तो पीके का राजनेता बनने का प्रबंधन फेल हो गया (PK Political);
प्रशांत किशोर के साथ कांग्रेस ने वही किया जो उसे करना चाहिए था एक राजनीतिक दल के लिए महत्वपूर्ण है कि उसका वजूद बना रहे और उसके राजनेता भी अपना वजूद ना खोएं। दरअसल प्रशांत किशोर कांग्रेस में अपना वजूद ही स्थापित नहीं करना चाहते थे बल्कि कांग्रेस पर एक तरह से आधिपत्य चाह रहे थे, यहां सवाल यह उठता है कि एक राजनीतिक दल जिसका राष्ट्र की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान रहा हो और वर्षों तक आजाद भारत की सत्ता पर काबिज रहा हो वह दल क्या इतना कमजोर हो गया है कि ‘चुनाव प्रबंधन आइडिया’ बेचने वाली किसी कंपनी के सीईओ को अपना दल और अपना बल सब सौंप दें और कहे कि माननीय आप आओ संभालो और कांग्रेस को सत्ता मे लाओ ..यह कैसे संभव है क्या कांग्रेस के भीतर वर्षों से जमे और काम कर रहे राजनीतिज्ञ इतने कमजोर और नाकारा हो गए कि वह अब रणनीति प्रबंधन, चुनाव प्रबंधन ,संगठन प्रबंधन और नीति प्रबंधन को समझ ही नहीं पाए और कुछ नहीं कर सके। जो खुला हाथ प्रशांत किशोर कांग्रेस हाईकमान से चाह रहे थे वैसा खुला हाथ कांग्रेस अगर अपने भीतर ही मौजूद स्थापित राजनेताओं को तवज्जो और छूट के साथ देती तो उसे किसी प्रशांत किशोर की जरूरत ही नहीं रहती ।लेकिन कांग्रेस की यह सबसे बड़ी भूल रही है कि उसने अपने खेत में पनप रही फसल को घास में तब्दील होने दिया या खरपतवार से घिर जाने दिया लिहाजा कांग्रेस के योग्य नेता भी सिर्फ यस सर, यस मैम वाले बनकर रह गए।
बहरहाल कांग्रेस को जो करना था वही किया और एक इंपावर्ड कमेटी बनाकर प्रशांत किशोर हो वही करने के लिए कहा जो उन्हें उन्हें कांग्रेस में शामिल होने के बाद करना चाहिए, फिर क्यों प्रशांत किशोर रूठ गए और तेलंगाना मैं अपने कंपनी के लिए काम खोजने पहुंच गए।
खबर है कि सोनिया गांधी का प्रस्तावित एम्पार्वड एक्शन ग्रुप जिसमें प्रशांत किशोर को उसका सदस्य बनाकर पार्टी में शामिल होने का प्रस्ताव था, लेकिन प्रशांत किशोर ने भी ट्वीट कर जताया कि कांग्रेस में गहराई तक जड़ें जमा चुकीं सांगठनिक समस्याओं को परिवर्तनकारी सुधारों के जरिए सुलझाने के लिए मुझसे ज्यादा पार्टी को नेतृत्व और सामूहिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।
यहां प्रशांत किशोर का आशय समझिए वे पावर्ड होना चाहते थे। प्रशांत किशोर कह रहे हैं कांग्रेस में पार्टी को इच्छा शक्ति का विकास कर संगठन की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए उन्होंने कब कहा जब वे कांग्रेस के द्वार पर कुंडी खटखटा रहे थे। उनकी कुंडी की आवाज भीतर तक सुनी तो गई लेकिन उनसे कह दिया गया कि उनकी जगह ड्राइंग रूम में हैं जहां मेहमान बिठाए जाते हैं घर के भीतर तक प्रवेश कि उन्हें इजाजत नहीं मिल सकती ।बस यहीं प्रशांत किशोर पलट गए और अपने व्यापार का नया सौदा करने तेलंगाना पहुंच गए।
सवाल यह है कि कांग्रेस जिसे राजनीति का गहरा और लंबा अनुभव रहा है उसे ना रणनीति बनाना आ रहा है और ना ही चुनाव प्रबंधन करना, यह कैसे संभव है जब आपके पार्टी के भीतर लंबे अनुभव के राजनेता मौजूद हो जब आपको आंकड़ों के आधार पर एनालिस्ट करने वाले एक ऐसे व्यापारी की जरूरत पड़ जाती है जो प्रबंधन के गुर बेचने का व्यापार करता है। चलिए व्यापार तो मनमर्जी का सौदा है आपकी मर्जी हो तो खरीदो ,जरूरत हो तो खरीदो ।इसमें कुछ गलत नहीं है लेकिन गलत है तो यह कि ऐसे किसी व्यक्ति को जो स्वयं कभी राजनीतिज्ञ नहीं रहा हो सिर्फ प्रबंधन के आधार पर पार्टी के भीतर इतनी तवज्जो दी जाए कि पुराने पके हुए चावल भी दालभात में मूसर चंद के साथ हो जाए ,ऐसा ही बीते दिनों कांग्रेस के भीतर व कांग्रेस के बाहर होता रहा है नाम बताने की जरूरत नहीं है ।सभी को पता है कि प्रशांत किशोर के आगमन की खबर से कांग्रेस के अंदर और बाहर कितनी और कैसी हलचलें हुई है। कैसे रातो रात प्रशांत किशोर बड़े नेता की तरह उभरने लगे और पुराने बड़े नेता छोटे बनके उनके आसपास पानी भरने लगे।
प्रशांत किशोर ने ना केवल कांग्रेस के सभी नेताओं को चिंता में डाला साथ में राजीव गांधी और प्रियंका गांधी के लिए भी वे एक चुनौती बनकर उभरने लगे, इस बात को सोनिया गांधी ने भाप लिया या समझ लिया और कुंडी खटखटाने के बावजूद भी प्रशांत किशोर के लिए दरवाजा नहीं खुला। इस तरह प्रशांत किशोर कांग्रेस की जमी हुई सल्तनत के सुल्तान होते होते रुक गए।
अब बताया जा रहा है उदयपुर में पार्टी का चिंतन शिविर होगा जिसमें कांग्रेस के 400 बड़े नेता इस पर विचार करेंगे कि 2024 की चुनौती को कैसे प्रबंधित किया जाए। इसमें प्रशांत किशोर की भूमिका रहेगी या नहीं रहेगी, यह आने वाला समय बताएगा लेकिन यह साफ है कि ऐसा कुछ नहीं हो सकेगा जो राहुल, प्रियंका या सोनिया गांधी के लिए आने वाले दिनों में चुनौती बन सके। प्रशांत किशोर बहरहाल रणनीतिकार और चुनाव प्रबंधक ही है। कांग्रेस उनका उतना ही उपयोग करना चाहती है यदि प्रशांत किशोर कांग्रेस में शामिल हो भी जाते तो यह उनका व्यापारिक नुकसान होता क्योंकि कांग्रेस के भीतर रहते हुए भी उनकी अहमियत और सुनवाई उतनी ही होनी थी जितनी अपनी कंपनी के लिए पैसा लेकर किया करते थे।
तो मात किसने खाई… प्रशांत किशोर ने अथवा कांग्रेस ने। मुझे लगता है कांग्रेस ने, अपने आप को आत्मसमर्पण से बचा लिया क्योंकि यदि कांग्रेस प्रशांत किशोर की शर्तों पर उन्हें कांग्रेस में शामिल कर लेती और अहमियत वाले पद पर स्थापित कर देती तो यह कांग्रेस की अपनी कमजोरी होती है और इससे यह लगता है एक ऐतिहासिक पार्टी वाकई गुम हो गई है और आश्रित भी।लेकिन ऐसा नहीं हुआ कांग्रेस ने सही फैसला लेते हुए अपने को, अपने अनुभवों को और अपनी इज्जत को बचा लिया दूसरी तरफ प्रशांत किशोर एक बड़े प्रबंधक होते हुए भी अपनी राजनीतिक सफर पर निकले जरूर लेकिन उन्हें उल्टा लौट कर आना पड़ा ।उनका अपने लिए किए जाने वाला राजनीतिक प्रबंधन फेल हो गया फिलवक्त इस घटनाक्रम का यही दर्शन है।