समाजवादी राजनीति के शरद का अवसान

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समाजवादी राजनीति के शरद का अवसान

शरद यादव नहीं रहे,इस खबर पर भरोसा करना कठिन नहीं है।1974 के जेपी आंदोलन से राष्ट्रीय छितिज पर छाने वाले शरद यादव राजनीतिक रूप से काफी पहले दिवंगत हो चुके थे, भौतिक रूप से उनका अवसान अब हुआ है। उन्हें उन्ही की महात्वाकांक्षा और निकट के लोगों ने बहुत पहले ठिकाने लगा दिया था।

जिंदगी के 75 साल पूरे कर चुके शरद यादव से पहले पहल 1974 में ही मिला था। ग्वालियर में जेपी की सभा में उन्हें पहली बार देखा था। पांच साल बाद जब पत्रकारिता में प्रवेश किया तो उनसे अनेक मुलाकातें हुईं। हमारे अग्रज रमाशंकर सिंह के वे निकट मित्र थे।शरद यादव दूसरे समाजवादियों की तरह स्वभाव से फक्कड़, अक्खड़ और मुंहफट थे। उनके इन्हीं तीन गुणों की वजह से मैं उनका मुरीद था।

शरद यादव नसीब वाले नेता रहे।छात्र राजनीति से सीधे देश की राजनीति में कदम रखने वाले शरद यादव को बदांयू के लोगों से ज्यादा जबलपुर के लोग अपना मानते थे। बिहार ने तो उन्हें जैसे गोद ही ले लिया था। ये उनकी अपार लोकप्रियता और नसीब ही था कि उन्हें मप्र,उप्र और बिहार ने अपना मानकर संसद तक भेजा। जबलपुर, बदायूं और मधेपुरा की जनता ने उन्हें जो मौके दिए वे प्रणम्य हैं।प्रणम्य इसलिए कि एक लोकसभा सदस्य के रूप में वे अपने क्षेत्र के लिए कभी विकास के मसीहा नहीं बने लेकिन चुनाव जीते।

समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के आदर्शों पर चलने वाले शरद यादव ने जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष के साथ ही उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में अनेक जिम्मेदारियां निभाईं किंतु अंत में उन्हें उन्ही की पार्टी ने बेदखल भी कर दिया। अच्छी बात ये रही कि वे दूसरे नेताओं की तरह भाजपा में शामिल नहीं हुए, अपने घर बैठे रहे।

अखमऊ ((होशंगाबाद) के शरद यादव अगर जेपी आंदोलन में शामिल न हुए होते तो मुमकिन है कि एक सामान्य इंजीनियर की तरह सेवानिवृत्त होते, लेकिन उन्हें तो राजनीति में अनेक किरदार अदा करने थे।वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक थे परन्तु उनकी पार्टी द्वारा गठबंधन से सम्बन्ध विच्छेद कर लेने के कारण उन्होंने संयोजक पद से त्याग पत्र दे दिया। राजनीतिक गठजोड़ के माहिर शरद यादव को उन्ही के पटु शिष्य बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहीं का नहीं छोड़ा। ये आक्षेप नहीं, हकीकत है ।

शरद यादव सांसद बनने के फौरन बाद युवा जनता दल के अध्यक्ष चुने गए। परिपक्व हुए तो जनता दल के महासचिव और अध्यक्ष तक बने। जेपी आंदोलन के ही उत्पाद लालू प्रसाद यादव को हराया। कभी लोकसभा तो कभी राज्य सभा में बने रहना उनका अपना कौशल था।गैर कांग्रेसी सरकारों में मंत्री भी बने लेकिन बहुत चर्चित नहीं हुए।उनकी चर्चा दूसरे कारणों से होती रही।

शरद यादव का बोलने का अंदाज बहुत प्रभावी नहीं था किन्तु वे हर बहस में पूरी गंभीरता से बोलते थे। उन्हें हास परिहास भी खूब आता था। आपातकाल के बाद देश में दूसरी बार शुरू हुए गठबंधन युग के शरद जी मंजे हुए खिलाड़ी थे। लेकिन हर खिलाड़ी को आखिर में मैदान छोड़ना पड़ता है।शरद यादव को भी छोड़ना पड़ा। उनके संसदीय जीवन का उत्तरार्ध बहुत विवादास्पद रहा।

ग्वालियर और दिल्ली में मेरी शरद जी के साथ अनेक एकांत भेंटवार्ताएं हुईं। वे पिछले दो दशकों में राजनीति में आई गिरावट से बहुत क्षुब्ध रहते थे। उन्हें समाजवादियों का बिखराव भी परेशान करता था, लेकिन वे इसके लिए खुद को जिम्मेदार नहीं मानते थे।उनके गुण -अवगुण किसी से छिपे नहीं थे।

भारतीय राजनीति में शरद यादव का होना एक घटना है और उनका न रहना एक दुर्घटना। उन्होंने चार-पांच विभागों के मंत्री के रूप में काम किया, लेकिन वे अच्छे सीईओ कभी नहीं बने, हां एक अच्छे समन्वयक जरूर रहे। आखिर में उनकी ये धार भी जाती रही।यादव ने एक अच्छा काम ये किया कि लालू प्रसाद यादव या स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव की तरह सिर्फ यादवों की राजनीति नहीं की।वे सभी दलों से सम्मान पाते रहे, देते रहे। उन्होंने कभी किसी दल को अछूत नहीं कहा। कभी कांग्रेस विहीन राजनीति का बीड़ा नहीं उठाया, लेकिन अपनी प्रासंगिकता पूरे चार दशक तक बनाए रखी।शरद यादव के प्रति मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।