प्रशासनिक सेवाओं में बहुत कम अधिकारी हैं जो खेलों में रुचि लेते हैं। सच तो ये है कि स्कूल की पढाई के दौरान बन्दे का रुझान खेलकूद में नहीं रहा हो तब बाद के वर्षों में उसमे रूचि होना कठिन ही रहता है|
जब अफ़सर प्रशासन अकादमी भोपाल या लबसना , मसूरी में ट्रेनिंग के लिए जाते हैं , तो ये बात बखूबी महसूस करते हैं। मसूरी में तो सुबह 6 बजे उठ कर खेल के मैदान में जाना जरूरी होता है। जरूरी से तात्पर्य सुबह 6 बजे वहां हाजिरी ली जाती है और गैरहाज़िर लोगों को मेमो भी मिलते हैं|
मेरे जैसे लोग जिनके लिए ये टेनिस खेलने का बढ़िया मौका था, इन्हें इस व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं थी लेकिन जिन सज्जनों और देवियों को सुबह उठने और खेलने का अभ्यास नहीं था उनके लिए ये व्यवस्था कुछ दुरूह थी|
हमारे बचपन में स्कूल में रोज़ाना खेल का एक पीरियड हुआ करता था और उसमें खेलना अनिवार्य था| मैं अपने स्कूल की फ़ुटबाल और हॉकी दोनों टीमों में था, पर क्रिकेट का क्रेज कुछ और ही था। अजीत वाडेकर का जलवा था, सुनील गावस्कर मैदान में रंग दिखाने लगे थे और बिशन सिंह बेदी और प्रसन्ना की फिरकियों के हम दीवाने थे, पर इतना सब होने के बावजूद क्रिकेट हमारे स्कूल के खेलों में शामिल नहीं था।
हमने सोचा हम आत्मनिर्भर बनेंगे तो जैसे तैसे चंदा करके क्रिकेट का सामान लिया और डिसिल्वा स्कूल जबलपुर की पहली क्रिकेट टीम तैयार हुई|
टीम तो बन गयी पर कप्तान कौन बने इसका निर्णय करने के लिए ये तय हुआ कि जो सबसे ज्यादा रन बनाएगा वो कप्तान होगा। खेल शुरू हुआ और मुझसे अपेक्षाकृत बढ़िया खेलने वाले लोग फटाफट आउट होते चले गए, और आशा के विपरीत मैंने सबसे ज्याद रन बना लिए, बस क्या सबने कहा की तू कप्तान|
मैं गर्व से अपना सीना फुला ही रहा था कि सबने पास में आकर क्रिकेट का किट रख दिया और बोले यार कप्तान अब हर शनिवार किट लाने ले जाने ले जाने की जबाबदारी तेरी| मैंने कहा ये क्या मज़ाक है? मैं तो कप्तान हूँ, तो दोस्तों ने कहा कप्तान की ही जबाबदारी रहती है किट रखने की| मुझे समझते देर न लगी कि किस कारण से मैं सबसे ज्यादा स्कोर कर पाया था|
स्कूल में तो जितना बना क्रिकेट खेला लेकिन क्रिकेट दुबारा खेलने का मौक़ा मिला नौकरी लगने के बाद| ज़िलों में पत्रकारों और अधिकारियों के बीच समरसता बनाये रखने में क्रिकेट मैच क़ी परम्परा हर जिले में है|
मैं उन दिनों सीहोर में एस.डी.एम. के पद पर नया नया पदस्थ हुआ था और पत्रकारों में बहुत से युवा साथी क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे। लोकेश मेवाड़ा जैसे पत्रकार मित्र कहानियाँ सुनाते थे कि यशोवर्धन आजाद, जो मशहूर क्रिकेटर कीर्ति आज़ाद के भाई थे, के सीहोर एस पी रहते कैसे क्रिकेट क़ी रौनक रहती थी।
लिहाज़ा लुभावनी कहानियों से प्रेरणा पा कर यह तय हुआ कि रविवार को अधिकारियों और पत्रकारों के बीच क्रिकेट मैच खेल जायेगा| अगले रविवार कलेक्टर समेत कलेक्टर इलेवन के अधिकारी सीहोर क्लब ग्राउंड पर पहुँच गए|
मैंने देखा पत्रकारों की टीम कुछ ज्यादा ही सशक्त थी, ढेर सारे युवा और कुछ प्रोफेशनल खिलाड़ी भी इनमें समाहित थे| मैंने कहा कि भाई ये क्या बात हुई क्या मैच जीतने के लिहाज से टीम बनाई है, इसमें जब तक सीनियर पत्रकार शामिल नहीं होंगे तब तक काहे की पत्रकार इलेवन? सो कुछ जद्दो जहद के बाद सर्वश्री रघुवर गोहिया, पुरुषोत्तम कुइया और रामनारायण ताम्रकार जैसे सीनियर पत्रकार भी टीम में शामिल किये गए|
खैर खेल शुरू हुआ और युवा पत्रकारों की बदौलत निर्धारित ओवर में हमारी विपक्षी टीम ने अच्छे खासे रन बना लिए। अब बारी अधिकारियों की थी | हम लोगों की बेटिंग चालू हुई, थोड़ी देर बाद प्रोफेशनल खिलाड़ियों के ओवर का कोटा ख़त्म हुआ और ताम्रकार जी को, जो तब दैनिक भास्कर के सिटी चीफ थे, बॉल दी गयी। तब तक किसी को नहीं मालूम था कि वे क्रिकेट के बारे में आम भारतीय की भांति केवल टी वी में मैच देखने तक की वाक़फ़ियत रखते थे|
खैर उनकी बॉलिंग का दौर प्रारम्भ हुआ , पहली दो तीन बॉल तो फेकने के साथ ही नो बॉल करार दे दीं गयीं, क्योंकि वो अम्पायर को ये बिना बताये डाली गयीं थी कि वे ओवर दी विकेट या अंडर दी विकेट किस तरह बॉल डालेंगे, बहरहाल इस कन्फ्यूजन को दूर करने के बाद जो बॉल उन्होंने डालनी चालू कीं उनमें से एक भी विकेट के पहले यानि बल्लेबाज़ के आगे नहीं गिरी, कुछ तो विकेट कीपर के पीछे और कुछेक तो सीधे बाउंड्री के आस पास गिरीं| आखिरकार दस बारह प्रयासों के बाद उन्हें रिटायर हर्ट ठहरा के पत्रकार इलेवन के कप्तान ने वापस बुलाया, पर तब तक मैच जीतने लायक स्कोर हमारा हो चुका था।