रविवारीय गपशप! बीमार की तीमारदारी और सही अटेंडेंट का होना!
हममें से हर किसी के जीवन में ऐसा वक्त तो आता ही है कि जरूरतें-सेहत हमें अस्पताल में भर्ती होना पड़े। अस्पताल में भर्ती होने के बाद दो ही चीजें हैं , जिनकी आपको सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती हैं। पहली तो ये कि जो डॉक्टर आपका इलाज कर रहा है, वो वाक़ई काबिल और आपके मर्ज़ से वाक़िफ़ हो और दूसरी बात ये कि इस मुश्किल घड़ी में आपका कोई ऐसा फ़िक्रमंद बंदा आपके साथ हो, जिसके होने से आपको सुकून का अहसास हो।
बात पुरानी है तब मैं असम में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए ऑब्ज़र्वर की ड्यूटी करने चुनाव आयोग द्वारा रंगिया भेजा गया था, जो गुवाहाटी (ग्रामीण) ज़िले का भाग था। मेरे बैचमेट श्री राजेश बहुगुणा भी असम के डिब्रूगढ़ में ऑब्ज़र्वर थे। राजेश इतिहास और प्रकृति के रसिक हैं, तो उन्होंने सुझाव दिया कि सप्ताह में पड़ने वाले रविवारीय अवकाश के दिन हम चांदुबी लेक घूमने चल सकते हैं, जो असम में 1897 में आए भूकम्प से निर्मित हुई थी। ये लेक़ गुवाहाटी के निकट थी, तो मेहमाननवाज़ी की जवाबदारी मेरी थी। मैंने अपने रिटर्निग अधिकारी से अनुरोध किया तो उन्होंने एक बंदा साथ कर दिया और उसे सब समझाकर हमारे साथ रवाना कर दिया।
हम दोनों मित्र झील के किनारे बने रेस्ट हाउस में रुके, वहीं भोजन किया और झील के सौंदर्य का आनंद लिया, पर खाने में कुछ ऐसी गड़बड़ हुई कि मुझे फ़ूड पॉइजनिंग जैसा कुछ हो गया। सुबह तड़के हम अपने अपने क्षेत्र को लौट गए, पर पेट तो बिगड़ चुका था। रंगिया में एसडीएम भारतीय प्रशासनिक सेवा के नवजवान अधिकारी कैलाश कार्तिक थे, उन्होंने मुझे लायज़निंग अधिकारी के साथ गुवाहाटी अस्पताल में भर्ती करा दिया और इलाज चालू हो गया। चुनाव में ऑब्ज़र्वर महत्वपूर्ण होता है, तो ख़ुद ज़िले के कलेक्टर मेरे इलाज पर नज़र रख रहे थे। पर, तबीयत सुधरने का नाम ही नहीं ले रही थी।
जब लगातार तीन दिन तक पेट में कुछ भी नहीं टिका और स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं दिखा, तब डाक्टर ने कहा कि इनका इलेक्ट्रोलाइट बैलेंस गड़बड़ा गया है। इन्हें मशीन में रखना पड़ेगा, सो मैं चिंतित हुआ। लाइजन ऑफिसर, जो मेरे साथ अस्पताल में था, घबरा गया। उसने मुझसे नंबर लेकर मेरी श्रीमती जी को फ़ोन कर स्थिति बताई। श्रीमती जी ने आनन-फ़ानन इंदौर से गुवाहाटी की फ्लाइट ली और गुवाहाटी आकर अस्पताल पहुंच गई। न जाने इतने दिनों तक दी गई दवाओं से शरीर सम्हाल या बीबी को पास पाकर सुकून हुआ। उसी दिन से मेरी तबीयत में अचानक सुधार होना आरम्भ हो गया और तीसरे दिन सुबह तो हम अस्पताल से डिस्चार्ज होकर रेस्ट हाउस वापस आ गए।
ज़रूरी नहीं कि अस्पताल में मिज़ाज जानने आने वाला हर शख़्स ऐसा ही हो। मेरे एक अभिन्न मित्र हैं सीबी सिंह जो उन दिनों इंदौर नगर निगम में कमिश्नर थे। एक बार श्रीमती सिंह की तबियत बिगड़ गई और कुछ ऐसी बिगड़ी कि उन्हें बॉम्बे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। ख़ैर जल्द ही स्वास्थ्य ठीक होने लगा और साथ काम करने वाले लोग हाल जानने अस्पताल पहुँचने लगे। जिनमें उनके नगर निगम में पदस्थ अपर कमिश्नर भी थे। जब एडीशनल कमिश्नर साहब पहुंचे तो उस समय अस्पताल के इस कमरे में सीबी सिंह साहब अकेले ही थे और कमरे में ही भाभी जी अब स्वास्थ्य लाभ के बाद आराम कर रही थीं।
सीबी सिंह साहब ने कहा कि अच्छा हुआ तुम आ गए, तुम यहीं कमरे में अपनी भाभी के साथ रुको, मैं कुछ जरूरी काम निपटा के आता हूँ। उन्होंने ने सिर हिलाया और सीबी उनको कमरे में छोड़ काम निपटाने चल दिए। कुछ देर हुई ही थी कि बॉम्बे हॉस्पिटल से राहुल का फ़ोन सीबी सिंह साहब के मोबाइल पर आया। सीबी दादा ने फोन उठाया तो राहुल बोले सर आप किसको अस्पताल में छोड़ गए हो! पिछले घंटे भर से खून-पेशाब, ब्लड प्रेशर, शुगर और ना जाने क्या क्या जांचे वो करा चुका है और मना करो तो धमकी देता है कि आप लोग मुझे जानते नहीं हो सबक सिखा दूँगा।
सीबी भागते हुए वापस अस्पताल पहुँचे तो भाभी ने परेशानी भरी आँखों से उन्हें बायीं तरफ इशारा किया तो देखते क्या हैं ऐडिशनल कमिश्नर साहब कमरे में अटेंडेंट के लिए बिछाये बिस्तरे पर शर्ट उतार कर लेते हुए हैं। बदन पर जगह जगह ईसीजी के पॉइंटर लगा कर उनका ईसीजी चेक हो रहा है। सीबी दादा ने नाराज़गी भरे स्वर में पूछा ‘ये सब क्या है!’ तो एडिशनल कमिश्नर ने मासूमियत भरे अंदाज में जबाब दिया ‘अरे सर, भाभी जी तो आराम कर रहीं थीं और मैं अकेले बोर हो रहा था, तो सोचा क्यों न हेल्थ चेकअप ही करा लिया जाए।’