कांग्रेस (Congress) में राजशाही का वटवृक्ष,कोई पनपे तो कैसे?

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यह कितना विसंगतिपूर्ण है कि स्वतंत्र भारत में सर्वाधिक समय तक राज करने वाला राजनीतिक दल कांग्रेस (Congress) देश से राजशाही समाप्ति के 72 बरस बाद भी अपने दल में इसे जारी रखे हुए हैं। जिन 562 रियासतों का अस्तित्व 1950 में पूरी तरह खत्म कर दिया गया और आजादी की तयशुदा शर्तों में प्रमुख प्रतिमाह प्रीवी पर्स(गुजारा भत्ता) देने का प्रावधान भी कांग्रेस की सबसे शक्तिशाली कही जाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1971 में समाप्त कर दिया, उसी कांग्रेस में यह परंपरा जोर-शोर से जारी है । लगता नहीं कि गांधी परिवार की अगली पीढ़ी तक भी यह खत्म हो पायेगी।कांग्रेस इसे अपने दल की चिंता या विषय कहकर इस ज्वलंत मुद्द‌े से पीछा नहीं छुड़ा सकती। प्रवर्तन निदेशालय द्व‌ारा सोनिया और राहुल गांधी को पूछताछ के लिये बुलाने पर देश और संसद में हंगामा खड़ा कर कांग्रेस राजशाही के संरक्षण का सबूत ही पेश कर रही है।

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यह तो तय है कि राजशाही या जिसे परिवारवाद भी कह सकते हैं, उसका हर खामियाजा भी कांग्रेस और गांधी परिवार को ही भुगतना है, किंतु वे भूल रहे हैं कि प्रकारातंर से लोकतंत्र का भी बड़ा नुकसान कर रहे हैं। हम इस नई इक्कीसवीं सदी की बात करें तो कांग्रेस और गांधी परिवार की साख का निरंतर क्षय होता जा रहा है। इससे सबक लेने को कोई तैयार नहीं , बल्कि दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि दोनों ही याने कांग्रेसी और गांधी परिवार इस बात से कतई सहमति नहीं रखते कि यह परिवारवाद उन्हें किसी तरह का नुकसान भी पहुंचा रहा है।

     कहने को केंद्रे में 2004 से 2014 तक कांग्रेस नीत सरकार थी, लेकिन वह ऐसी कमजोर बैसाखी पर जैसे-तैसे टिकी थी कि जब वह हटी तो दोबारा कोई टेका ही नहीं लग पा रहा है। केंद्र से बेदखली के पश्चात वहां वापसी के लिये तो उसके हिस्से में हाल-फिलहाल सिर्फ छटपटाहट ही आयेगी,लेकिन बड़ा गड्‌ढा तो राज्यों का भी हो रहा है, जिसे भरना अब मौजूदा नेतृत्व के बस का तो बिल्कुल नहीं है। सवाल यह है कि क्या कांग्रेस और गांधी परिवार को इसकी चिंता नहीं है या उनमें ऐसी कोई तमन्ना शेष नहीं बची क्या जो उनमें जोश भर दे? इसका जवाब थोड़ा कठिन है । फिर उम्मीद जगाने के लिये भी वह निष्ठा और समर्पण मांगता है,जो कांग्रेस की वर्तमान पीढ़ी में दूररदाज तक नजर नहीं आता।

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दरअसल, कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व और नेताओं की कतार में ऐसा कोई नहीं जिसमें चुंबकीय क्षमता हो। राजनीतिक दल में दो धारायें एकसाथ चलती है। पहली कार्यकर्ताओं में जोश भरना और दूसरा जनता के बीच आकर्षण पैदा करना ,जिज्ञासा बनाना औऱ् बढ़ाना। इस मामले में फिलहाल तो कांग्रेस की झोली खाली है। गांधी परिवार यदि यह सोचता है कि राजनीतिक जलसों,सभाओं,रैलियों में भीड़ उमड़ती है तो उनके जैसा मासूम दूसरा नहीं होगा। ऐसी मासूमियत लोकभाषा में नासमझी कहलाती है। एक तरफ जहां कांग्रेस में गंभीर चिंतन का सर्वथा अभाव है तो दूसरी तरफ प्रयासों में निरंतरता की बेहद कमी है। देश का यह सबसे पुराना दल उस कमजोर मकान की तरह हो चुका है, जिसे स्थानीय निकाय (जनता बनाम राजनीतिक व्यवस्था) खतरनाक घोषित कर चुकी है। इसका भरभराकर गिरना लोकतंत्र के लिये बड़ी त्रासदी होगा। क्या कांग्रेस में इस पर कोई विचार कर भी रहा है?

जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि परिवारवाद में जकड़ी कांग्रेस और उसके आका इस बारे में कुछ सुनना-देखना ही पसंद नहीं करते तो किसी सुधार या परिवर्तन की तो गुंजाइश ही नहीं बची। अब यदि कुछ करना भी है तो गांधी परिवार को ही करना है और वह ऐसा कुछ भी क्यों करें , जब यह हर आम-खास कांग्रेसी को मंजूर है तो। कांग्रेस में विचार क्षय की शुरुआत तो 1969 में ही हो गई थी, जब इंदिरा गांधी ने आजादी की लड़ाई के अग्रणी राजनीतिक दल रहे कांग्रेस का विभाजन कर इंदिरा कांग्रेस बना ली थी। यह ठीक है कि उसके बाद दूसरी कांग्रेस अतीत के इतने गहरे रसातल में उतर गई कि अब कांग्रेस के भीतर ही ज्यादातर को नहीं मालूम कि असल कांग्रेस भी कोई हुआ करती थी। कांग्रेस के परिवारकरण के बाद आज जिस हाल में वह है,ठीक उसी राह पर शिवसेना अग्रसर है। फर्क इतना है कि यहां कांग्रेस परिवा्रवाद की अमर बेल में पूरी तरह गूंथ चुकी है तो शिवसेना को परिवारवाद से मुक्त कराने की कोशिशें चल रही हैं। बहरहाल।


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भाजपा की हरसंभव कोशिश है कि देश कांग्रेस मुक्त हो जाये, लेकिन हैरत इस बात की है कि इसके लिये उससे कहीं ज्यादा कांग्रेसी इस दिशा में काम पर लगे नजर आते हैं। विचार शून्यता के गहरे कोहरे में घिरी कांग्रेस को बचा भी कांग्रेसी ही सकते हैं और डूबोने की महती जिम्मेदारी भी वे ही निभा रहे हैं। कांग्रेस के कमजोर होने के साथ जहां एक तरफ भाजपा राष्ट्रीय दल के रूप में निरंतर मजबूत हो रही है तो दूसरी तरफ राज्यों में जहां कांग्रेस तो आधारहीन हुई, किंतु भाजपा पैर नहीं जमा सकती थी, वहां क्षेत्रीय दलों ने अभूतपूर्व तरीके से अपने को स्थापित कर लिया। यह समग्र रूप से लोकतंत्र के लिये उम्दा है या दीर्घ अवधि में इसके दुष्पिरणाम आ सकते हैं, यह कहने का उचित समय नहीं है। हां इतना तय है कि क्षेत्रीय दलों की मजबूती उस कॉकटेल की तरह है, जो तत्काल तो कीक देता है, किंतु सुबह जिसका हैंगओवर पूरा दिन खराब कर सकता है।

2024 के आम चुनाव को यूं बहुत ज्यादा वक्त भी नहीं है। हाल के प्रसंगों से तो भाजपा के सामने कोई बडी चुनौती नजर नहीं आती। फिर राजनीति का चरित्र ही क्या जो ऐन वक्त पर कोई नया गुल न खिला सके। तय कांग्रेस को करना है, बल्कि मैं कहूंगा कि एक बार फिर कांग्रेस के सामने एक बड़ा अवसर है, जब वह या तो खुद मजबूत विपक्ष बनकर उभरे या संयुक्त विपक्ष का प्रतिनिधित्व कर मुद्द‌ों के आधार पर देश को दिशा देने का ऐसा खाका प्रस्तुत करे, जिसे मानने में आमजन को दुविधा न हो। इसके लिये सबसे जरूरी होगा तुष्टिकरण की राजनीति को ताक पर रखना,देश के बहुसंख्यक वर्ग के हित पोषण का ठोस सबूत प्रस्तुत करना,परिवारवाद की छाया को परे धकेलना और ऐसी चिंतन शैली विकसित करना, जो एक परिपक्व राजनीतिक दल की छवि खड़ी कर सके, वरना क्या 2024 और क्या 2029, उसे कहीं ओऱ-ठोर मिलने से रहा।