Swati Tiwari की kahani :‘कोई परिचित’

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story focused on the Corona period

स्वाति तिवारी की कोरोना काल पर केंद्रित मार्मिक कहानी :‘कोई परिचित’

शवदाह-गृह के बाहर बाहर बैठा मैं और मेरे भीतर उबलता भावनाओं का झंझावत। सोचा न था कि ये दिन कभी इस तरह मेरे सामने, मेरे अनुभव के पटल पर यूँ आ खड़ा होगा। एक तरफ़ वो रिश्ता जिसने मुझे इस दोराहे पर ला खड़ा किया और एक तरफ़ ये हौलनाक मंज़र जहाँ आपदा को अवसर में बदलते मृत्यु में रोज़गार की तलाश करते लोग। बेरोज़गारी की मार झेलते लोगों का एक उदाहरण ‘पंडित’ का रूप धरे सामने बैठा है! संक्रामक समय में वह मंत्रोच्चार से कुछ कमाना चाहता है। वह लोगों से कह रहा है, “हो तो दीजियेगा, ना हो तो कोई बात नहीं! मुक्ति के लिए मंत्रोच्चार आवश्यक है।
जाने कौन-सा रिश्ता है जो मुझे इसे कर्तव्य समझने की दिशा में धकेल रहा है। मैं, जो यथार्थवादी हूँ किन्तु अति भावुक भी। शायद इसीलिए मेरी माँ मेरे मन को मौक़ा मिलते ही पक्का करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। यहाँ इस विश्राम-घाट पर बैठे मुझे वही वाक़या याद आ गया जब मैं एक बार विश्राम-घाट से लौटने के बाद व्यथित था। उस दिन माँ से कहा भी था, “माँ, ऐसा देखना दर्दनाक लगता है, भला जलाया ही क्यों जाता है?” तब माँ ने अपने आँचल से मेरे पसीने को पोंछते हुए समझाया था, “सनातन परम्परा का यह भी एक संस्कार है, जो ज़रुरी है। शायद भारत और हिन्दुओं के अलावा यह दुनिया में कहीं नहीं है।” माँ ने ही कहा था कि इसके बिना मुक्ति नहीं मिलती। यही एक मात्र वैज्ञानिक विधी भी है। जानता हूँ, उस दिन माँ मेरे कच्चे मन को पक्का करना चाहती थीं। और आज एक बार फिर विश्राम-घाट पर बैठ कर ये महसूस हो रहा है मानों पहली बार आया हूँ। अब ऐसा तो है नहीं कि मैं किसी अन्त्येष्टी के लिए पहली बार ही विश्राम-घाट आया हूँ। पहले भी आता रहा हूँ। कभी परिवार की किसी ग़मी में, तो कभी ऑफ़िस के किसी सहकर्मी के परिवार के किसी सदस्य को अंतिम बिदाई की औपचारिकता के लिए, तो कभी नाते-रिश्तेदारी में या मित्रों के दुःख में। किन्तु सच कहूँ तो मुझे यही एक जगह सबसे भयावह लगती है क्योंकि यहाँ मनुष्य के शरीर को, वह भी किसी अपने ही प्रियजन को, अपने ही हाथों से अग्नि के सुपुर्द कर देना मुझे सबसे क्रूर, सबसे हिंसक लगता है। ये हिंसा ही तो है, कभी जिसकी उँगली पर एक बूँद गर्म तेल भी छिटक जाय तो दर्द परिवार को भी होता है, उसे यूँ अग्नि में छोड़ देना और देखते रहना हिंसा ही तो है!

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ख़ैर, छोटा शहर होने के बावजूद दाह-संस्कार के लिए यहाँ आजकल दोनों व्यवस्थाएँ हैं। एक प्राचीन सनातनी परंपरा, जो लकड़ी पर घी डाल कर मंत्रोच्चार के साथ मुखाग्नि देने की, जो यथावत है। बल्कि समय की नज़ाकत को देखते हुए लकड़ी के पीठे के साथ सामग्रीवाला भी आ बैठा है और नातेदारों के अभाव में एक-दो मददगार भी मिल जाते हैं। पर इनके अलावा शवों की लम्बी-लम्बी कतार देख कर और लकड़ी की भी क़िल्लत को देखते हुए प्रशासन ने नयी महानगरीय व्यवस्था भी कर दी है- अंत्येष्टि-गृह बनाकर। पर इस विकट समय में दोनों के ही सामने लम्बी-लम्बी कतार हैं। शव-वाहन के आने के पहले ही पहुँच गया था मैं। नज़रें जैसे मासूम बच्चे-सी डरी हुई महसूस हो रही थीं, जो डर भी रही थीं और दृश्य देख, स्थिति का जायज़ा भी ले रही थीं। आजकल सबकुछ जैसे मोबाइल हो गया है, जिसमें कैमरा भी लगा होता है। इस वक़्त आँखें उसी कैमरे के मानिंद घूमने लगीं। जिधर नज़र जाती, कोई भयावह तस्वीर मन-मस्तिष्क में क्लिक हो जाती। ये ना भुलाने वाले चित्र जो स्थायी मेमोरी में जमा हो रहे थे उनके कारण एक अजीब वितृष्णा होने लगी। वीतराग का यह अजीब संवाद मन में चलने लगा। ओफ्फ़! ये कहाँ फँस गया मैं। जीवन भर इन स्मृतियों से लड़ना होगा इन्हें भुलाने के लिए…

story focused on the Corona periodशव-वाहन आ गया था। अस्पताल से डॉ. देवेश ने ही सब व्यवस्था कर दी थी और कहा था, “तू सीधे पहुँच जाना।” इन दिनों इस वाहन के भी पैसे देने पड़ रहे हैं लोगो को! शव-वाहन के पैसे चुका दिए थे। वाहन के साथ आये तीन लड़कों को भी शव-पैकिंग के अलावा मेहनताने के पैसे दे दिए थे। पर कैसा बेरहम समय और समाज होता जा रहा है! वे इनाम माँग रहे थे! दो हज़ार मेहनताने के अलावा पाँच सौ रुपये इनाम के नाम पर दिए तभी वे गए। जाते-जाते बोल गए, “कुछ खा पी लो, अभी तो आपका नंबर आने में कम-से-कम तीन घंटे लगेंगे। तब तक तो हम कुछ और शव ले आयेंगे। समय पर आ गये तो सहायता कर देंगे। वैसे वो जो चार लोग उस चिता के साथ दिख रहे है ना, वो यहाँ सहायता के लिए ही हैं। कुछ दे दीजियेगा वे साथ खड़े हो जायेंगे। उस जगह एक फ़ॉर्म भरवा दीजियेगा और नाम लिखवाकर आप टोकन ले लीजियेगा।”
नाम तो यहाँ सभी ने लिखवाये थे, पर इन नामों की अब कोई पहचान नहीं रही। ये सब टोकन नंबर में तब्दील हो गए थे। बिल्कुल उसी तरह जैसे कोई कैदी जो बैरक के नंबर से पहचाना जाता है। ओफ्फ़! समय की कठोरता और बेरहमी ने जीवन के मर्म पर ही चोट की है। क्षण-भंगुर जीवन की ऐसी कल्पना क्या कभी किसी ने की होगी? कोरोना-सुरक्षा-कवच पहने-पहने लोगों की बेचैनी और परेशानी को महसूस करता हूँ। म्युन्सिपालटी के उन कर्मचारियों को भी देख रहा हूँ जो जाने कब से इसी काम में लगे हैं। कल्पना से परे है यहाँ की नौकरी। रोज़-रोज़ शवों, चिताओं, रोते-बिलखते लोगों के बीच ये सब यंत्रवत हो गए हैं। इतनी बेरहमी से नम्बर बुलाते हैं, ना मन में कोई भाव, ना आँख में आँसू, ना आवाज़ में सहानुभूती का मरहम…। जैसे नंबर की हाँक आते ही मुर्दा उठकर हाज़िर हो जाएगा! कोर्ट है क्या! बुलानेवाले की स्टाइल या कहूँ या हाँक लगाने का अंदाज़… बिलकुल कटघरे में बुलाने वाला…

आसपास देखता हूँ टाँगों में जैसे शक्ति ही नहीं रही, जनसेवकों की लगाई बैंचे भरी हुई हैं। एक पर एक या दो ही लोग बैठ रहे हैं, बैठने के लिए जगह खोज रहा हूँ, अंत्येष्टि-गृह का बाहरी कोना ख़ाली है, ऊपर शैड भी बना है और हाल-फ़िलहाल पक्के किये गए चबूतरे जैसा है। फ़र्श पर दीवार के सहारे बैठ जाता हूँ। मोबाइल पर लगातार मैसेज-पर-मैसेज आ रहे हैं, कुछ तो दफ़्तर से हैं। किसी को कुछ बताने का मन नहीं है। माँ का इस बीच तीन बार फ़ोन आ चुका है। फिर आ रहे नंबर को टकटकी लगाये देख रहा हूँ। जैसे नंबर नहीं माँ ही हो फ़ोन में। बैठे-बैठे माँ के फ़ोन को साइलेंट पर भी देखना अच्छा लग रहा है। काटा तो बताना पडेगा काटने का कारण। फ़ोन थक कर बंद हो गया पर माँ नहीं थकीं। मैसेज आ गया, ‘कहाँ है तू?’
‘व्यस्त हूँ’ का उत्तर देते ही अगला मैसेज, ‘सब ठीक है ना?’ जानता हूँ, अब वह बात होने तक बेचैन रहेगी। सोचता हूँ, कोविड-काल में मोबाइल नहीं होते तो क्या होता? मोबाइल के फ़ीचर देखता हूँ, स्क्रीन पर कैमरा दिख जाता है, बिना सोचे-समझे विश्राम-घाट की तस्वीर ले लेता हूँ। फ़ोटो देखकर संख्या पर ताज्जुब होता है। 40-45 चिताएँ जलती नज़र आती हैं। सब कोरोना-वायरस से संक्रमितों के शव हैं ये। क्योंकि उनके लिए अलग से मैदान में बनाया गया है दाह-स्थल। ध्यान से देखता हूँ अपना यह अनोखा क्लिक। सरकार के कोरोना बुलेटिन की धज्जियाँ उड़ाता क्लिक। शहर में कोरोना के क़हर और संक्रमण की भयावहता की कहानी कहता चित्र मेरे पास है। घड़ी पर नज़र डाली। बैठे-बैठे दो घंटे हो गये हैं। टोकन को देखता हूँ- कहीं नंबर निकल तो नहीं गया! गैस-भट्टी तो ख़ाली है। पर मैं निर्मम होकर नहीं देख पाऊँगा और उन्हें कैसे दिखाऊँगा। विद्युत्-मशीन में लाइन लम्बी है। शायद लानेवाले मेरी तरह के लोग होंगे। समय के साथ शव-वाहनों ने जैसे स्पीड पकड़ ली। संख्या बढ़ने लगी थी। हैरान-कम-परेशान हालात में पसीना था कि स्नान ही करवा रहा था। भूख मर गयी थी पर पेट ख़ाली होने का अहसास करवा रहा था। स्क्रीन पर एक मैसेज चमकता है।
“आपका कोई मैसेज अभी तक नहीं आया… हो गया क्या?”
“नहीं।”
“मैं विडिओ-कॉल करूँ, प्लीज़??? मुझे एक बार देखना है…?”
“अभी नहीं…”
“क्यों…???”
मैं जवाब देना बंद कर देता हूँ। पर उदासी की परत उन संदेशों से जैसे मेरी सारी बेचैनी और कोफ़्त को कवर कर लेती है। मन का कोई कोना कहता है- यह मुश्किल समय है… यह धैर्य का समय है। उसे कितनी तकलीफ़ होगी उन्हें इस तरह भेजते हुए। कितना दुःख, कितनी पीड़ा हो रही होगी इस वक़्त। इसकी कल्पना भी मेरे लिए संभव नहीं। उसकी वह क़ातर आवाज़, रुलाई रोकती याचना जैसे कानों में समा गई है। कितना विचित्र विडम्बना भरा समय है और कितना बेरहम भी। बिदाई लेते हुए आदमी के साथ एक भी प्रियजन नहीं!!! आदमी दूर देस में, परदेस में गुज़र जाए तो भी घर लाया जाता रहा है। लौट कर, एक बार घर… अपनों के बीच। पर यह क्या प्रभु! अपने शहर में अंतिम साँसों के बावजूद बिदाई भी घर की देहरी से नहीं! सारी उम्र आदमी सम्बन्ध जोड़ता है सिर्फ़ चार कंधों के मिलने की आस में। पर चार कंधे छोड़ एक हाथ भी अपने का नहीं…? मुखाग्नि के लिए भी नहीं…? बदक़िस्मती भी नहीं कह सकते इसे।
पूरा परिवार इस वक़्त संक्रमित है, दो अलग-अलग अस्पतालों में। चिंतित हैं वे- कैसे होगा सब? उन्हें इंतज़ार है काम हो जाने का। चिंतित होना स्वाभाविक भी है। लावारिस तो नहीं छोड़ सकते ना। जो चला गया वह घर का मुखिया था पर जिनके लिए कमा-कमा कर थकता नहीं था, जिनके चहरे की एक मुस्कान के लिए अपनी सारी प्लानिंग को पलक झपकते बदल देता था, उन्हें अंत में देख भी नहीं सका। और-तो–और, घर के चिराग़ से पाने वाली मुखाग्नि के बग़ैर जा रहा है।
उधर मेरी माँ कल तक जो जीवन के प्रति संवेदना का पाठ पढ़ाती रही आज वही माँ रोज़ हिदायत देती है, “यह समय इमोशनल होने का नहीं है बाबू! तू किसी को मुश्किल में देख कर कोई भी इमोशनल स्टेप मत ले लेना। समय बेरहम होने की बात कर रहा है। जीवन है तो सब है। समझ रहा है ना बेटा?”
“हाँ माँ! समय ही नहीं होता मेरे पास, सुबह से रात तक तो ऑफ़िस में होता हूँ ना! और दोस्त हैं ही कितने मेरे इस शहर में? दो डॉक्टर, बस! जिन्हें फ़ुर्सत नहीं है।” पर माँ अकेली है मुश्किलों में पाला-पोसा है उसने मुझे। अब अकेली उस शहर में रह रही है। एक पल को सोचता हूँ भगवान् ना करे पर कल को माँ को मदद की ज़रुरत पड़ी तो! दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है। नहीं, नहीं… बदलता हूँ मैं अपनी ही बात! आख़िर माँ भी कहाँ चाहती होगी मेरा यंत्रवत बन जाना। पर निर्दय होती परिस्थितियों से डरती है। माँ है ना!
बुरे ख़याल आने लगते हैं। मैं भी माँ का अकेला बेटा हूँ उसकी चिंताएँ भी वाजिब हैं। कल को मुझे कुछ हो गया तो उसकी जीवन भर की तपस्या? भलमनसाहत का ज़माना नहीं रहा इन दिनों। ये भी तो भलमनसाहत में ही मारे गए। क्या ज़रूरत थी इन्हें ये जानते हुए भी कि पड़ौसी दम्पति संक्रमित हैं तो उन्हें अपनी गाड़ी से अस्पताल पहुँचाने की? पर अपने ही ख़याल पर कोफ़्त हुई। जो ग़लती इन्होंने की वही आज मैं दोहरा रहा हूँ, इन्होंने तो दो लोगों की मदद की थी मैं तो यहाँ 40-45 जलती संक्रमितों चिताओं के दावानल के बीच कई घंटों से बैठा हूँ। क्यों? आत्मा के किसी बंद किवाड़ के खुलने की आवाज़ आती है- मैं अकेला तो नहीं हूँ। डॉक्टर, नर्स, ये कर्मचारी, सभी तो लगे हैं मानवता और इंसानियत की ख़ातिर।
बेचैनी बढ़ जाती है। इधर-उधर देखता हूँ, शायद अपने अन्दर उठते हुए उस सत्य से, उस प्रश्न से बचना चाहता हूँ। तो क्या मेरा अंत भी इसी तरह हो सकता है? होगा तो आगे क्या मैं भी यूँ ही एक पोटली की तरह…!!! सर झटक देता हूँ अपने ही विचार से बाहर आने के लिए। पर फिर लगता है, नहीं, मेरे और इनके जैसे लोग हैं अभी दुनिया में। दुनिया बेरहम नहीं हो सकती… तभी तो पूरा वैश्विक समाज लड़ रहा है मारमारी से, वरना फ़ुटपाथ और गुरुद्वारों में ऑक्सीजन के लंगर नहीं लग रहे होते? लोग सिलेंडरों के लिए घंटों खड़े नहीं रहते? पर सच यह भी है कि यह कहानी जितनी संवेदना और सकारात्मकता की है उससे कहीं ज़्यादा क्रूरता और निष्ठुरता की कथा भी कहती है। वरना गंगा मैया में अपने जीवन का सबसे खौफ़नाक मंज़र लोगों ने ना देखा होता। उन्नाव के वे दृश्य? जिन्हें देखकर टीवी बंद कर रिमोट ही तोड़ दिया था मैंने। उस दिन को याद करते हुए एक बार फिर उबकाई-सी आने लगी। खाना खाते हुए ही टीवी ऑन किया था और देखते ही उबकाई के साथ उलटी हो गई थी। कोरोना-काल का सबसे खौफ़नाक पहला दृश्य था वह। गंगा-घाट का वीभत्स दृश्य, इस सदी का सबसे पीड़ादायक नज़ारा- बक्सर में घाट पर महज़ 500 मीटर में अनगिनत लाशें रेत पर बिखरी पड़ी थीं। कोरोना से संक्रमित लोगों के शव नदियों में बहा दिए गए, जिन्हें कुत्ते नोच रहे थे और आसमान पर गिद्ध मंडरा रहे थे। कितना वीभत्स था वह सब देखना! उस रात अपने ही घर में था पर जैसे ख़ुद को किसी श्मशान में खड़ा महसूस करने लगा था। बाबा बहुत याद आये। रात पहली बार डर लगा था। पिता होते तो उनके पास लिपट कर सो जाता। माँ की क़ातर दृष्टि और मुरझाया चेहरा दिखने लगा जैसे मानो दिवार पर आकर चिपक गया था। माँ अकेली हैं वहाँ। यह चिंता और अकेले रहना उस दिन सज़ा जैसा लगा था। सारी रात अपने मित्र की कविता दिमाग़ में घूमती रही —-
हमने धरती को मारा
हमने हवा को मारा।
पहले,
हमने नदियों को मारा
और अब,
लाशों की नदियाँ बना दी…

उस रात व्यवस्थाओं को कोसता रहा। देश के आत्मसम्मान को कुचले जाने से आहत था मन। दुनिया के सामने हमारी विश्व-गुरु की छबि के टुकड़े पड़े देख रहा था मैं। मन-मस्तिष्क हमारे देश पर व्यंग्यों से आहत ज़ार-ज़ार रोता रहा था। उस रात सो नहीं पाया था। जाने कब सुबह-सुबह झपकी आई थी, नींद में महसूस हुआ कि फ़ोन बज रहा है। देखा तो फ़ोन सचमुच बज रहा था। घबरा गया था। ‘माँ…!’ आँख मलते हुए फ़ोन देखा तो माँ का नहीं था। एक राहत महसूस हुई। उस समय फ़ोन पर जो नाम दिखा था वो था- जया। कहने को नाम अनजान भी नहीं था। पर इतना भी परिचित नहीं कि अलसुबह फ़ोन किया जाए। हाँ, जब भी एक-दो बार आया तो लगा था कि जीवन के मोर्चों पर इस छोटे-से नाम से सुकून-सा मिला था। माँ के कहने पर संध्या मासी की इस रिश्तेदार का नंबर सेव कर लिया था। माँ ने कहा था, “संध्या बहुत कह रही है, देख आना एक बार।”, “ठीक है माँ।” कह कर बात छोड़ दी थी। एक दिन उधर से ही फ़ोन आ गया था तो चला गया था। सुसंस्कृत मध्यमवर्गीय परिवार, बैंक-परीक्षा की कोचिंग और तैयारी करती जया के परिवार से मिला था। साधारण-सा घर था, पर अच्छा और अपना-सा लगा सबसे मिल कर। नंबर तो सेव कर ही लिए थे। कभी एक-दो बार बात हुई या मैसेज शेयर किये थे, बस! सुबह-सुबह नाम दिखा तो शंकित मन से फ़ोन उठा लिया था…
उधर सिसकियाँ थीं… फिर क़ातर स्वर… “प्लीज़ हेल्प मी।”
“जी, बताइये क्या हुआ?”
“हम सभी कोविड संक्रमित हैं। पापा की रात भर से हालत बिगड़ रही है, क्या कोई वेंटिलेटर-बेड अरेंज करवा सकते हैं? प्लीज़ हेल्प मी…। मैं सारी रात अस्पतालों में ट्राय करती रही पर सभी जगह एक ही जवाब है…”
“मुश्किल है, पर मैं कोशिश करता हूँ।”
“प्लीज़ मेरे पापा को बचा लीजिये…’
“मैं देखता हूँ, कुछ देर में बताता हूँ।”
अस्पताल और दवाई के लिए इस शहर में एक ही नाम को जानता हूँ- स्कूल मित्र डॉ. देवेश।
देवेश मेरा फ़ोन उठा लेता है। वह नाइट-ड्यूटी करके निकल रहा था। वह आश्वासन देता है, कहता है- मैनेजमेंट से बात करता हूँ। वह शहर के बड़े अस्पताल में नौकरी करता है।
एक घंटे बाद उसका फ़ोन आता है, “यार इमिजियेट तो नहीं पर ग्यारह बजे के बाद एक बेड मिल सकता है। डिटेल्स भेज।”
वह पूछता है, “कौन है वे?”
“बताता हूँ, ज़रा डिटेल्स ले लूँ।”
जया को डॉ. देवेश का नंबर वाट्सअप करता हूँ, ‘जल्दी से इस नम्बर पर डिटेल्स भेजो।’
बारह बजे एक मैसेज आता है- ‘थैंक्स, एम्बुलेंस आई थी… पापा को ले गई।
फिर एक-एक कर घर के दो-दो सदस्य अलग-अलग अस्पतालों में चले गए।
फ़ोन पर और मैसेज से ख़बर लेता रहा। देवेश से रोज़ सूचना और हालात पता चलते रहे। पता चला, वे बैंक जाते हुए पड़ौस वाले बुज़ुर्ग-दम्पति को एम्बुलेंस नहीं मिलने पर अपनी कार से अस्पताल लेकर गए थे। हाथ पकड़ अस्पताल में एडमिट भी करवा आये थे। चार दिन बाद बुखार ने जकड़ा, तब तक माँ भी खाँसने लगी थी और संक्रमण पूरे घरवालों में फैल गया था। वे बुज़ुर्ग वैक्सिनेटेट थे। वे तो घर आ गए और ये सब अस्पताल। देवेश ने पूछा था, “कौन हैं? बता ना।”
“बताता हूँ यार, मिलेंगे तब बात करेंगे।”
तभी आवाज़ आती है- ‘टोकन नंबर 65… टोकन नंबर पैंसठ…’
ओह! मैं हड़बड़ा कर उठता हूँ, ज़ोर से बोलता हूँ- ‘आया…’
किसी ने कहा, “आया नहीं, ‘लाया’ बोलना चाहिए। ये इनका नंबर है।”
जया को मैसेज करता हूँ, ‘अभी पंद्रह मिनिट है लगभग। विडिओ पर आ जाओ आप लोग।’
सबको जोड़ता हूँ। डबडबाई आँखें मुझे दुःख का समंदर लगती हैं। दर्द की अनकही गर्जना मैं सुन रहा हूँ। चार दुःख के महासागर मेरे मोबाइल पर हिलौरे लेने लगते हैं। चार विंडो से आठ आँखें देख रही थीं। मैं सेनिटाइज़र डालता हूँ, नए ग्लव्ज़ पहनता हूँ। सुरक्षा-कवच वाली किट पहने हुए हूँ। हाथ काँपने लगते हैं… एक सम्पूर्ण परिवार मानों मेरे मोबाइल में समा-सा गया है। उनका, जो जा रहे हैं दुनिया छोड़कर, अपनी अंतिम यात्रा पर, अनंत यात्रा पर। बिदाई की घड़ी औचक सामने आन खड़ी हुई। अभी तो जीवन-संग्राम बाक़ी था। जाने कितनी चिंताओं को साथ ले जा रहे थे वे। उनका सम्पूर्ण परिवार एक मोबाइल-मात्र में समाहित हो गया और मैं, अपरिचित-सा, केवल एक मुलाक़ातवाला, उनके साथ हूँ! घर का इकलौता कमानेवाला जा रहा है। परिंदों का बड़ा-सा आकाश सिमट कर प्लास्टिक में बंद हो गया… उनके चहरे से मैं प्लास्टिक की चादर खोल देता हूँ, एक बार चेहरा दिखाने के लिए, अंतिम दर्शन के लिए। भय मेरे अन्दर भी व्याप्त है, संक्रमण का। पर कहीं पढ़ा हुआ याद करता हूँ- ‘चार-पाँच घंटे बाद वायरस मृत शरीर छोड़ देता है’ और इन्हें तो अब लगभग दस घंटे हो चुके हैं। मोबाइल में पहली विंडों में है सुबकती हुई जया, इनकी बड़ी बेटी, जो अपने पापा की तरह बैंक में जाना चाहती है, दूसरी विंडों में उनकी चीख़ कर बेहोश होती पत्नी, जो ऑक्सीजन पर किसी दूसरे अस्पताल में हैं। तीसरी विंडों में है उनका 14 साल का ऑटीज़म पीड़ित बेटा, जो सिर्फ़ टकटकी लगाये देख रहा है और चौथी विंडो में है मँझली बेटी, जिसे पापा डॉक्टर बनाना चाहते थे। चादर हटाने के बाद उनका चेहरा मैं भी देखता हूँ, पहली बार…। चेहरा बीमारी में सिकुड़ गया है, जैसे हवा ना मिलने पर पिचक जाता है सुन्दर गुब्बारा…। मस्तक पर कई सिलवटें हैं शायद। मुझे शांत सोये चहरे पर भी बेचैनी दिखती है। सिलवटें तो पक्का दिख ही रही हैं। तीन बच्चे… तीन समानांतर सिलवटें…। बेटी के विवाह की चिंता-रेखाएँ, शिक्षा के अधूरे ख़्वाब…, मासूम नासमझ बेटे के भविष्य की चिंता-रेखाएँ। पत्नी को मझधार में छोड़ने की पीड़ा का ज्वार उनकी मुरझाई त्वचा और चहरे की चमक को कैसे लील गया है! मकान अभी अधूरा है। गृहस्थी भी अधूरी रह गई। कौन जाने अन्दर कितनी पीड़ाएँ और भी शेष हैं!

बार-बार माँ के शब्द स्मृति में उभरते हैं। वो मुझे दो दिन पहले मना कर चुकी हैं, “यह रिश्ता अब नहीं करना हमें। समझ रहा है ना? जवाबदारियों का बोझ ताउम्र रहेगा, बचपन से वही तो झेल रहा है तू।” संध्या मासी ने माँ को बता दिया था शायद। मैं एक बार उन सब को देखता हूँ। जया गर्दन से इशारा करती है। मैं म्युन्सिपालटी के आदमी को रजिस्टर में जानकारी भरवा रहा हूँ, ख़ानापूर्ति के लिए कल मृत्यु प्रमाण-पत्र लेते वक़्त लगेगी। जया पिता का नाम, पता आदि समस्त विवरण बताती जा रही है। अंत में वह आदमी पूछता है, “आप कौन हैं इनके? साइन करिए और रिश्ता लिखिए।”
मैं जया की तरफ़ देखता हूँ। कृतज्ञता के बोझ से उसकी डबडबाई आँखों में मुझे अपना ही अक्स दिखता है। रुलाई से उसकी पलकें बंद हो जाती हैं, आँसू की एक बूँद टपकती है और वह कहती है, ‘कोई परिचित हूँ, यही लिखवा दीजिये।’
मैं हस्ताक्षर करने से पहले उस कॉलम में लिखने के लिए कहता हूँ, “लिखिए ‘सन-इन-ला’… और हस्ताक्षर कर देता हूँ।