हाल ही में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम घोषित हुए हैं और बनी हुई सरकारों पर अब जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने की कवायद शुरू होगी।
हमारे देश में लोकतंत्र के ऐसे उत्सवों में जनमानस से लेकर मीडिया तक पूरी तरह सराबोर हो जाते हैं और अधिकारी गण इसके साथ ही चैन की साँस लेते हैं कि चलो जिम्मेदारी पूरी हुई।
नौकरी में हमें हर तरह के चुनाव देखने को मिले, कभी चुनाव कराने वाले अधिकारी और कभी आयोग के प्रतिनिधि के बतौर प्रेक्षक की भूमिका में।
प्रेक्षक की ज़िम्मेदारी के साथ देशभर के अलग-अलग हिस्सों में यात्रा और उनकी संस्कृति के विभिन्न रूपों से परिचय का मौका भी मिलता है।
कुछ वर्ष पूर्व विधान परिषद के चुनावों में मुझे उत्तर प्रदेश के कानपुर और फतेहपुर ज़िलों के अंतर्गत होने वाले चुनावों का प्रेक्षक नियुक्त किया गया था।
कानपुर तो ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि से मशहूर है ही पर फतेहपुर की भी अपनी एक अलग विशेषता है। फतेहपुर जिले का एक ब्लॉक मुख्यालय मलवाँ है, जो कानपुर-इलाहबाद राजमार्गपर स्थित है।
इस नगर में सड़क के दोनों ओर पेड़े ही पेड़े की दुकानें हैं, गणेश पेड़ा, महेश पेड़ा, सोहन पेड़ा, मोहन पेड़ा और न जाने किस किस नाम से। मैंने नोटिस किया कि राजमार्ग से गुजरने वाले अनेक वाहन रोक कर लोग पेड़ा खरीदते हैं|
फ़तेहपुर ज़िले के चुनावी क्षेत्रों के भ्रमण के दौरान मलवाँ से आना-जाना होता था सो पेड़े की दुकानों पर इतनी सारी भीड़भाड़ देखकर कुछ उत्सुकता जागी। मैंने अपने लायजन अधिकारी श्री पाल से कहा कि किसी अच्छी दुकान में रोकिए, देखते हैं पेड़े में क्या विशेषता है!
पाल स्थानीय अधिकारी थे कहने लगे ‘अरे सर मैं आपको यहाँ की सबसे मशहूर दुकान में ले चलता हूँ।’ कुछ देर में हमारी कार मोहन पेड़े की दुकान के आगे जा रुकी।
दुकान क्या ये तो किसी बड़े शहर के मशहूर उत्पाद के शोरूम की तरह का पेड़ा बिक्री केंद्र था। 50 गुणित 100 फीट के इस शो रूम नुमा दुकान में केवल पेड़े ही मिल रहे थे और भारी भीड़ थी। बैठने की जगह कहीं थी ही नहीं! अलबत्ता आपका मन वहीं पेड़े खाने को ललचा जाए तो किनारे लाईन से ठन्डे पानी के फ़िल्टर युक्त नल के पास ही कुछ ग्रेनाइट की बेंच अवश्य लगीं थीं। कुछ पेड़ा प्रेमी इसका रसास्वादन भी कर रहे थे।
संयोगवश दुकान के मालिक गणेश लाल गुप्ता दुकान पर ही थे।
मैंने लायजन अधिकारी से अनुरोध किया तो उन्होंने मेरी मुलाकात गुप्ता जी से कराई। प्रारंभिक परिचय के बाद गुप्ता जी ने जो विवरण बताया वो बड़ा दिलचस्प था। कहने लगे कि ये दुकान आज से 56 बरस पहले हमने ही गांव में सबसे पहले शुरू की थी हमारे घर में दाल और आटे की मिलें थीं, पर नौकरों ने सब चटकर डाला!
मैं आठ साल का बालक था, नौकर समझते की ये बच्चा है, पर मैंने सब धीमे-धीमे जाना। पिता जी बड़े सीधे पड़ते थे उनको जब तक नौकरों की कारगुजारियां पता चली, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सब कुछ बिक गया तब भी पांच सौ रुपए का घाटा था।
बस तभी से ये पेड़े बनाए और सड़क किनारे किराए की दुकान में बेचे। दुकान चल निकलती तो मकान मालिक दुकान ख़ाली करा खुद पेड़े बेचने लगता और दुकान का नाम भी मोहन पेड़े पर रख लेता। इस तरह, मेरी देखा-देखी आज पूरा शहर पेड़ा बेच रहा है, पर असल तो असल है। आज भी लोग मेरी दुकान ढूँढ कर आते हैं, जैसे आप आ गए।
छोटी सी दुकान से इतने बड़े शो रूम का सफ़र मैंने तय किया पर पेड़े की क्वालिटी वही है। मैंने कहा भाई गुप्ता जी इतनी बड़ी दुकान में आप केवल पेड़ा ही बेचते हो! तो कुछ शरमा के कहा ‘नहीं अब चाय भी बेचते हैं।’
गणेश गुप्ता जी के साथ मैंने फोटो खिंचाई, एक पाव पेड़ा 110 रुपए का लिया और जब बाहर आकर मैं अपनी गाड़ी मैं बैठा तो मेरे साथ चल रहे सुरक्षा अधिकारी महावीर ने मेरी जानकारी बढ़ाने के लिए कहा ‘अरे साहब बड़ा घमंडी है ये सेठ चाहे कोई भी दुकान में आए अफसर या नेता, कहता है लाईन में लग के लें! बिना नंबर किसी को पेड़ा नहीं देता!
इस वजह से कई बार परेशान भी हुआ है पर अपनी जिद नहीं छोड़ता।’ मुझे लगा वापस मुड़कर इस दृढ प्रतिज्ञ वणिक को प्रणाम करूँ, पर फिर लगा ये यूपी वाले सरकारी अमले के लोग न जाने क्या सोचें सो गाड़ी में बैठ अपने गंतव्य को चल दिया। हालांकि, पेड़ा था एकदम शानदार, मुँह में डालते ही जैसे घुल जाए। मलवां के पेड़ों जैसा पेड़ा फिर मैंने कहीं नहीं खाया।