Summer Vacations: वो भी क्या दिन थे,ऐसे बीतती थीं गर्मी की छुट्टियाँ

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Summer Vacations

यादें

summer vacations: वो भी क्या दिन थे, ऐसे बीतती थीं गर्मी की छुट्टियाँ

• डॉ. सुमन चौरे
आसमान से लाली छिटकने लगी। सूरज किरणों की किनार बाँधने लगा। हवा हलकी होकर ऊपर उठने लगी, लग रहा है गर्म दिनों ने अपनी आमद दर्ज़ कर दी है। कहीं दूर से कोयल की मधुर कूक सुनाई दी। पास के बस स्टॉप पर धीरे-धीरे भीड़ जमने लगी। हाथों में कॉपी-किताब लिए परीक्षा की तैयारी करते, कभी कॉपी खोलकर उसमें प्रश्नों उत्तर खोजने लगते बच्चे। मुझे लग रहा है, कहीं इन कॉपी किताबों में मेरा बचपन भी मिल जाय। वही बचपन जो गर्मी की हवा जैसा मतवाला, गर्म लू के डर से अमराई में दुबका, तो कभी कभी तपन से झुलसा, नदी में डुबकियाँ लेता। वही बचपन जिसको न कभी पढ़ाई की चिन्ता रही, न परीक्षा का डर, न बस्ते का बोझ, न परीक्षा परिणाम का संताप। गर्मी के दिन बड़े सुखद सलोने होते। मालूम नहीं कब, एक हाल, दो गलियारों के कच्चे स्कूल से पास होकर आगे बढ़ जाने वाला बचपन। गाँव को छोड़कर, बाग-बगीचों को छोड़कर, शहर के पक्के बने, कुर्सी टेबल के स्कूल में, कहाँ खो गया बचपन। वह गाँव का स्कूल, जहाँ प्यास लगने पर कुएँ से पानी खींचकर पीता बचपन, तो कभी भूख लगने से गुरुजी से छुट्टी माँग कर घर आकर भोजन कर पुनः भागकर स्कूल आता बचपन।

दोपहर को भोजन दस ग्यारह बजे तक निबट जाता था। माँ, आजी, काकी, भाभी आदि सभी लोग मिट्टी के घरमा (बड़ा कमरा) में थोड़ी देर विश्राम करने के बाद कभी पापड़-पापड़ी और कभी आटे की सेव बनातीं, तो कभी बरसात की तैयारी करते मिरची मसाले बनाती थीं। हम बहनों का काम था चूल्हा और चौका लीपना। गोबर माटी लेने गोठान में जाते, तो वहाँ भाई बहनों की एक गुपचुप सभा और मंत्रणा होती थी। पूरे दिन का कार्यक्रम निर्धारित होता – उस दिन क्या-क्या करना है। हमारे लिए भाई लोगों की शर्त होती थी कि उनके लिए भभँूदर में प्याज भूँजकर ले जायँगी तो वे हमें खेल में शामिल करेंगे वर्ना बाहर बैठकर देखना होगा। दरअसल, सिके प्याज का स्वाद जो जानता है, वही समझ सकता है कि क्या आनन्द होता है उसमें। भाइयों के प्याज के साथ हम भी अपना प्याज भूँज लेते थे। प्याज भुँजती, उतनी देर में चूल्हा चौका लीप देते थे। किन्तु कभी-कभी चूल्हे में बड़े अंगार रह जाते थे, तब क्या, प्याज जला और घर में महक पहुँची। आजी माँ तुरंत आकर पूछतीं, ‘‘किसने काँदे सेके?’’ अब बड़ी दयनीय और धर्मसंकट की स्थिति खड़ी होती, भाइयों का नाम लें तो उधर बुराई और घर के नियम का उल्लंघन किया तो उसका पाप।

“Ghee”: चंदा मामा, तू चांदनी दे। और घी में रोटी डूबोकर दे,”घी” से डर कैसा?

हमारे यहाँ मुख्य रसोई में भगवान् का भोग नियमित बनता था, इसलिए वहाँ प्याज ले जाना निषेध था। पर जीभ और भाई दोनों पर बस नहीं, भगवान् से माफ़ी माँगकर ही प्याज सेकते थे।
गर्मी की दोपहरी बचपन की तिलस्मी यादें बनकर गुदगुदाती रहती हैं। दोपहर को घर में जब सब सो रहे होते, तब हम बच्चे दोपहर का भी आनन्द लिया करते थे। अपने कच्चे फर्ष वाले कमरे में ठंडी जगह पर लेटकर खिड़की की संधियों से आतीं सूर्य किरणों के धारीदार प्रकाश से बनते हुए परछाइयों वाले खेल देखा करते थे। गली से कोई भी गुजरता था, तो खिड़की से उसकी परछाई चलती दिखाई देती थी। जब देखते थे कि अब तो गली सुनसान है, तब हम पारी-पारी से हर एक भाई-बहन जाकर खिड़की के सामने विभिन्न मुद्राएँ बनाकर कूदते थे और अन्दर कमरे में उसकी बड़ी ही रोमांचक परछाइयाँ बन जाती थीं। फिर हम हँस-हँस कर लोट-पोट हो जाते थे।

इसी बीच, कभी किसी की आहट होती और कोई कहता, ‘‘क्यों मस्ती कर रहे हो, सो जाओ।’’ तो फिर सब चुप्प। बीच में कोई कहता, ‘‘देखो ‘एक दो तीन चार, जो बोले वो गाँव का पहरेदार’।’’ इस कहनी पर चुप्प होने की अपेक्षा सब एक दूसरे को बुलवाने के लिए एक दूसरे को गुदगुदी करते या चिमटी भर देते थे। स्वर और तेज हो जाता। वैसे, गर्मी की दोपहर बड़ी लम्बी हुआ करती थी। कहनी का उल्लंघन कर जो बोल देता था, उसको सब जाने क्या-क्या कहकर बहुत चिढ़ाते थे।
कभी-कभी हमारी शरारतें हद पार कर देती थीं। सभी भाई-बहन आगे से दरवाजे की कुंडी लगा, पीछे के दरवाजे़ से जगन भाई के खलिहान की इमली झोड़ लाते थे। इमली खाते और बीज जेब में भरकर ले आते थे, इनसे सार-पाँचा, चौपड़ आदि के खेल खेलते थे। अगर इस बीच हमको कोयल की कूक सुनाई देती तो हम अमराई में जाने से कैसे रुक सकते थे, दौड़ पड़ते थे सभी। गाँव के छोर पर ही हमारी तीन-चार सौ आम के पेड़ों की बड़ी अमराई थी। ज़रूरी नहीं कि उसका रखवाला रखवाली कर ही रहा हो। वह क्यों कर दोपहर में लू-लपट में बैठेगा। बस, हम तो कोयल की कूक पर ऊपर देखते हुए अमराई में दौड़ लगा देते थे। किस वृक्ष पर कोयल बैठी है़?

नीचे कौन देखता है, ऊपर ही ऊपर देखकर अमराई में पड़े पत्तों में दौड़ लगाते थे। निष्चित था, कोयल एक न एक कैरी ज़रूर गिरायेगी ही और कैरी गिरते ही हम सब भाई बहन झपट पड़ते उस एक कैरी पर, फिर पत्थर से फोड़कर मिल बाँटकर खाते थे। सबको मालूम था कि शाम को रखवाला रोज़ ही टोकनी भर कैरी घर देता था; किन्तु टोकनी की उस कैरी का स्वाद उतना असली कहाँ जितना ‘कोयल पाद’ कैरी का, जिसको छीना झपटी में पाया।
कुछ दिनों बाद जब कैरी पकने लगती थी, तो साग (पकी कैरी) पेड़ से टपकती थी, तब उस कैरी को, नीचे सूखे पत्तों में से ढूँढ़ लाना, उसका चीक निकालकर, हर एक भाई बहन का बारी-बारी से उसे मुँह से चूसकर खाना ऐसे लगता, जैसे आनन्द रस पा लिया हो। न किसी के झूठे से परहेज़, न कोई भेदभाव, सच में कितना निरापद बचपन! निश्छल भाव!!!

Pooja on X: "#याद_है_ना वो दिन😊 छुट्टी में दिनभर बाग में खेलना, पेड़ों की डाली पकड़ झूलना, वो पत्थर मार कर आम तोड़ना, वो माली काका का हमारे पीछे ...

 

हम सब भाई-बहन यह जानते थे कि इतनी तेज धूप में हम लू के शिकार  हो सकते थे, पर कहाँ भय था लू का। कभी कभार हमारे जेब में चीयें (इमली के बीज) छूट जाते थे। कपड़े धोने में, चोरी पकड़ाई जाती थी, तब कभी आजी माँय प्रेम से, तो कभी तीखे स्वर से कह देती थीं, ‘‘देखो! जगन के खले में भर दोपहर में मत जाना, इमली में चुड़ैल रहती है।’’ और ऐसा नहीं कि हम नहीं जानते थे, कि आजी माँय चुड़ैल का डर इसलिए बताती थीं कि कहीं हमें लू-गर्मी न लग जाय। इसके बावज़ू़द हम कभी इमली, तो कभी उस चुड़ैल को देखने की लालच में जगन के खले की इमली खाने ज़रूर जाते ही थे।

My Favourite Childhood Toy — HiveTamarind Seed - Imli Beej at Rs 15/kilogram | Tamarind Seeds in Mumbai | ID: 19501049848गर्मी के हर दिन की एक नई हरक़त, आज इस बात के लिए चेतावनी, तो कल उस बात के लिए। फिर भी मन कहाँ मानता था, नए-नए ठिकाने होते थे दोपहर बिताने के। कभी-कभी नदी की रेत में खरबूज-तरबूज की बाड़ी पर आमंत्रित होते थे हम। हमारा एक दोस्त था, जो काकड़ी-डाँगरा (ककड़ी-खरबूज) बोता था। जब कभी उसके पिताजी कहीं परगाँव गए होते थे और वह रखवाली पर रहता था, तब मित्रता का वास्ता देकर हमें दोपहर में बुलाता था। और हम पाँच छह भाई बहन उसकी बाड़ी में खरबूज-तरबूज खाकर आते थे। इस बात की खबर तो तभी उजागर होती थी, जब किसी की तबियत खराब हो जाती थी, क्योंकि गरम रेत के गरम तरबूज-खरबूज पेट में खलबली मचा देते थे। बस ऐसे अवसरों पर एक-दो दिन तो हम पर सख़्त पहरा रहता था कि दोपहर में हम में से कोई बाहर नहीं भाग पाय, पर फिर धीरे-धीरे पहरा भी ढीला पड़ जाता था।

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लू लगना भी तो कोई घाटे का सौदा नहीं होता था, कैरी का शर्बत पीयो और हाथ पैर पर प्याज का रस मलवाओ, और तबियत ठीक करवाओ। यदि तेज लू लगती, तो चने की भाजी, नीम और बेर, इमली और पने से लू झड़वा लेते। कुएँ पर ठंडे पानी से नहा लो, लू छू मन्तर। पर पटेल दाजी की बाड़ी की वैषाखी जामुन और करौंदे का स्वाद नहीं चखा तो क्या गर्मी और क्या घाम? हमारा घर में रहना भी खतरे से खाली नहीं रहता था। घर में कभी हम बैलों की घुँघरमाल पहनकर कूदते, तो कभी भर घाम में टीन की छत पर चलकर लक्ष्मी मावसी के आम की कैरी तोड़ने जाते थे। पाँव टीन पर जलते थे, तो तेज भागते थे। भागने की आवाज़ से नीचे के लोग, जो दोपहर में विश्राम कर रहे होते, उनकी नींद में खलल होता था और फिर एक डाँट, एक चेतावनी।
हम सब भाई-बहन मिल बैठकर सोचते कि अब कोई अच्छा काम करेंगे। जैसे हम सब बहनें सुबह से ही आजी माँय से कहतीं, ‘‘अब हम आपके साथ पापड़ी-पापड़ बेलेंगे और सच में दोपहर को हम भी छोटे चकले बेलन से पापड़ी बेलते थे। एक बराबर दो, तीन बेला, फिर चौथी तक चित्त कहाँ स्थिर रह पाता, आड़ी तिरछी बेलते। इसे देखकर स्वयं आजी माँय ही कहतीं, ‘‘जाओ खेलो, तुम्हारा काम नहीं है पापड़-पापड़ी बेलना।’’ हम तो उसी का रास्ता देखते थे, उनका वाक्य पूरा होता, न होता, तब तक तो हम भाग लिए होते थे; पर दोनों हाथों में पापड़ी की लोई छिपाकर ले जाते थे। सब भाई बहन मिल-बाँटकर खाते थे। वहीं, भाई लोग गुलाब सिंग के साथ सन रस्सी कातने का काम करने लगते। बस, एक दो बल रैट्या फेरा और वे भी भाग लेते। नौकर स्वयं कहता, ‘‘जाओ हाथ में रेषे हो जायँगे, ये तुम्हारे काम नहीं।’’ और भाई पिछवाड़े के घर से सत्तू के दाने पट्टे के पैजामे की जेब में भर कर लाते। हम सब मिलकर चबाते-चबाते बगीचे में दौड़ लगा देते थे। पहले ही कार्यक्रम तय रहता था कि कहाँ मिलना है। दपड़ा-दपड़ी, छुपा-छिपी का खेल बाड़ियों में जाकर खेलते थे। शाम घर आकर ऐसे बैठ जाते थे मानों कहीं गए ही नहीं हों। मन में विचारों के बवंडर उठा करते थे, सुबह नदी पर जाना है, आजी को कैसे मनाया जाय, क्या अच्छा काम कर दें कि वे खुष होकर नहाने जाने की अनुमति दे दें।
सूरज थोड़ा ऊपर आया। नार जंगल गई कि सभी भाई-बहनों की साँठ-गाँठ हो जाती थी। कब निकलना है, किस घाट पर जाना है, साथ में क्या-क्या ले चलना है। भाई लोग तो मात्र कंधे पर पंचा डाला और चल दिए; किन्तु हम बहनों को कुछ काम, कुछ शिक्षा, कुछ नसीहत मिला करती थी: ‘खाली नहाने नहीं जाना, कपड़े लेकर जाओ, धोकर लाना।’ वैसे हम परिवार के दस-पंद्रह भाई-बहन एक साथ जाते थे, फिर भी भाइयों को भी चेतावनी दी जाती थी, कि बहनों का ध्यान रखना, गाँव के दोस्तों को उस घाट पर मत बुलाना, जहाँ बहनें होती थीं; गहरे पानी में मत जाना; सिंध (खजूर) के जंगल में मत जाना आदि-आदि। पर ये तो सब घर की दहलीज तक ही सुनने की बातें थीं।

खजूर - विकिपीडिया

भाई लोग भी ‘हाँ’-‘हाँ’ कहते जाते थे; किन्तु नदी पर जाते ही सब हिदायतें और चेतावनियाँ घाट पर कपड़ों के साथ रखकर, हम लोग खूब गहरे पानी में कूद पड़ते थे और भाइयों के दोस्त-मित्र भी आते थे। नदी के उस पार सिंध के वृक्ष थे, वहाँ भी जाते थे। भाइयों के मित्र और भाई लोग बढ़िया पके सिंधोले (खजूर) तोड़कर लाते थे। उन फलों को जितना बनता उतना खाते थे, बाकी कपड़ों के नीचे छिपाकर घर ले आते थे, और डर के कारण गोठान की घास में छिपा देते थे।

कभी नौकर देखता तो वह हमारी तुरंत षिकायत करता था कि ‘बा ये तुम्हारे बच्चे नदी पर से सिंधोले लाये’। अब स्थिति यह कि हम लायँ, तो भी गलती, क्योंकि उन सिंध के जंगल में बड़े-बड़े विषधर रहते थे, और भाई लोगों के दोस्त लायँ तो भी गलती। फिर सबकी हाजरी होती थी, ‘‘ये सिंधोले कौन तोड़कर लाया?’’ सब की सिट्टी-पिट्टी गुम। कोई साहस करके कहता भी कि ‘हम लाए’, तो बड़े बाबूजी कहते, ‘‘बेटा हमने ही दूध पिलाया है। हमको मालूम है तुम सिंध पर चढ़ नहीं सकते।’’ फिर कोई भाई गलती स्वीकार कर कहता, ‘‘ओ तो नद्दी है, कोई भी आ-जा सकता है, हमारा दोस्त जानन-किसन थे ना, उन्होंने ही तोड़ दिए।’’ अंत में भाई लोग कान पकड़कर माफ़ी माँग लेते थे। फिर चेतावनी: ‘अब ऐसी हरक़त नहीं करोगे, वर्ना नदी पर जाना बन्द।’ बाद में इस डाँट का आधे से अधिक हिस्सा भाई लोग हम पर उतारते थे: ‘क्यों रे! क्यों लाईं सिंधोला घर। वहीं फेंक आतीं। भर गया पेट…।’ और अन्त में भाई लोग फैसला कर लेते थे कि इन बहनों के साथ नहीं जायँगे नदी पर; किन्तु वे अपने फैसले पर ज्यादा दिन टिके नहीं रह पाते। फिर कुछ समझौता कर हम भाई-बहन फिर नदी पर एक साथ जाते थे और जितने खेल धरती पर होते, उतने ही नदी पर पानी के अन्दर भी खेलते थे।
वैषाख जैसे-जैसे उतरता, गर्मी अपना उबाल दिखाती थी। उधर आम का बगीचा गदराने लगता था।

रखवाला जैसे ही हमारे घर आता, हम समझ जाते थे कि एक दो दिन में आम बिड़ने वाले है। कैरी आम से उतारी कि गाड़ी में गौणा (जूट का बड़ा बोरा) बिछाकर उसमें कैरी रख हमारे आँगन में उतरती थीं। सब समझते थे कि फूटी कैरी के आम नहीं बनते, अतः फूटी कैरी को निकाल देते थे। कैरी के ढेर के पास कोई बड़ा व्यक्ति बैठता था, फिर हिस्से बाँटे होते थे। दस-दस कैरी की गिनती होती थी। चार ढेर बनाते थे। चार परिवारों के चार और एक रखवाले का, ऐसे पाँच ढेर। एक आम का नाम लखौळ्या था, जिसमें लाखों कैरी लगती थीं, और एक आम बड़ा होता था, जिसका नाम हजार्या था। ऐसे बहुत से नाम थे – सिंधूर्वा, भोमड़्या, अमेणऽ, गोट्या आदि आदि।

आम के रंग, स्वाद और आकार से उनके नाम थे। और किस आम में कितने हिस्से होंगे, उस आधार पर हिस्सेदार इकट्ठे होते थे। हमारे यहाँ ज्यादा मात्रा में आम आते थे, क्योंकि हमारे घर तीन हिस्से आते थे। जैसे ही घर में आम की आड़ी (पाल) डली, मन उन्हीें में लगा रहता था – ‘कब पकेंगे’।
सात दिन तो आड़ी में लगते ही थे। अगर बीच में आड़ी में कोई हाथ डाल देगा, तो आड़ी खचरा (खराब) हो जायगी, इसलिए आम की आड़ी वाले घर में ऊपर साकलकुंदा डाला जाता था। फिर भी हमारा मन डगडग होता रहता था। कभी कभी हम कोने की कैरी को दबाकर देख ही लेते थे कि पकी कि नहीं। कैरी पके, आम बनें, इसके पहले रिष्तेदारों के घर निमंत्रण भेज दिया जाता था कि ‘‘बाल बच्चों को भेज देना, आड़ी डल गई है।’’ तीन सौ आम के पेडों की हमारी अमराई को ऐसे क्रम में बेड़ा जाता था कि एक आड़ी खतम हुई कि तब तक दूसरी पक कर तैयार हो जाती थी। आड़ी खुलते ही सबसे पहले टोकनी भर आम मंदिर में और गरीब ब्राह्मणों के घर दिए जाते थे।

आम खरीदते समय इन बातों का रखें खास ध्यान, निकलेगा मीठा
आजी माँ और पिताजी बड़े से पीतल के बगोने में आम भिगोते थे, उन्हें ठंडे होने के लिए रखा जाता था। इस बीच सब के यहाँ बुलावा देकर आते थे: ‘पटेल दाजी, सेठ दाजी, डॉक्टर साहेब, बड़े गुरुजी, मंदिर के महन्तजी आदि-आदि’। आम ठंडे होते ही बगोना सबके बीच में रखा जाता था, सब अपने अपने हाथ से पानी में से आम निकालते और अँगूठे और उँगली से उसे नरम करते और फिर आम के ऊपर ढेड के यहाँ का चीक निकालकर चूसना शुरू करते थे। अपने सामने गुठली छिलकों का पहाड़ बना लेते थे। आम की तारीफ़ दर तारीफ़ चलती रहती थी। यह परम्परा उन सभी घरों में थी जिनके घर आम की आड़ी डाली जाती थी। आम इतना होता था कि हम कभी-कभी मुँह लगाकर बिना चूसे ही आम फेंक देते थे बच्चों पर। हमें ऐसा करने पर बहुत डाँट भी पड़ती थी।

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हमारे यहाँ आम खाने के लिए इटारसी वाले दादा के बच्चे और दादा-माय आते थे। वे बच्चे भी हम उम्र चार पाँच भाई बहन और हम भी, आम खाना कम, फेंकना और मस्ती ज्यादा होती थी। गुठलियों की मारा-मारी, तो रस की पिचकारी, एक तरह से आम का स्वाद कम, शरीर पर रंग अधिक हो जाता था। पूरे महिना डेढ़ महिने तक आम और मेहमान रहते थे। कभी आम का रस, तो कभी आम-पापड़, तो कभी आम की बर्फी, उस समय सब कुछ आममय हो जाता था।
फिर बीच में किसी दिन अचार का आम बेड़ा जाता। तब हमारे पन्द्रह बीस घरों में एक साथ अचार मुरब्बा बनता था। कैरी एक ही आम की, राई मिर्ची भी एक ही खेत की, और तेल भी एक ही तेली के घर का, फिर भी सबके घरों के अचार का स्वाद अलग अलग होता था।
अगला काम, सबके घर अचार का आदान-प्रदान होता, वह काम बच्चों के द्वारा ही सम्पन्न होता था। बच्चों को समझाया जाता था कि किसके घर कौन सा अचार, कौन सी कुँडी देना और वहाँ से लाना है। हम अचार देने जाते समय बीच में उँगली डुबोकर चुपचाप चाट भी लेते थे। ये सब बाल सुलभ हरकतें आम और आम के साथ खतम होती थीं।

साहित्यकार डॉ स्वाति तिवारी को स्वर्गीय डॉ मूलाराम जोशी स्मृति उत्कृष्ट साहित्यकार सम्मान- 2024 /

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बीत गई गर्मी। बरसात में फेंकी गई गुठलियों से आम का पौधा निकलता था। बड़े होने से पहले ही उसे उखाड़ लेते थे। पौधे को गोंई (गुठली)सहित उखाड़ते थे। फिर गोईं को पत्थर पर घिसकर उसकी पुंगी बनाते थे। बच्चों के लिए पुंगी बजाना एक नया काम और खेल हो जाता था।
तब तक स्कूल खुलने के दिन नज़दीक आ जाते थे। फिर परीक्षा के बाद से कोठी पर रखे बस्तों की याद आती। दवात की स्याही सूख कर पपड़ी हो जाती थी। उसमें पानी डालकर उसे धोते थे। बाबूजी नई स्याही की शीशी खोलते थे। सबकी दवातें भर कर सबको डंक (कलम), निब, स्याही-सोख पेपर, पट्टी-पेम देते थे। माँ पुरानी साड़ियों की किनारों के बस्ते बना देती थीं। पानी-पोछे की डिब्बी दे देती थीं। लगता था, अब अमराई की कोयल की कूक नहीं सुनाई देगी। कोयल दूर जंगल में चली गई। अब आवाज़ सुनाई देने लगी स्कूल के घण्टे की। हम सब कुलाँचे भरते स्कूल पहुँच जाते। ऐसे बीतती थीं हमारी गर्मियों की छुट्टियाँ।
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– डॉ. सुमन चौरे
13, समर्थ परिसर,
ई-8 एक्सटेंशन, बावडिया कला
त्रिलंगा पोस्ट ऑफ़िस,
भोपाल – 462039