रविवारीय गपशप :नए साल का जश्न: यादों में अहमदाबाद और पान की दुकान भी!
आनंद कुमार शर्मा
नया साल बस अभी शुरू ही हुआ है , और अभी भी कई साथी नए साल में मनाए गए जश्न की खुमारी में मुब्तिला होंगे । नए साल के लिए मनाए जाने वाले जश्न का स्वरूप पहले ऐसा नहीं था । बड़े दिनों तक नए साल के जश्न का मतलब था , टी.व्ही. के सामने बैठ कर कार्यक्रमों का लुत्फ उठाना । उन दिनों बड़ी मेहनत और मशक्कत से ये कार्यक्रम तैयार किए जाते थे जो सचमुच साल भर यादगार बने रहने वाले होते थे , लेकिन समय के साथ-साथ इसमें होटलों और क्लबों में होने वाली पार्टियों का शुमार हो गया । लगभग सभी बड़े शहरों के होटल्स में नए साल के जश्न की बड़ी तैयारी हुआ करती है पर मेरा ये भरम तब टूटा जब मेरा अहमदाबाद जाना हुआ । उस साल मैं राजगढ़ की ढाई साल कलेक्ट्री करने के बाद भोपाल में वल्लभ भवन में जी.ए.डी. में अपर सचिव के पद पर पदस्थ हो चुका था , यानी नए साल में लॉ एंड ऑर्डर का कोई झंझट नहीं था । हमने तय किया कि सपरिवार हम रण ऑफ़ कच्छ जाएँगे और साल के नए दिन का जश्न अहमदाबाद में मनायेंगे । अच्छी ख़ासी फ़ाइव स्टार केटेगरी की होटल बुक की गई और 31 दिसंबर की शाम तक हम अहमदाबाद पहुँच गए । रात को हम मियाँ बीबी सज सँवर के होटल की लॉबी में पहुँचे तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था । रेस्टोरेंट में गए तो वहाँ भी कोई नहीं । हमें बड़ा अचरज हुआ , लगा हम जल्द आ गए हैं तो एक टेबल पकड़ कर बैठ गए । ऑर्डर लेने वाले वेटर महानुभाव जब आए तो उनसे कारण पूछा कि “ इतना सन्नाटा क्यों है भाई ? “ बेयरे ने सहज भाव से कहा “सर यहाँ गुजरात में शराब बंदी है , सो काहे की पार्टी , लोग घरों में ही रहते हैं ।” तब मुझे समझ आया कि पार्टी का प्रेरक तत्व कुछ और ही होता है ।
सच कहूँ तो मुझे मुझे इन न्यू ईयर पार्टी का बस इतना ही रोमांच रहता रहा है कि इस क्षण जब घड़ी रात के बारह बजाती है तो हमारे मित्र और परिवार के लोग साथ रहें । इस बारह बजे का भी एक मज़ेदार प्रसंग है । इंदौर में जब मैं कलेक्ट्रेट में अपर कलेक्टर के रूप में पदस्थ था तो हमारे साथ श्री प्रकाश जांगरे भी पदस्थ थे । जांगरे साहब के बारे में सभी जानते थे की वे इंदौर की पोस्टिंग से खुश नहीं थे , कारण था उनके परिवार का भोपाल में रहना । एक सप्ताह के रविवार को भाभी जी इंदौर आतीं और अगले सप्ताहांत में जांगरे साहब भोपाल जाया करते और इस प्रकार बारी बारी से वे परिवार धर्म निभाते । उस बरस जब नया साल आया तो कलेक्ट्रेट में पदस्थ सभी साथियों ने तय किया कि इस बार सभी साथी सपरिवार रेसीडेंसी क्लब में नव वर्ष का स्वागत करेंगे । रात होते होते खाना खाने के बाद किसी ने सुझाव दिया कि चल के पान खाया जाये, बस सब मिल के पान की दुकान ढूढ़ने निकल पड़े । महिलायें एक गाड़ी में हो गईं और हम पुरुष वर्ग के लोग एक गाड़ी में । पान की दुकान ढूँढने में दोनों गाड़ियाँ अलग अलग दिशा में चली गईं , पर पान मिला ही नहीं । तभी बारह बजने का समय होने लगा । जांगरे साहब भारी बैचेन होने लगे बमुश्किल मिला करते थे , लगा नए साल के आगाज में मिल पाएंगे या नहीं । उनकी व्यग्रता देख हम सभी मुस्कुराने लगे , पर ईश्वर की कृपा और उनका प्यार की बारह बजने के पहले दोनों गाड़ियाँ मिल गईं और मिलते ही दोनों ऐसे गले लगे कि हमें फिल्मी सीन याद आ गए । बहरहाल नए साल में साथ रहने का जज्बा क़ायम रहा और कुछ दिनों बाद ही जांगरे साहब का तबादला भोपाल हो गया ।