दिवस बताएगा कि भारत की संस्कृति कितनी महान है…
गुरु गोविंद सिंह जी के साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह के बलिदान की स्मृति में देश में पहली बार वीर बाल दिवस मनाया गया। खुशी की बात है कि कम से कम ‘वीर बाल दिवस’ मनाने की शुरुआत 21वीं सदी के 22वें साल में हो गई है। इसके जरिए भारत की संस्कृति का एक संपूर्ण परिदृश्य पूरी दुनिया को अपना कायल कर सकता है। बस शर्त यही है कि वीर बाल दिवस का आयोजन राजनीतिक गलियारों की जगह देश की गली-गली तक पहुंच जाए। इस दिवस में भारत का सनातन समाया हुआ है, भारत की संस्कृति सांसें ले रही है और भारत की माटी के त्याग, बलिदान, नैतिकता, वीरता, साहस, शौर्य और पराक्रम की सौंधी खुशबू रच-बस रही है। जरूरी है तो यही कि हम इस भ्रम में न पड़ें कि कौन वीर बाल दिवस पर आयोजित कार्यक्रमों में शामिल हो रहा है, बल्कि हम उन वीर बालकों को जी सकें, अपनी सांसों में महसूस कर सकें कि आखिर वह कौन थे और उन्होंने किया क्या था। तो वीर बालक दिवस मनाने की शुरुआत करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रिया। आइए जानते हैं वीर बालकों के त्याग और बलिदान को।
यह कहानी सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह के इर्दगिर्द केंद्रित है। इस कहानी में माता गुजरी, गुरु गोविंद सिंह जी की पत्नी थी और साहिबजादे बाबा जोरावर सिंह जी और बाबा फतेह सिंह जी की मां थी। गुरु गोबिंद सिंह का पूरा परिवार देश और धर्म की रक्षा के लिए शहीद हो गया था। साहिबजादों के बलिदान में हमारे लिए बड़ा उपदेश छिपा हुआ है। सिख गुरु परंपरा एक भारत श्रेष्ठ भारत के विचार का प्रेरणा पुंज है। दो शहजादों का औरंगजेब तलवार के दम पर धर्म बदलना चाहता था। लेकिन भारत के वीर बेटे मौत से घबराए नहीं। वे दीवार में जिंदा चुन दिए गए और खुशी-खुशी भारत की सनातन संस्कृति का लोहा मनवा गए।
औरंगजेब को नाकों चने चबवाने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी का पूरा परिवार आनंदपुर छोड़ते समय सरसा नदी पार करते हुए बिछुड़ गया। माता गुजरी जी और दो छोटे पोते साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह के साथ गुरु गोबिंद सिंह जी एवं उनके दो बड़े भाइयों से अलग हो गए। सरसा नदी पार करते ही गुरु गोबिंद सिंह जी पर दुश्मनों की सेना ने हमला बोल दिया। चमकौर के इस भयानक युद्ध में गुरुजी के दो बड़े साहिबजादों ने शहादत पाई। वहीं सरसा नदी पर बिछुड़े माता गुजरीजी एवं छोटे साहिबजादे जोरावर सिंह जी 7 वर्ष एवं साहिबजादा फतेह सिंह जी 5 वर्ष की आयु में गिरफ्तार कर लिए गए।उन्हें सरहंद के नवाब वजीर खाँ के सामने पेश कर माताजी के साथ ठंडे बुर्ज में कैद कर दिया गया और फिर कई दिन तक नवाब और काजी उन्हें दरबार में बुलाकर धर्म परिवर्तन के लिए कई प्रकार के लालच एवं धमकियां देते रहे। दोनों साहिबजादे गरज कर जवाब देते रहे कि हम अकाल पुर्ख (परमात्मा) और अपने गुरु पिताजी के आगे ही सिर झुकाते हैं, किसी ओर को सलाम नहीं करते। हमारी लड़ाई अन्याय,अधर्म एवं जुल्म के खिलाफ है। हम तुम्हारे इस जुल्म के खिलाफ प्राण दे देंगे लेकिन झुकेंगे नहीं। अत: वजीर खां ने उन्हें जिंदा दीवारों में चिनवा दिया।
साहिबजादों की शहीदी के पश्चात बड़े धैर्य के साथ ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हुए माता गुजरीजी ने अरदास की एवं अपने प्राण त्याग दिए। तारीख 26 दिसंबर, पौष के माह में संवत् 1761 को गुरुजी के प्रेमी सिखों द्वारा माता गुजरीजी तथा दोनों छोटे साहिबजादों का सत्कारसहित अंतिम संस्कार कर दिया गया।
बस यही कहा जा सकता है कि वीरों की है यह कहानी सदियों से भी पुरानी…। भारत में सनातनता से समाए वीरता के गुणों का आदिकाल से अब तक का सुदीर्घ इतिहास है, लंबी परंपरा है। इसकी ही झलक साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह में भी दिखती है। तो हम सब अपना शीर्ष इन साहिबजादों के त्याग और बलिदान के सामने झुकाते हैं। और वर्तमान परिदृश्य में उन धनलोलुपों को धिक्कारते हैं, जो आडंबर दिखाकर हमारी सनातन संस्कृति के गुणों को और गौरव को लजा रहे हैं।साहिबजादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह को शत-शत नमन।
निश्चित तौर पर यह दिवस बताएगा कि भारत की संस्कृति कितनी महान है…और शिरोधार्य है
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