रविवारीय गपशप: खाने की वो दावतें और भूली-बिसरी यादें!

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रविवारीय गपशप: खाने की वो दावतें और भूली-बिसरी यादें!

मध्यप्रदेश इतना विस्तृत है कि इसके अलग भू भागों में अलग अलग भाषाएं, बोलियाँ और भोजन की विविधता विद्यमान हैं। आप ग्वालियर के हैं तो बेड़ई की पूड़ी और तीखी सब्ज़ी के मज़े हैं, बुंदेलखंड में हैं तो गक्खड़ और दाल का अलग आनंद है, मालवा आ जाएं तो दाल-बाफले और लड्डू की दावत के बिना बात नहीं बनेगी। कई बार किसी एक क्षेत्र के रहवासी दूसरे क्षेत्र में जाएं और व्यंजन की विविधता को परखने के शौकीन न हों तो मेजबान का दिल टूट जाता है।

कटनी के रहने वाले मेरे बचपन के मित्र रवींद्र मसुरहा की शादी भोपाल में हुई है। हम सब कॉलेज में ही पढ़ा करते थे और बारात में भोपाल जाने का एक गजब का उत्साह था। इस बारात की दो बातें मुझे आज भी याद हैं। पहली यह कि सूट-बूट में तैयारी के साथ हम बाराती जब भोपाल पहुँचे तो सारी तैयारी धरी रह गईं। क्योंकि, भोपाल में ग़ज़ब की बारिश हो रही थी और सारे सूट-बूट इस बरसात में ऐसे धुले कि दूसरे दिन हम बरसाती जूते खरीदने दुकान की तलाश कर रहे थे। दूसरी, यह कि कुंवर कलेवा में ससुराल वालों ने बड़े अरमान से दाल-बाफले परोसे थे और हम सबने पहली बार ऐसी गक्खड़ (बाटी) देखी थी, जो फुसफुसी होकर शुद्ध घी में डूबी हमारी पत्तल में परोसी गई थी। हममें से किसी ने उसे हाथ नहीं लगाया, वे बड़े हैरत से हमें देखते रहे।

दाल-बाफले खाने का सलीका मुझे तब आया, जब पहली दफ़ा जब मेरी पोस्टिंग मालवा के उज्जैन जैसे इलाके में हुई। मैं उज्जैन का एसडीएम नियुक्त हुआ तो शुरूआती मेल मुलाक़ात के बाद एक नेताजी ने जो विधायक भी थे, मुझसे ऑफ़िस में कहा कि इस रविवार भोजन साथ करें! मैंने यूं ही कह दिया ‘ठीक है देख लेंगे!’ रविवार तक मैं उनका अनुरोध और अपना वादा दोनों भूल चुका था। कुछ दिनों बाद एक परिचित सज्जन ने मुझसे कहा कि फलां नेताजी आपसे बड़े नाराज हैं। मुझे आश्चर्य हुआ मैंने पूछा ‘अभी तो मैंने काम भी शुरू नहीं किया, भला उनकी नाराज़ी का क्या कारण हो सकता है!’ उन्होंने याद दिलाया कि आपने कहने के बाद भी उनका भोजन ग्रहण नहीं किया इसलिए वे नाराज़ हैं। मैंने कहा भाई खाने पर न जाना क्या इतनी बड़ी बात है। मेरे दोस्त कहने लगे साहब ये मालवा है, यहाँ कोई खाना खिलाने को कहे और आप न खाओ तो वो ये अपना अपमान समझता है। मैंने तुरंत फोन पर नेताजी से माफ़ी मांगी और अगले रविवार उनके साथ दाल-बाफले की दावत उड़ाई।

दावत से जुड़ी एक और मज़ेदार घटना याद आ रही है। मैं रतलाम जिला पंचायत में सीईओ होकर गया था। परिवार ग्वालियर में ही था और मैं अकेला रह रहा था। एक दिन हमारे संवर्ग के एक अधिकारी ने जो वहीं नगर निगम में कमिश्नर थे, मुझे रात्रिभोज के लिए आमंत्रित किया। अफ़सर जब किसी पोस्टिंग में अकेला रह रहा हो, तो ऐसे न्यौते का इंतजार करता रहता है। मैंने तुरंत हाँ कर दी और रात को आठ बजे के आस-पास उनके बंगले पर पहुँच गया। हम कुछ देर बैठे फिर उन्होंने चाय का पूछा, मैंने घड़ी देखी, साढ़े आठ बजना चाह रहे थे, मैंने कहा ठीक है पी लेंगे। कुछ देर में चाय बनी, हमने पी फिर बैठे इधर उधर की बात होती रही। मैंने घड़ी देखी रात के साढ़े 10 बजने वाले थे। मुझे लगा यदि अब संकोच किया तो हो सकता है भूखा ही सोना पड़े। क्योंकि, इतनी रात तो खाने के होटल भी बंद हो गए होंगे। मैंने उनसे कहा ‘लगता है आप भूल रहे हैं, आपने मुझे खाने पर बुलाया था।’ उन्होंने कहा ‘नहीं नहीं भूला नहीं हूँ, बस बनवाते हैं, भिंडी की सब्जी खाएंगे। मैंने कहा अब इस वक्त तो आप जो खिलाओगे खा लेंगे। बहरहाल फिर हमने बढ़िया डिनर किया और मैं अपने इस भुलक्कड़ मित्र को शुभ रात्रि कह अपने घर चल दिया।