहास के तथ्यों को ऐसा तरोड़ा मरोड़ा गया कि रीवा और दतिया से गामा की पहचान वैसे ही लुप्त हो गई जैसे कि इतिहासकारों ने तानसेन के साथ स्थाई तौरपर ग्वालियर चस्पा कर दिया (ग्वालियर में प्रतिवर्ष सरकारी स्तर पर तानसेन समारोह होता है)।
जबकि जगत जानता है कि अकबर के दरबार में हाजिर होने के पहले वर्षों-बरस तक तानसेन बांधवगद्दी के महाराजा रामचन्द्र के दरबारी गायक थे। और उसी तरह गामा पहलवान रीवा के महाराज व्येंकटरमण सिंह के अखाड़ची।
1985-86 में देशबंधु अखबार में काम करते हुए मैंने गामा की पहलवानी पर श्रृंखलाबद्ध स्टोरी छापी थी।
जिसमें अमहिया (रीवा शहर का एक मोहल्ला) सरदार अखाड़ा में उनके मन भर बजनी जोड़-मुगदर, भारी भरकम फावड़े की तस्वीरें भी थी। (संभव है सरदार सिंह अखाड़े में यह आज भी कहीं धरा हो)।
किसी प्रतियोगिता में गामा को पुरस्कार स्वरूप प्राप्त चाँदी का मुगदर प्रतापगढ़ हाउस (कांग्रेस नेता अजय सिंह राहुल के ननिहाल) में बतौर धरोहर सुरक्षित रखा है।
एक ओर कई लेखक अपनी अधकचरी जानकारी के आधार पर गामा को कश्मीर या पटियाला का बता रहे हैं वहीं दूसरी ओर देश के प्रसिद्ध पत्रकार पटनावासी सुरेन्द्र किशोर ने गामा पहलवान की दिलचस्प कहानी सुप्रसिद्ध साहित्यकार राय कृष्ण दास के हवाले से लिखी है।
सुरेंद्र किशोर लिखते हैं कि- ‘गामा पहलवान को कौन नहीं जानता? पर वह कैसे रुस्तम-ए-हिंद और रुस्तम-ए-बर्तानिया बने थे, यह आज भी कम ही लोगों को मालूम होगा। कला मर्मज्ञ राय कृष्ण दास ने इसका विवरण विस्तार से लिखा है।
पहले रुस्तम-ए-हिंद की उपाधि के बारे में। प्रयाग में 1911 में प्रदर्शनी हुई।
वहीं राय कृष्ण दास को गामा की कुश्ती देखने का मौका मिला। अमृतसर में 1880 में जन्मे गामा का 22 मई 1963 को लाहौर में निधन हो गया।
प्रयाग के दंगल के समय गामा रीवा के महाराज वेंकट रमण सिंह के संरक्षण में थे। महाराज भी उस दंगल में आये थे। उस समय गामा पूरे ओज पर थे। दंगल में कई अन्य नरेश भी आये थे, जिनके अपने-अपने मंच बने थे।
रीवा नरेश की कुर्सी के नीचे की दरी पर गामा बैठे थे। सिर पर मुड़ासा, तन पर पंजाबी कुर्ता और लुंगी। पांच फिट सात इंच के गामा ऐसे बैठे थे कि शरीर संपत्ति का कोई अनुमान ही नहीं होता था।
ऐसा जान पड़ता था कि मानो कोई ऐसा व्यक्ति बैठा है जिसका बदन बना ही नहीं। मुकाबला करीम पहलवान से होना था।
कलियुगी भीम प्रो. राममूर्ति उसके पृष्ठपोषक थे। वे उसे लिये हुए ठाट-बाट से रंगभूमि में प्रविष्ट हुए।
करीम ने पहले से ही जांघिया चढ़ा रखा था। सारी देह पर सिंदूर पुता था। कदम-कदम पर अकड़-अकड़ कर, छाता एक बार दायीं ओर, फिर बायीं ओर तानता, या अली, या अली गर्जन करता अखाड़े तक पहुंचा। दर्शकों को यह दंभ खल उठा।
गामा ने महाराज व्येंकटरमण के पाँव छुए। मुड़ासा, कुर्ता और लुंगी उतार कर रख दी। थोड़ा सा दूध, जो पहले से तैयार था, पीकर दो चार बैठकें लगाकर एक बार जो देह को फुलाया, तो देखते-देखते मृग शावक, मृगराज में परिणत हो गया।
हजारों अपलक आंखें एक संग उस शरीर सौष्ठव का निहारने करने लगीं। विनीत भाव से वे अखाड़े में उतरे और पलक मारते ताल ठोंक कर दोनों मल्ल गुंथ गये। दावं-पेच के करिश्मे होने लगे, जिनमें गामा प्रबल पड़ते जा रहे थे।
किंतु तभी करीम ने एकाएक अपने शरीर को अखाड़े पर डाल दिया और विकल ध्वनि में हाय मार डाला, हाय मार डाला की धुन लगा दी।
उस क्लाइमेक्स की यह परिणति देख सभी को आनंदमिश्रित कौतूहल हुआ। रेफरी के पूछने पर करीम ने कराहते हुए बताया कि गामा ने मेरी पसली तोड़ डाली है।
डॉक्टर मौजूद थे। उन्होंने भली-भांति जांच कर कहा कि पसली टूटने का नामोनिशान तक नहीं है। यह बहाना मात्र है।
किंतु लाख कहने पर भी करीम लड़ने को तैयार नहीं हुआ। तब गामा विजयी घोषित किये गये। उन्हें रुस्तम-ए-हिंद की गदा भेंट की गयी।
गदा को उसी विनीत भाव से रीवा के महाराज के चरणों में रखकर गामा पुन: अपने स्थान पर उसी भांति बैठ गये। गामा का नाम 1910 में पूरी दुनिया में फैल चुका था। तब इंग्लैंड में उनकी भिड़ंत जिबस्को नामक पहलवान से हुई थी।
जिबस्को ने गामा से लड़ते समय पेट के बल जमीन थाम ली थी।
गामा रद्दे पर रद्दे लगाते रहे, उसे चित करने की कोशिश करते रहे, पर वह टस से मस नहीं हुआ। उसका शरीर इतना वजनी था कि गामा उसे उठा नहीं सके। कुश्ती अनिर्णित रही।
कुश्ती के लिए दूसरा दिन तय किया गया। पर जिबस्को नहीं आया। आयोजक उसके यहां दौड़ते-दौड़ते हार गये। वह मुंह छिपाता रहा। इस पर गामा विजयी माने गये। गामा को रुस्तम-ए-बर्तानिया की उपाधि दी गयी।
गामा की वजन उठाने की क्षमता पर राय कृष्ण दास ने लिखा है, यह तब की बात है जब गामा दतिया नरेश की छत्रछाया में थे। 1901-02 में भयंकर प्लेग की बीमारी आयी, तब मैथिलीशरण गुप्त का परिवार चिरगांव से भाग कर दतिया चला गया था।
उनके संग लोहे की एक भारी तिजोरी थी, जिनमें उनका सारा माल था।
मैथिलीशरण जी की पहली ससुराल दतिया में थी। गामा का मैथिलीशरण जी की ससुराल वाले परिवार में आना-जाना था।
जिस तिजोरी को दसियों लोगों ने मिलकर किसी तरह बैलगाड़ी पर चिरगांव में चढ़ाया था, उसे गामा और उनके भाई ने इस तरह खिलवाड़ में बैलगाड़ी से उतार कर ठिकाने रख दिया, मानो वह तिजोरी नहीं, दफ्ती की बनी पोली पेटी हो। इससे पता चलता है कि जिबस्को कितना वजनी पहलवान था।
प्रयाग में मूक चलचित्र प्रदर्शनी हुई। उसमें गामा-जिबस्को कुश्ती का समूचा दृश्य था। गामा साधारण पहनावे में थे। ऊनी ड्रेसिंग गाउन पहने उन्होंने रंगभूमि में प्रवेश किया था।
उन्होंने जिबस्को से हाथ मिलाया। तब से लेकर तब तक के दृश्य दिखाये गये, जब अचल-कूर्म बने जिबस्को को टस से मस करने के भीष्म प्रयत्न में गामा विफल रहे।
गामा और गुलाम मोहम्मद दो अलग-अलग पहलवान थे।
कुछ लेखक दोनों के बीच घालमेल कर देते हैं। गुलाम का देहांत 20 वीं सदी के प्रारंभ में ही हो गया था, जब गामा पट्ठे ही थे। पंडित मोतीलाल जी 1899 में पेरिस प्रदर्शनी में गुलाम पहलवान को साथ ले गये थे।
गामा की पहलवानी का निखार रीवा राजदरबार के पनाह में ही मिला। यहीं रहते हुए वे रुस्तम-ए-हिन्द हुए और रुस्तम-ए-जहाँ भी।