बात बोतल की: सरकारें नीतियां बदलती हैं, नीयत नहीं!

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‘मंदिर मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला’ प्रख्यात कवि हरिवंशराय बच्चन ने ये पंक्तियां लिखते वक्त शायद मप्र की ‘शराब नीति’ को बहुत पहले भांप लिया था। ये बात इसलिए क्योंकि शिवराज सरकार की नई शराब नीति पर पूर्व मुख्‍यमंत्री व कांग्रेस नेता कमलनाथ ने लगभग वैसी ही टिप्पणी की है, जैसी कि वर्तमान मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह ने तत्कालीन सीएम कमलनाथ की दो साल पहले घोषित शराब नीति पर की थी। नई शराब नीति पर कमलनाथ ने कहा ‘आज प्रदेश की जनता सरकार से त्रस्त है।

ऐसे में मुख्‍यमंत्री के पास एक ही रास्ता बचा है कि आम जनता को ‘पिलाओ और सुलाओ’ ताकि वह सच्चाई न जान सके। दो वर्ष पूर्व जब कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने ‘जनहित’ में शराब सुलभ कराने का फैसला लिया था तो इस नीति के तहत तत्कालीन सरकार ने हर शहर में 5 किमी और गांव में हर 10 किमी की दूरी पर शराब की उपदुकाने खोलने को मंजूरी दी थी। यानी कहीं‍ किसी को दिक्कत न हो। तब शिवराजसिंह चौहान ने कहा था कि कमलनाथ सरकार गली-गली में शराब की दुकाने खोलने जा रही है ताकि ‘पीयो और पड़े रहो।‘ किसान कर्ज माफी और बेरोजगारी भत्ते के बारे में सरकार से सवाल कर सकें। इस बीच एक और पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने शिवराज सरकार की ‘सर्व सुलभ’ शराब नीति के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वो राज्य में पूर्ण शराबबंदी की मांग कर रही हैं। इस मुद्दे पर विपक्षी कांग्रेस उमा भारती के साथ है, वही कांग्रेस जिसके द्वारा शासित किसी राज्य में शराबबंदी लागू नहीं है, उल्टे शराब से आय बढ़ाने के नए तरीके खोजे जा रहे हैं।

नेता कुछ भी कहें, लेकिन मध्यप्रदेश में सरकारें हमेशा ‘जनहित’ में ही सोचती हैं, यह बात पूर्ववर्ती कांग्रेस और वर्तमान भाजपा सरकार ने साबित की है। दोनो सरकारों की आबकारी (शराब) नीतियों में समान सूत्र यह है कि एक तो पियक्कड़ों को किसी तरह की परेशानी न हो। दूसरे शराब की आय से सरकार का खजाना भरता रहे। रहा सवाल इससे जुड़े सामाजिक और आपराधिक प्रश्नों का तो जनता खुद निपटे। यूं शराब नीति किसी भी मुख्यमंत्री के कार्यकाल की हो, छलकते जाम की तरह हंगामे का कारण बनती ही है। इस मामले में हर सरकार अपने से पूर्ववर्ती की तुलना में ज्यादा ‘दिलदार’ दिखने  की कोशिश करती है।

मप्र की नई शराब नीति में भी वही ‘सुरूर’  और कुछ ‘नवाचार’ भी है। मसलन मध्यप्रदेश में अंग्रेजी शराब 10 से 13 फीसदी तक सस्ती होगी। 1 करोड़ रू. तक की आय वालों को होम बार लाइसेंस मिलेगा। देशी विदेशी शराब अब एक ही दुकान पर मिलेगी। यानी शराब और दारू के बीच भेदभाव खत्म। चाहे तो इसे ‘सुरा समता’ कह लें। इससे ठर्रा पीने वालो में ‘हीन भावना’ स्वत: खत्म होगी। प्रदेश में शराब सस्ती करने के पीछे सरकार का तर्क है कि जब  ‘वैध’ शराब ही सस्ती मिलने लगेगी तो सस्ती के लोभ में लोग ‘अवैध’ शराब क्योंकर पीएंगे?

राज्य में शराब एयरपोर्ट, माॅल आदि उन तमाम जगहों पर आसानी से मुहैया होगी, जहां भी यह अपेक्षित है। इससे बेहतर लोक कल्याण की भावना क्या होगी? यह नई शराब नए वित्तीय वर्ष 2022-23 से लागू होगी। नई नीति में एक और अच्छी बात आदिवासियों को महुए से शराब बनाने की अनुमति है। इसकी मार्केटिंग ‘हेरिटेज शराब’ के रूप में की जाएगी। शराब में लाख बुराइयां हों, लेकिन परंपरागत देसी शराब आदिवासियों की संस्कृति का हिस्सा रही है। इसमें दो राय नहीं। सरकार का मानना है कि इस वैध शराब निर्मिती से आदिवासियों के लिए रोजगार के नए अवसर खुलेंगे। महुआ के अलावा गुड़ और जामुन से भी शराब बनाने की अनुमति मिलेगी। अब कांग्रेस भले विरोध कर रही हो, लेकिन उसी पार्टी के विधायक लक्ष्मणसिंह ने इस नीति की अच्‍छाइयां चीन्हते हुए उम्मीद जताई  कि  यह और अधिक रोजगार उपलब्ध कराएगी। साथ ही वर्षों से चल रहे (शराब ठेकों पर)  चंद लोगों का ‘एकाधिकार’ समाप्त भी करेगी।

कुल मिलाकर बात दृष्टि की है। कहते हैं कि शराब पीने से आंखें ‘चढ़’ जाती हैं, लेकिन नई शराब नीति आंखें ‘उतारने’ वाली हैं। पीने वाले अब कोई शिकायत नहीं कर सकते। एक सरकार इससे ज्यादा और क्या कर सकती है। घर तक में बार की छूट मिल गई है। यह बात अलग है कि इसके लिए 1 करोड़ रू. सालाना आय की दरकार है। जिसकी आय माहाना 3 हजार रू. से भी कम हो, उसके लिए सरकारी ठेके का ही भरोसा है।

यूं उमा भारती ने पिछले साल भी नई शराब नीति को लेकर मोर्चा खोला था। परिणाम स्वरूप शिवराज सरकार ने नई आबकारी नीति को आगे ठेल दिया था। लेकिन इस बार वो अपनी बात पर अडिग दिखे और न सिर्फ सस्ती शराब की नीति लेकर आए बल्कि शराब दुकाने दोगुनी करने का साहस भी ‍िदखाया। उमा भारती ने चेतावनी दी है ‍िक यदि शिवराज सरकार ने शराब बंदी नहीं की तो वो सड़कों पर उतरेंगी। यह बात अलग है कि शराबियों और सड़कों का भी अलग नाता है। ज्यादा हो जाने पर कई पियक्कड़ सड़क पर लोटने लगते हैं। अब नई शराब नीति घोषित हो जाने के बाद उमा भारती आगे क्या सियासी कदम उठाती हैं, यह देखने की बात है। कुछ लोगो का मानना है कि उमाजी के लिए ‘नशाबंदी’ सामाजिक मुद्दा भले हो, लेकिन सियासी जानकारों के मुताबिक इसका असल मकसद ‘राजनीतिक पुनर्जीवन’ का प्रयास है।

एक वो भी जमाना था, जब मुख्यमंत्री शिवराज ने ऐलान किया था कि नर्मदा किनारे पांच किलोमीटर से कम दूरी पर कोई शराब की दुकान नहीं खुलेगी। लेकिन वो प्रदेश में  ‘नर्मदा परिक्रमा’ की राजनीति का दौर था। रात गई, बात गई। नर्मदा मैया ने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा। यह बात दूसरी है कि शराब और रात का घनिष्ठ रिश्ता रहा है। रात में ‘दो घूंट’ पीने का जो मजा है वो दिन में बोतल चढ़ाने से भी शायद आए। सरकार का बस चले तो रात को भी शराब नीति के साथ नत्थी कर दे। यूं सरकार किसी की भी हो, शराब नीति लाई इसी दावे के साथ लाई जाती है कि इससे सबका भला होगा। सबका बोले तो पीने वालों का, मदिरा बेचने वालों का, शराब की बिक्री से भरने वाले खजाने का, अवैध शराब पर छापे मारने वालों का और सबसे बड़ी बात इस जालिम दुनिया के सताए लोगों के पीकर गलत होते गम का। और फिर शौकीनों की नजर में तो शराब ‘अंगूर की बेटी’ है।

ऐसे में यह समझना कठिन है कि इस कल्याणकारी शराब नीति का उमा भारती विरोध क्यों करने जा रही हैं?

खुद उनकी अपनी पार्टी में ही कोई उनका साथ नहीं दे रहा। और क्यों विपक्ष में बैठी कांग्रेस उनकी पालखी उठाने जा रही है? खासकर तब कि जब कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार ने हाल में फिर से शराब की ऑनलाइन बिक्री और होम डिलीवरी शुरू करने का ‘जन हितैषी’ फैसला लिया है। यही नहीं, छग सरकार पड़ोसी झारखंड राज्य की भी ‘शराब’ के मामले में ‘पड़ोसी धर्म’ निभाने जा रही है।

इसका अर्थ ये कि राजनीतिक दलों को ऐतराज शराब पर नहीं, शराब नीति बनाने वाली विरोधी सरकारों पर रहता आया है। इसीलिए मध्यप्रदेश में ‘घर घर’ शराब पहुंचाने वाली भाजपा छत्तीसगढ़ में नई शराब दुकाने खोलने के खिलाफ आंदोलन कर रही है। दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि प्रदेश में अवैध शराब का कारोबार बदस्तूर जारी है। हात भट्टी की बनी पीकर लोग मर रहे हैं। ये वो लोग हैं, जिनके पास नई शराब नीति लागू होने तक का इंतजार करने का वक्त नहीं है। मुख्यमंत्री किसी को नहीं छोड़ूंगा की चेतावनी देते जा रहे हैं।

वैसे भी मप्र में अंग्रेजी शराब की खपत पिछले दस सालों में औसतन 23 फीसदी की दर से बढ़ रही है। मप्र वासी हर साल लगभग 5 करोड़ लीटर दारू गटक रहे हैं। नई नीति के बाद इसका ग्राफ बढ़ना तय है। गौरतलब है कि राजधानी भोपाल में एक शराब ठेकेदार ने अभिजात्य भाव से ‘दारू की दुकान’ को ‘लिकर लायब्रेरी’ नाम दे दिया था। इसके बाद किताबों की लायब्रेरी में जाने वाले तमाम लोग हीन भावना से ग्रस्त हो गए थे। इसका काफी विरोध हुआ तो ठेकेदार ने दुकान का नाम बदला। लेकिन नाम से क्या फर्क पड़ता है। बच्चनजी ने जिसे ‘मधुशाला’ कहा, उसका मतलब तब भी ‘दारू की दुकान’ ही था और आज भी वही है। दारू के मामले में सरकारें नीतियां बदलती हैं, नीयत नहीं।