1971 का युद्ध और हम बच्चे

554

1971 का युद्ध और हम बच्चे

 

प्रलय श्रीवास्तव की खास रिपोर्ट 

 

मैं 7 साल की उम्र में 1970 में परिवार के साथ नरसिंहपुर से भोपाल आया था। जब भोपाल धीरे धीरे विकास की रफ्तार पकड़ रहा था। पिताजी स्व. श्री सत्य नारायण श्रीवास्तव यहां पूर्व से नूर महल रोड स्थित स्थानीय एक प्रमुख अखबार में संपादक थे ।मां हम बच्चों को लेकर भोपाल शिफ्ट आ गई थी नरसिंहपुर से । जहां हमारा दाखिला पहली कक्षा में विद्या विहार स्कूल प्रोफेसर कॉलोनी में हुआ था।

प्रोफेसर कॉलोनी में रहने के दौरान ही दिसंबर 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध छिड़ गया था । युद्ध की परिभाषा हम बच्चे नहीं जानते थे । बस इतना मालूम था कि ऊपर से हवाई जहाज निकलेगा और बम बरसायेगा। अखबारों को पढ़ने की भी ललक हममें नहीं होती थी।

जब युद्ध शुरू हुआ तब बस आकाशवाणी और अखबार ही सहारा थे। चूंकि पिता पत्रकारिता में थे, देर रात घर लौटते थे। इसलिए अगली सुबह घर पर भी इन विषयों पर चर्चा होती थी। जब युद्ध अपने चरम पर था तब अंधेरा होते ही सायरन बजता और ब्लैक आउट होने लगता । सायरन बजते ही सारे घरों की बिजली लाइट बंद कर दी जाती थी। क्योंकि हम बच्चे थे हमें कुछ समझ में नहीं आता था तब खेल-खेल में हम कभी लाइट जला दिया करते थे। पुलिस गश्त करती थी । प्रोफेसर कॉलोनी जहां हम रहते थे, वह पत्रकारों , प्राध्यापकों की कॉलोनी थी। जहां पुलिस जब कभी राउंड लगाती थी। पुलिस की गश्त ने एक बार देखा कि हमारे घर ई- 134/1 पत्रकार सत्यनारायण श्रीवास्तव के घर के एक कमरे में लाइट जल रही है। वह हम लोगों से तो कुछ नहीं बोले लेकिन वायरलेस से थाने और वहां से प्रेस में पिताजी को खबर की जाती कि आपके घर में लाइट जल रही हैं। चूंकि घर में फोन नहीं था, जब पिताजी देर रात लौटते तब डांटते कि थे तुम लोग लाइट क्यों जलाते हो ,बंद रखा करो। डांट फटकार पड़ने के बाद हम लाइट बंद रखते । मुझे अभी भी याद है कि उस समय नूर महल रोड स्थित जिस अखबार में पिताजी काम किया करते थे, उसका लैंडलाइन फोन नंबर 2785 था । तब टेलीफोन भी चार अंको में हुआ करते थे। घर में राशन सामग्री जुटा ली जाती थी। स्कूल- कॉलेज की छुट्टी हो जाती थी तो हम बच्चे दिन भर घर में मस्ती करते थे । युद्ध के तनाव से बेपरवाह होकर पड़ोसी बच्चों के साथ खेला करते थे । शहर में शांति छाई रहती। घर के सामने रविंद्र भवन था, जहां के कार्यक्रम रद्द हो गए थे। संचार तंत्र सीमित होने से छन छन के खबरें हम लोग तक आती थी। कभी आकाशवाणी से सुना करते थे कि ताजमहल को भी बोरों से ढक दिया गया है ,क्योंकि ताजमहल रात के उजाले में अधिक चमकता है और उसे पर हमला होने की संभावना थी। इसलिए ताजमहल को ढक दिया जाता था । ऐसा हम लोगों को अभी भी याद है। दिल्ली में विशेष सतर्कता बरती जाती। जैसे जैसे इस युद्ध में भारत ने अपनी ताकत दिखाई और जीत हासिल की, वैसे-वैसे भारत के सभी शहरों में देशभक्ति की मस्ती छा गई थी। हम लोग भी हर्ष ध्वनि से “भारत जिंदाबाद” के नारे लगाते हुए सड़कों पर आ गए थे। हम बच्चे थे, हमको बस इतना ही मालूम था कि हम जीत गए और हम लोगों ने बहुत जश्न मनाया। सड़कों पर खुशी मनाई । स्कूल खुलने पर भी काफी खुशी मनाई गई कि अपना भारत जीत गया । भारत के जितने के बाद रेलों से सैनिकों का लौटना शुरू हो गया था।

मेरे पड़ोस में वरिष्ठ पत्रकार और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रिकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व महानिदेशक श्री राधेश्याम शर्मा (अब स्वर्गीय) रहते थे । उनकी धर्मपत्नी काफी सक्रिय और सच्ची देशभक्त थी । जब भारतीय सैनिक युद्ध से लौट रहे थे तब वे मुझे लेकर भोपाल रेलवे स्टेशन सैनिकों के स्वागत के लिए गई थी। उनके हाथों में संतरों , सेव ,कैले से भरी टोकरी थी। शर्मा आंटी के साथ मैं दिनभर भोपाल के रेलवे स्टेशन पर रहा। जो भी ट्रेन, जिसमें सैनिक लौट रहे थे, हम लोगों ने उन्हें फल वितरित किए और सेल्यूट मारकर उनका अभिवादन किया। ट्रेन थोड़ी देर रूकती थी ,सैनिकों ने भी हाथ मिलाकर और मुझे पुचकार के उत्साह बढ़ाया और सहर्ष फल स्वीकार किये। काफी संख्या में भोपाल के स्वयंसेवी संगठन भी रेलवे स्टेशन पर तैनात थे। कोई सैनिकों को पानी पिला रहा था, कोई उन्हें मिठाई दे रहा था, कोई भोजन तो कोई फल दे रहा था। सभी लोग हार फूल से उनका स्वागत कर रहे थे।यह सिलसिला दिन भर पर चलता रहता था और हम सैनिकों के देशभक्ति से ओतप्रोत जज्बे को सलाम करते थे।

 

इसके बाद के दौर में अनेक देशभक्ति की फिल्में आई। मनोज कुमार ने पूरब और पश्चिम तो एक फिल्म बांग्लादेश पर बनी। जिसमें बंगलादेश के तत्कालीन प्रधानमंत्री मुजीबुर्रहमान का रोल संभवतः आई. एस.जौहर ने निभाया था। जैसा मुझे याद है उस समय जो भी नई फिल्में आती थी, पत्रकारों के लिए उसका प्रीमियर शो होता था और हम लोगों को निमंत्रण पत्र प्राप्त हो जाते थे। उन फिल्मों का हम बच्चों ने भी पूरा लुफ्त उठाया था । इसके बाद शायद केंद्र या राज्य सरकार द्वारा भदभदा डिपो चौराहा स्थित पहाड़ी पर रात्रि में युद्ध पर आधारित शो हुआ करता था, जिसका शीर्षक था “बढ़ते कदम”। भदभदा पहाड़ी पर लाइट का फोकस डाला जाता है और सैनिकों के साहस की गाथा को नाट्य रूप में प्रस्तुत किया जाता। काफी संख्या में भोपाल के लोग उस नाट्य प्रस्तुति को देखने पहुंचते थे। संगीत और देशभक्ति की भावाभिव्यक्ति के साथ वह प्रस्तुति होती । लगभग तीन से चार घंटे की प्रस्तुति के बाद हम देशभक्ति की भावना से सराबोर होकर घर वापस लौटते । पाकिस्तान पर जीत के बाद भी काफी महीनो तक भारत में जश्न मनाया जाता रहा। जिसमें सभी वर्ग और समाज के लोग शामिल हुए थे। भारतीय सेना की मुक्त कंठ से तारीफ की जाती थी ।