
शिक्षक दिवस पर विशेष-
Teacher’s Day: हम दोनों चौरे बहनजियों ने गाँव में अलख जगाई
डॉ. सुमन चौरे
मेरी नौकरी-
सत्ताइस सितम्बर सन् तिहत्तर फिर याद हो आया, बादल कह रहे थे, ‘मैं ही बरस लूँ’ और मेरी आँखें कह रहीं थी, हम ही बरस लें। घड़ी ही इतनी करुण थी। पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाई, लग रहा था हृदय फट ही जायगा। क़दम आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। ‘‘मान जाओ बहेनजी, ओ बहेनजी, मत जाओ ना! हम तुम्हारा हर कहा मानेंगे। पक्की पट्टी भरकर लिखेंगे, पक्की बात,’’ कहते हुए, मनाते हुए कोई साड़ी खींच रहा था, तो किसी किसी बच्चे ने चूड़ी में उँगलियाँ डालकर हाथ पकड़ लिया था, कोई क़दम उठते चप्पल पर पैर रखकर खड़ा हो गया। फिर वही, ‘‘मत जाओ, ओ बहेनजी…।‘‘ आज भी वह दृश्य इस तारीख़ को दिन भर आँखों में घूमता है।
खण्डवा-इंदौर रेलवे लाइन के इस पार शहर और उस पार अनाथालय और उसका स्कूल। दो महिने सत्ताइस दिनों में जाने क्या हो गया, कि बच्चे मुझे छोड़ ही नहीं रहे थे। अनाथालय परिसर के बाहर न निकलने का नियम तोड़ वे बच्चे किसी के रोके नहीं रुक रहे थे। रेल की पटरी पारकर मेरे पीछे दौड़ पड़े। मुझे लगा, क्या राम-वन-गमन की घड़ी भी ऐसी ही रही होगी।
चारों तरफ़ बादलों की मार। आँखों के जल से भीगते बच्चे अनाथालय के चपरासी की कड़ी ललकारों पर ही लौट पाए। पर, मैं तो लौट ही नहीं पाई। लग रहा था, छोड़ दूँ इस सरकारी नौकरी का प्रलोभन और लौट जाऊँ उन बच्चों के पास। किन्तु कर्तव्य बोध इधर भी भारी था। मेरे जीवन के लिए यह सरकारी नौकरी निहायत ज़रूरी थी।
मैं घर पहुँची, सबने बड़ा हर्ष जताया, ‘चलो नई नौकरी की सुखद बधाई।’ मैं कुछ नहीं बोली, मन बेचैन हो रहा था, न भोजन भाया और न रात को नींद आई। पूरी रात द्वंद्व चलता रहा। हल्की-सी नींद लगी, सुबह उठी। मन में एक संकल्प लिया- ‘‘जहाँ भी नौकरी करूँगी, ऐसा व्यवहार करूँगी कि उस स्कूल को छोड़ने पर भी बच्चे ऐसे ही विछोह महसूस करें।‘‘

नई सरकारी नौकरी के लिए खण्डवा से कोई तीस-पैंतीस किलोमीटर दूर एक गाँव था सिंगोट। प्रातः साढ़े आठ की बस ‘गांधवा-खण्डवा’ मिली। सिंगोट के स्कूल में शिक्षण का कार्यभार ग्रहण करना था। मैं पहली बार इस मार्ग पर आयी। चार-पाँच छोटे-छोटे गाँवों के बाद सिंगोट आया। गाँव के बस स्टाप पर चाय-पान की दुकान पर एक वृद्ध बैठे थे। मैंने उनसे पूछा, ‘‘यहाँं का सरकारी स्कूल कहाँ है।’’ उन्होंने हाथ से इशारा कर कहा, ‘‘वो नाला पार बड़ा स्कूल और गाँव पार छोटा स्कूल।‘‘ इतनी देर में ही मेरे आसपास थैलियों के बस्ते टाँगे, बिना चप्पल जूते के बारह-पंद्रह बच्चे इकट्ठे हो गए। न वे कुछ मुझसे बोले और न ही मैंने उनसे कुछ बात की। वे तीन-चार टोलियाँ बनाकर मेरे आगे पीछे चलने लगे। मैं उनकी बातें सुनती जा रही थी। वे धीरे-धीरे से बोल रहे थे, ‘‘काल गीते गुरुजी के रहे थे, नई बेनजी आयेगी…।’’ कोई बोल रहा था, ‘‘नई रे, ये तो छोरी जैसे लग रही है। दूसरी बेनजी आती होयगी…।’’ कोई बोला, ‘‘धीरे बोल, ये कदि एज हुई तो?, अपनी चौरे बेनजी भी तो छोरी जैसेज है, पर अच्छा पढ़ाती है ना। वैसेज कदि ये भी अपनी बेनजी होयगी तो अच्छाज पढ़ायगी।’’ पीछे की दूसरी टोली का एक लड़का जल्दी से दौड़कर आगे की टोली में आकर बोला, ‘‘सच्ची रे, कदि अपनीज बेनजी होय, तो कित्ता अच्छा होय। अच्छी लग रही है।’’
इस बीच, कभी मुझे कल छोड़े उन बच्चों का रुदन ‘मत जाओ बैनजी’ सुनाता, तो कभी यह कि अच्छा होय ये अपनेज स्कूल में आ जाय और अपनेज को पढ़ाए‘। पुनः विछोह-मिलन की लहरों के साथ मैं स्कूल तक आ गई। स्कूल की ओर जैसे ही मुड़ी, बच्चों का एक टोल कबड्डी मारकर स्कूल के दरवाजे पर पहुँच गया और वे बड़े गर्व से बता रहे थे दूसरे बच्चों को कि ये बहनजी हमने मोटर स्टॅण्ड पर ही देख ली थी।
स्कूल बिल्डिंग में पूरा सरकारी मुहक़मा ही था। एक लम्बा बड़ा-सा हालनुमा कमरा, सीमेंट की चादरें बिछी छत, उसके एक खण्ड में लिखा था-‘शासकीय बालक माध्यमिक शाला, सिंगोट’, दूसरे खण्ड के बीच के हिस्से में लिखा था-‘पंचायत कार्यालय’ और कोने वाले हिस्से में लिखा था- ‘शासकीय पशु चिकित्सालय, सिंगोट’। उस दिन प्रार्थना की पंक्तियाँ बना इधर प्रार्थना प्रारंभ हुई और उधर दस क़दम की दूरी पर बैल को रस्सों से बाँधकर चार लोग रस्सा पकड़े खड़े थे। उसके पैर के ख्ुरों में काटा घुस गया था। वह दर्द से इतनी बुरी तरह कराह रहा था कि मुझे प्रार्थना के शब्द भी नहीं सुनाई दिए। हमारे प्रधान अध्यापक सिद्धिक़ी सर ने कहा, ‘‘बहेनजी, इतनी दुःखी होने की बात नहीं। ये तो जानवरों का अस्पताल है, यहाँ तो रोज ऐसा ही होता हैं, यही नज़ारा रहता है।’’
सिद्धिक़ी सर ने प्रार्थना में मुझसे सबका परिचय करवाया और बच्चों को मेरा परिचय दिया। बच्चे आश्चर्य से बोल उठे, ‘‘अरे हर बेनजी चौरे ही होती है क्या?’’ मुझे समझ नहीं आया, वे क्यों ऐसा बोल रहे हैं।
मैंने कार्यभार ग्रहण किया। सिद्धिक़ी सर ने अपने स्टाफ़ का परिचय कराया। संयोग से श्री गीते गुरुजी को छोड़कर सिद्धिक़ी सर, मैं, और हम सब एक माह के अंतराल में ही नई नियुक्ति वाले थे। पर सिद्धिक़ी सर हैडसर थे। उनमें एक चौरे बहनजी भी थी। अब समझ में आया, एक महीने पहले आई बहनजी भी चौरे ही थी।
बच्चों ने हमारे डील-डोल से हमारा नामकरण कर दिया था। छोटी चौरे बहनजी और बड़ी चौरे बहनजी। मैं बड़ी चौरे बहनजी कहलाती थी। मुझे सातवीं कक्षा सौंपकर सिद्धिक़ी सर बोले, ‘‘मैं अब फ्री हो गया। बाहर के बहुत काम रहते हैं। यहाँ की प्राथमिक कन्या शाला का भार भी मुझ पर ही है। दूसरा वेतन केन्द्र, बलवाड़ा, तो जिला शिक्षा कार्यालय, खण्डवा का काम भी ही मुझे देखना पड़ता है।’’ इस पर गीते गुरुजी और चौरे बहनजी एक-दूसरे की ओर देखकर मुस्करा दिए। मुझे समझ आया, शायद हैड सर कुछ ज्यादा ही बोल रहे हैं। एक लम्बी गली से कमरे के बीचोंबीच एक स्टैंड वाला ‘ब्लेक बोर्ड‘ रखा था, इससे कक्षा विभाजन हो गया था। एक तरफ़ बोर्ड पर छठवीं और दूसरी तरफ़ सातवीं लिख दिया गया था। आठवीं कक्षा हेडसर की टेबिल-कुर्सी के आसपास लगती थी। महिला शिक्षिकाओं को लघुशंका के लिए आसपास के किसी घर में जाना पड़ता था। पुरुष शिक्षक बाहर कहीं भी बैठ जाते थे। गाँव में किसी के घर भी शौचालय नहीं था।
प्रार्थना के बाद ‘हैड सर‘ की टेबिल पर हरी-हरी लम्बी छड़ियाँ आ जाती थीं। बच्चों की हाज़िरी हुई कि स्वयं हैडसर छड़ी रखकर जाते-जाते कह जाते, ‘‘बहनजी इसके बिना पढ़ा नहीं पाओगी। हाथ में रखो।‘‘ मेरी छड़ी वैसे ही टेबिल पर रखी रहती। मुझे कभी-भी इसकी ज़रूरत नहीं पड़ी। हैड सर की इस हिदायत पर मुझे पहली बार स्कूल आते समय रास्ते में हो रही बच्चों की चर्चाओं के अंश भी याद आ रहे थे। बच्चे चलते-चलते कहते जा रहे थे, ‘‘अरे अच्छा होय, ये बेनजी आ जायँ, ऐसी तो नहीं दीखती कि सोटी मारेगी। सर तो बहुत ही मिला-मिलाकर देते हैं यार…।’’
शाला में आसपास के गाँवों से आने वाले बच्चों की ही संख्या अधिक थी। लड़कियाँ पाँचवीं के बाद नहीं पढ़ती थीं। मात्र तीन-चार छात्राएँ ही थीं। हम दोनों चौरे बहनजियों ने गाँव में अलख जगाई। आधी छुट्टी में गाँव के उन घरों में जाकर उनके माता-पिता से सम्पर्क करते जिनकी बच्चियाँ पाँचवीं के बाद घर बैठ गईं थी। हमारे प्रयास और हममें माता-पिताओं की आस्था के कारण शाला में बालिकाओं की संख्या में अच्छा इज़ाफ़ा हुआ था।
गाँव के सरल भोले भाले बच्चे मुझसे इतने हिल-मिल गए कि अनियमित आने वाले बच्चे भी अब नियमित हो गए थे। मासिक उपस्थिति इसका प्रमाण था।
सन् तिहत्तर तो आज के समय से बहुत दूर चला गया। पर अभी भी जब कभी पुराने साथी मिलकर बैठते हैं, तो सिंगोट की बातें ज़रूर होती है। सब कहते हैं, ‘‘जीमने (भोजन) की बात करो।’’ दरअसल हम दोनों चौरे बहनजियाँ और गीते गुरुजी ब्राह्मण रहे। गाँव के लोगों में तब शिक्षकों के प्रति विशेष श्रद्धा होती थी। हम लोग शिक्षक भी और ऊपर से ब्राह्मण भी। हमें श्राद्ध पक्ष के निमंत्रण भी खूब मिलते थे। आधी छुट्टी में पूरा स्कूल खाली हो जाता था। सब लोग जीमने चले जाते थे मय छात्रों के। फिर वार-व्रत-त्योहार पर्वों पर हम चौरे बहनजियों को सुहागन जीमने भी बुलाते थे। हम दोनों ही विवाहित थे। वहाँ के कुछ परिवारों का तो इतना स्नेह था, कि छुट्टी के होने से पहले वे संदेश भेज देते थे-‘‘चौरे बहनजी! कल आप दोनों खाने का डिब्बा मत लाना। कल हमारे घर अमुक पर्व पर भोजन बनेगा, यहीं खाना।’’ चार बड़ी ग्यारसों के दूसरे दिन गॉँव में किसी न किसी के घर ब्राह्मण भोज होता ही था। हमारे साथ-साथ गीते गुरुजी भी जाने लगे। रही बात ‘हैड सर‘ की, तो वे कहते थे, ‘‘मैं हैड सर हूँ, स्कूल नहीं छोड़ सकता, कोई आ गया तो?’’ इस स्थिति में उनके लिए हमलोग ‘टिफ़िन भर के ले आते थे।
जब गुड़ बनना शुरू होता था, तब पटेल या बड़े किसान, जिनका बड़ा व्यापार था, वे कहने आते थे स्कूल में-‘‘गुरुजी गुड़ बनेगा। गन्ना पिल रहा है, राब रस पीने बाड़ी आइए।’’ स्कूल-समय पूरा होने पर ही हम सब जाते थे। यह तो गाँव वालों की शिक्षकों के प्रति आदर और श्रद्धा का भाव था।
मुझे पढ़ाने में कोई अड़चन नहीं आई। मैं छठवीं, सातवीं और आठवीं को हिन्दी और संस्कृत पढ़ाती, थी साथ में सामाजिक अध्ययन भी पढ़ाती थी। खाली पीरियड का सवाल ही नहीं होता था, बल्कि कभी-कभी तो दो कक्षाओं को एक साथ बैठाना पड़ता था। गीते गुरुजी स्कूल का लिखा-पढ़ी का काम भी करते थे। हैडसर तो कभी वेतन केन्द्र, तो कभी कन्या शाला, तो कभी जिला शिक्षा केन्द्र का नाम लेकर खण्डवा आ जाते थे। जब आठवीं बोर्ड और छठवीं-सातवीं का रिज़ल्ट आया तो मुझे स्वयं को भी बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ कि मेरे छात्रों का सौ प्रतिशत रिजल्ट आया, उस पर भी सर्वोच्च अंक। हैड सर कहते, ‘‘देखा मेरी छड़ी का जादू।’’ हमने कहा, ‘‘आपकी छड़ी को तो हमने कभी छुआ भी नहीं सर।’’
सिंगोट स्कूल की एक घटना मेरे लिए रोमांचक भी रही और अविस्मरणीय भी रही। कक्षा में कुछ बच्चे औसत उम्र के थे; किन्तु कुछ बच्चे तो बहुत ही बड़े थे। ये बच्चे वही होते थे, जो नियमित शाला नहीं आते थे। मेरी सातवीं कक्षा का एक छात्र था ‘त्रिलोकी चंद‘। वह मुझसे भी बड़ा, ऊँचा भी और उम्र में भी बड़ा। माँ बाप का इकलौता बेटा था। दूसरे गाँव से आता था। कभी लगातार तीन दिन भी नियमित नहीं आता था। फेल होते-होते वह बड़ा हो गया था। एक दिन वह कक्षा में इतनी अधिक मस्ती कर रहा था कि मैंने उसकी पीठ पर दो थप्पड़ जड़ दिए। वह अपने गले में लाल रंग की पतली श्यापी (गमछा) लपेटता था। उसने उस गमछे को गले से निकाला, सिर पर बाँधा और बस्ता उठाकर भाग गया। लड़के बोले, ‘‘अरे बैनजी, आपने इसको क्यों मारा। इक्कीस साल से ज्यादा का है। परण्या (विवाहित) भी है। बड़ा ख़तरनाक है। गीते गुरुजी पर भी सामने खड़ा हो जाता है।’’ बच्चों की बातें सुनकर मैं थोड़ी परेशान हो गई। मुझे लगा, ऐसा न हो कहीं ग़लत काम कर बैठे या मुझको रास्ते में मारे। पहली नौकरी थी। उस दिन मैंने प्रण किया कि मैं किसी को भी हाथ नहीं लगाऊँगी। गाँव के बच्चे हैं, मार की तो इन्हें आदत रहती है। उससे मैं बहुत परेशान हुई थी, तो उस दिन उसे मार दिया। वैसे कभी भी मैं बच्चों को मारती नहीं थी।

मैं बहुत चिंतित हुई। मैंने चौरे बहनजी और गीते सर को बताया। उन्होंने कहा, ‘‘अरे, यह इतनी चिंता की बात नहीं है।’’ वह बच्चा जब दो दिन, तीन दिन, यहाँ तक कि पाँच दिनों तक नहीं आया। वह पास के एक गाँव से आता था। मैंने उसके साथ आने वाले बच्चों से पूछा, तो वे भी बोले, ‘‘बेनजी, त्रिलोकी तो उस दिन के बाद से गाँव में भी नहीं दिखा।’’ इस सूचना से मुझे बेहद बेचैनी हुई कि उसके पिता आकर मेरी ही शिकायत करेंगे। मेरी नौकरी छूट जायगी। क्या होगा?
छठवें दिन वह बच्चा प्रार्थना के बाद आया। मैं हाज़िरी ले रही थी। उसने मेरे टेबेल पर बड़े-बड़े अनार लाकर इतनी जोर से पटके, जैसे पत्थर पटक रहा हो। मैं अचम्भित रह गई। कुछ क्षणों बाद मैंने उससे पूछा, ‘‘त्रिलोकी तुम स्कूल से चले गए। न छुट्टी का आवेदन दिया और न ही कह कर गए, कहाँ गए थे?’’ वह बड़ी जोर से हँसा और बोला ‘‘बेनजी मिट्ठे अनार हैं, खाओ। मेरे अँगने के हैं। मैं तो स्कूल से कह कर जाना चाहता था, पर हैड सर छुटटी नहीं देते।‘‘ वह आगे बोला, ‘‘असल बात यह है बेनजी, देखो मेरे कान में इतर का पोहा लगा है, मैं तो नाई ठाकुर ठहरा। मेरे गाँव के दरबार के बेटे की बरात जानी थी। उनका बेटा मेरा बचपन का दोस्त है। उसने मेरे से कहा था कि मेरी बरात में तू ही नाई ठाकुर रहना। बेनजी, स्कूल का क्या, दस साल में तो छह कक्षा पास की। करना तो हजामत का काम ही है। मेरे बाप-दादा चाहते हैं कि मैं स्कूल जाऊँ। मेरे ससुर को भी मुझ पर नाज़ है कि मैं स्कूल जाता हूँ। बरात में दुल्हे के नाई ठाकुर की बड़ी आव-भगत होती है बेनजी। मैं कोई आपकी मार से थोड़ी भागा था। असली में मैं बहाना ढूँढ़ रहा था कि कैसे भागूँ? वह बहाना मिल गया।’’
वह आगे बोलते जा रहा था, ‘‘देखो बैनजी, आठवीं तो पास होऊँगा नहीं। तीनेक साल और पढ़ लूँ। काम तो ठकुराई का ही करना है। देखो दुल्हे के ससुराल से न्यौछावर में चाँदी की यह माला मिली है। तीन-जोड़ कपड़े मिले, एक दुल्हे के घर से, एक उसके मामा की चीगट से, एक दुल्हन के घर से और न्यौछावर तो बहुत मिली बेनजी, वे बड़े आसामी हैं, अपने जैसे मही रोटा थोड़ी खाते हैं। शादी में रोज पाँच दिन छककर पकवान खाये। काम क्या था, दुल्हे पर चवर ढुलाना। आपको मेरे भागने की चिन्ता हुई क्या? लेवो आपका खून सूख गया होगा, तो ये लाल-लाल अनार खाओ, खून बढ़ेगा।’’ उसने अपने दोनों हाथों से अनार को ऐसे दबाया कि मेरे ऊपर लाल रंग की पिचकारियाँ छूट गइंर्।
त्रिलोकी ने चरण छूकर माफ़ी माँगी, ‘‘बेनजी अब बिना सूचना के घर नहीं रुकूँगा।’’ आपको तकलीफ दी, क्षमा करो।’’
बहुत रोमांचक प्रसंगों के बाद मैं सिंगोट से बदली होकर बिदा हो रही थी, फिर खण्डवा के अनाथालय वाले स्कूल का दृश्य उपस्थित हुआ। बस स्टैंड तक बच्चे घेरकर रोक कर चल रहे थे। कह रहे थे, ‘‘मान जाओ बेनजी, बदली रुकवा लो। यहीं कमरा ले लो, रोज-रोज के जाने आने से थक जाते हैं। हम अपने घर से दाल आटा ला देंगे…।’’ लड़कियाँ बोल रहीं थी, ‘‘बेनजी, हम रोटी बना देंगे।’’ यहाँ की बेटियों की माँ लोगों ने कहा, ‘‘बेनजी हमारे घर रह लो, शनिवार-रविवार चले जाया करना। फिर सोमवार आ जाना। आप के आने से हमारे गाँव में रौनक आ गई। बच्चों में पढ़ने की ललक जाग गई।‘‘
मोटर में बैठते-बैठते फिर वही अवसाद। बच्चों का बिछोह। कभी नन्हें-नन्हें अनाथालय के बच्चे, तो कभी भोले-भाले सिंगोट के बच्चे मन को रुला रहे थे। मन हुआ बदली निरस्त करवा लूँ, किन्तु यहाँ भी वही विवशता, छोटी बच्ची को छोड़कर दूर आना पड़ता था। अतः खण्डवा में ही स्थानांतर करवाना पड़ा। आगे नौकरी से निवृत्ति के अवसर पर भी, शासकीय नूतन सुभाष उच्चतर माध्यमिक शाला, भोपाल के ग्यारहवीं-बारहवीं के बच्चे बिदा करते कह रहे थे, ‘‘मत जाओ मेडमजी, नौकरी बढ़वा लो।’’

डॉ. सुमन चौरे
13, समर्थ परिसर,
ई-8 एक्स्टेन्शन, बावड़िया कला,
पोस्ट ऑफ़िस त्रिलंगा,
भोपाल – 462039
मो : 09424440377
09819549984
09893027235





