रविवारीय गपशप:Gulam Ali: रोमन में लिखी फरमाइश सबसे पहले सुनाने का राज बिटिया ने बताया!

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रविवारीय गपशप:Gulam Ali: रोमन में लिखी फरमाइश सबसे पहले सुनाने का राज बिटिया ने बताया!

 

पढ़ने लिखने के शौक़ की दास्तान तो अलहदा है, पर शेर ओ शायरी के प्रति रुझान उन क़व्वालियों की महफ़िलों से आया जो जबलपुर में स्कूल के दिनों में कचहरी वाले बाबा के उर्स पर सजा करती थीं। टेलीग्राफ कॉलोनी में रहते हुए इस उर्स में शिरकत करना बड़ा सरल था। क्योंकि, घर से बस सौ कदम की दूरी थी और पिताजी क़व्वाली के बड़े शौक़ीन थे। बाद में पिताजी का तबादला कटनी हो जाने पर पीर बाबा की मज़ार पर भरने वाले सालाना उर्स में क़व्वालियों के महफ़िलों के मज़े मैं अपने दोस्तों के साथ लिया करता।

प्रशासनिक सेवा में जब डिप्टी कलेक्टर की नौकरी लगी तो ट्रेनिंग के बाद मेरी पहली पोस्टिंग राजनांदगाँव ज़िले के डोंगरगढ़ सब डिवीज़न में हुई। ज़िले के सांसद शिवेंद्र बहादुर सिंह के प्रयासों के कारण खैरागढ़ अनुविभाग से अलग कर गठित किया गया। ये सब डिवीज़न माँ बमलेश्वरी देवी के मंदिर के लिए प्रसिद्ध था और नवरात्रि पर भरने वाले मेलों की भीड़भाड़ के अलावा बड़ा शांत स्थल था। रात के खाने के बाद का समय या तो कोई किताब पढ़ने में जाता या टेप रिकार्डर पर ग़ज़ल सुनने में। मेंहदी हसन, ग़ुलाम अली (छोटे), भूपेन्द्र और मिताली तो कभी जगजीत और चित्रा सिंह। इन फ़नकारों का गाया शायद ही कोई कंपोज़िशन सुनने से छूटा हो।

वक्त गुजरता गया और बरसों बाद जब मैं इंदौर में अपर कलेक्टर पदस्थ हुआ तो एक ऐसा बेशक़ीमती मौक़ा आया कि ग़ुलाम अली खां साहब से रूबरू मिलने का मौक़ा मिला। हुआ कुछ यूं कि ग़ुलाम अली साहब किसी कार्यक्रम के सिलसिले में इंडिया आए थे और किसी मिलने वाले सज्जन के माध्यम से रेसीडेंसी क्लब में उनका प्रोग्राम मुक़र्रर हो गया। उन दिनों इंदौर के कलेक्टर राघवेंद्र सिंह हुआ करते थे, जो ग़ज़लों और गीतों के मुरीद तो थे ही, ख़ुद गाते भी बहुत अच्छा हैं। ग़ुलाम अली साहब के कार्यक्रम के पीछे उनकी भी बड़ी मेहनत थी। रेसीडेंसी क्लब में कार्यक्रम बड़ा गरिमापूर्ण था, श्रोताओं का हुजूम तो था, पर थे सभी संजीदा।

शुरुआती कुछ ग़ज़लों को सुनाने के बाद अचानक ग़ुलाम अली खाँ साहब ने माइक पर कहा कि अब कुछ ग़ज़लें वे सामने बैठे श्रोताओं की पसंद पर सुनायेंगे। इस अनाउंसमेंट के बाद कुछ ख़ाली काग़ज़ फ़रमाइशें देने के लिए बाँटे गए। मैं अपने परिवार के साथ गया था, सो फ़रमाइश वाली पर्ची मेरी बेटी ने पकड़ ली और मुझसे पूछा ‘पापा क्या लिखूँ?’ अपनी बेहतरीन ग़ज़लें तो ग़ुलाम अली साहब सुना चुके थे, लेकिन इब्ने इंशा की एक नज्म जो ख़ान साहब ने बड़ी ख़ूबसूरती से गायी है और मुझे बड़ी पसंद थी, उसकी फ़रमाइश मैंने बेटी से लिखने कहा। नज़्म थी ‘ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फैलाई हैं!’

बेटी ने रोमन लिपि में पर्ची पर इसकी इबारत लिखी तो मैंने उसे झिड़का ‘तुम लोगों को अंग्रेज़ी का इतना भूत चढ़ा है, रोमन के बजाय इसे हिन्दी (देवनागरी) में नहीं लिख सकती थी? बेटी बोली अरे जाने तो दो। सारी पर्चियाँ इकट्ठी होकर स्टेज में ग़ुलाम अली ख़ान साहब के पास पहुँची और उन्होंने उनमें से छाँट कर जो पहली पेशकश गुनगुनाई वो वही नज़्म थी, जिसकी सिफ़ारिश हमने की थी। इतने मीठे स्वरों में नज़्म को रूबरू सुनकर लगा कि हम धन्य हो गए। मैंने बेटी की तरफ़ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा और कहा कि इतनी पर्चियों में हमारी पसंद कैसे चुन ली गई?

बेटी ने मुस्कुराकर कहा ‘अरे पापा मैंने रोमन में लिखा था सो उन्होंने पढ़ लिया, क्योंकि वो तो उर्दू पढ़ना जानते हैं हिन्दी थोड़ी पढ़ पाते!’ मैंने उसकी पीठ पर शाबाशी का हाथ फेरा और फिर दूसरे दिन राघवेंद्र सिंह जी के बंगले पर ग़ुलाम अली ख़ान साहब के साथ फोटो भी खिंचवाई और भोज का आनन्द भी लिया अलबत्ता आप ये नज़्म आप यू ट्यूब पर सुन सकते हो।