रविवारीय गपशप: सरकारी नौकरी में ‘छुट्टी’ की भी अलग कहानी
प्राइवेट क्षेत्र का तो पता नहीं जहाँ काम घर से ही करने का चलन जोरों से चल पड़ा है! पर, सरकारी नौकरी में ‘घर’ पर रहने का मतलब छुट्टी ही होता है, चाहे आप जितना भी काम कर लो। ऐसा नहीं है की सरकारी नौकरी में छुट्टी नहीं मिलती है, मिलती ज़रूर है पर ज़रूरी नहीं कि वो तब ही मिले जब आपको उसकी जरुरत हो। छुट्टी न मिलने से परेशान एक अधिकारी अपने कलेक्टर के पास पहुँचे और उन्हें छुट्टी की दरखास्त देते हुए कहा की सर मैं छुट्टी जा रहा हूँ । कलेक्टर ने उनसे कहा कि अभी तो तुमने आवेदन ही दिया है, मंजूरी कहाँ हुई! तो परेशान तबीयत के उस बंदे ने जबाब दिया कि सर छुट्टी का आवेदन देना मेरा काम है, मंज़ूर करना या ना करना आपका काम है। उसे मानना या न मानना मेरा तो मैं तो चला! नमस्कार कर वे पलटकर चल दिए।
मेरे एक मित्र हैं जो उज्जैन में मेला अधिकारी के पद पर पदस्थ थे। सिंहस्थ का दौर समाप्त हो चुका था, पर उनकी पदस्थापना नहीं बदली थी। एक दिन मुझसे मिलने आए तो कहने लगे ‘सर मेला कार्यालय में अब कुछ खास काम बचा नहीं है , सोचता हूँ दस-पंद्रह दिन की छुट्टी ले लूँ।’ मैंने परिहास में कहा कि जब काम ही नहीं है, तो छुट्टी हुई लेने की क्या जरूरत! कोरोना काल में जब दफ्तरों को बंद कर दिया गया था, तो मैदानी अफसरों के पास सिवाय ज़रूरी निगरानी के कोई और काम तो बचा नहीं था। हम सभी अफ़सर मिल कर जिलों के दौरे किया करते थे। एक दिन जब उज्जैन शहर के क्वारंटाइन इलाकों का दौरा चल रहा था तो कप्तान बोले ‘सर बहुत दिन हो गए, अजीब रूटीन है, कोरोना ख़त्म हो तो छुट्टी लेकर आराम करेंगे। मैंने सोचा इतने दिनों से दफ़्तर बंद हैं, तो अभी क्या कर रहे हैं।
छुट्टी देने के मामले में सबके अपने-अपने अनुभव है। कुछ ऐसे अफसर होते हैं जिन्हें ‘छुट्टी’ शब्द सुनकर ही बुखार आ जाता है। हालांकि कुछ ऐसे भी होते हैं, जो बड़े उदार भाव से छुट्टी देते हैं। कंजूसी से छुट्टी देने वालों को क्या याद करें, हाँ उदारता के मामले में मुझे याद आते हैं श्री आरसी सिन्हा। मैं सागर से उज्जैन स्थानांतरित होकर नया-नया आया था और परिवार सागर में ही था। गुरुवार के दिन कलेक्टर पूछते सागर नहीं जा रहे हो। मैं कहता ‘जी शुक्रवार की रात निकल जाऊँगा और सोमवार को आ जाऊँगा।’ सिन्हा साहब कहते अरे चाहो तो आज निकल जाओ और मंगल को आओ तब भी चलेगा।
अवकाश देने में मामले में एनके त्रिपाठी साहब का भी जवाब नहीं था। त्रिपाठी साहब प्रदेश के परिवहन आयुक्त थे, मैं देखता समीक्षा बैठक के दौरान भी कई आरटीओ छुट्टी मांगते तो वे बिना हिचक दे देते। बस पूछते आपके साथ कोई आया है? वो सज्जन कहते जी हाँ आरटीआई आया है, तो कहते बस उससे कहो मीटिंग में बैठे और तुम्हारी बारी आए तो जानकारी बता दे।
कई बार तो मैं कहता भी कि सर ये जान बूझ कर भाग रहा है इसकी परफार्मेंस ठीक नहीं है तो हंस के कहते उसके मीटिंग में रहने से कौन सी परफॉर्मेंस सुधर जाएगी। कई बार तो मुझे भी विधानसभा चलने के दौरान जरूरी होने पर छुट्टी दे दी। वापस लौट जब मैंने डीलिंग असिस्टेंट से पूछा कि कोई परेशानी तो नहीं आई ? तो उसने कहा नहीं सर बस एक विधानसभा का स्थगन प्रस्ताव आ गया था पर साहब ने सीधे मुझे बुलाया फाइलें खुद देखी और उत्तर बनवा दिया।