गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य में राम  का स्वरूप—-

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गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य में राम  का स्वरूप—-

दीर्घकाल से हिन्दी साहित्य के अध्येता और आलोचक तुलसीदासजी के राम का अध्ययन करते चले आ रहे हैं।
इनके साहित्य में अद्वैत, विशिष्टा द्वैत और अन्य दार्शनिक प्रणालियों की खोज की गयी है परन्तु फिर भी अनेक शोधकर्ता राम और उनके दर्शन को समझने में लगे हुए हैं।
संक्षेप में जीव, जगत, माया, ईश्वर अध्यात्म , आत्मजगत,साधना और सिद्धान्त इत्यादि पर काव्य के द्वारा उन्मुक्त भाव से विचरण करके राम के दार्शनिक सिद्धान्त को तुलसीदासजी ने सबके सामने रखा।
तुलसी के समय तक जनता हठयोगी अवधूतों की शुष्क नीरव वर्णना देख चुकी थी। फलतः तुलसी की राम के प्रति भावपूर्ण भक्ति चन्द्रकांत मणि के समान सुखदायी और मंगलमय दृष्टिगोचर हुई।

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राम का स्वरूप—

जनमानस में तुलसी की प्रतिष्ठा
भक्त कवि अथवा पौराणिक कवि के रूप में हुई है और उनका ब्रह्मवादी स्वरूप बहुत कुछ आंखों से ओझल हो गया है।आज का बुद्धिवादी युग तुलसी के रामचरितमानस की रामकथा की स्थूलता को ही समझ पाया है, वह उसे वैचारिक तंत्र में स्थान नहीं दे पाया है।
जबकि रामचरित मानस की नीतिवादिता भी आनन्द का ही साधना पक्ष है। वह स्थूल नैतिकता नहीं है, क्यों कि उसके पीछे धर्म, अधर्म, पाप पुण्य, सत्य असत्य की परख है। सम्पूर्ण रामकथा धर्म नीति का ही उद्घाटन है।इसलिए तुलसी ने ही राम को व्यक्तिगत हानि लाभ से उपर उठाकर लोकधर्म के शास्त्री के रूप में प्रतिष्ठीत किया है।
तुलसी की भक्ति के आधार उनके इष्टदेव ‘राम’ है, जो वाल्मिकी के द्वारा आदिकाव्य के नायक बनाये गये हैं। रामायण में उन्हें दांम्पत्य प्रेम, शौर्य, प्रजापालन,तथा सत्यप्राणता के आदर्श के रूप में अभिव्यक्त किया गया है। वह अतिप्राकृत नर की प्रेमगाथा है।मानव चरित्र की सर्वोच्च भूमिकाओं पर उनका चित्रण हुआ है।

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राम सप्रेम पुलकि ड़र लावा।परम रंक जनु पारसु पावा।।
मनहुँ प्रेम परमारथु दोऊ।मिलत धरें तन कह सब कोऊ।।
बहरि लखन पायन्ह सोइ लागा।लीन्ह उठाई उभगि अनुरागा।।
पुनि सीय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हा असीसा।।
कीन्ह निषाद दण्ड़वत तेहि। मिलेऊ मुदित लखि राम सनेही।।
पियत नयनपुट रूपु — पियुषा।मुदित सुअसनु पाइजिमि भूखा।।

राम के रामत्व की स्थापना के लिए तुलसी को एक विशेष योजना करनी पड़ी है।एक ओर है रावणत्व ,
दूसरी ओर है रामत्व।

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रावण हिंसा, अधर्म और भौतिक संस्कृति के प्रतिक है तो राम प्रेम, धर्म और करूणा के प्रतीक है। रामचरात मानस मे बालकाण्ड़ के आरम्भ मेंगोस्वामी नेशरावण और असुरों के ऐश्वर्य विस्तार को चित्रित किया है।उसी अधर्म को पृष्ठभूमि बनाकर चैतन्य रूप में अयोध्या में एक छोटे से बालक की अवधारणा हुई है। तुलसी एतिहासिक या पौराणिक मानव-राम की कथा नहीं लिख रहे हैं अतः उन्होंने आरम्भ(रामजन्म) से ही राम के चिन्मय और अवतारी पक्षों को आग्रहपूर्वक प्रस्तुत किया है। राम के अलौकिकत्व और रामत्व( ब्रह्मत्व) पर से तुलसी की दृष्टि क्षण भर के लिए भी नहीं टली है, परन्तु रामकथा के अन्य पात्रों के सम्बन्ध में , उनकी दृष्टि भक्तिमूलक और चारित्रिक ही है।इनमें चरित्र की भूमि मानवीय कही जा सकती है।रामकथा के सभी पात्र प्रच्छन्न भक्त और रामत्व से परिचित बनकर राम के सम्बन्ध में हमारी ब्रह्मभावना का ही पोषण करते हैं।

याद आते हैं ठण्ड के वे दिन

तुलसी ने रामकथा को अपनी भक्ति साधना का रूपक बनाया है।उसमें वे पर्याप्त व्याप्त है। जहां भी राम का सौन्दर्य वर्णन, श्रेष्ठ चारित्रिक अथवा कर्म सौन्दर्य है, वहां वे उनके परात्पर स्वरूप ( अवतारी ब्रह्मरूप) की ओर ध्यान दिलाये बिना नहीं रहते।
अध्यात्म भूमि पर सम्पूर्ण रामकथा लीला है अर्थात ब्रह्म की आनन्दमयी अभिव्यक्ति जिसका मूलोद्देश्य आत्मास्वादन है और जिसमें भक्त का भावपोषण नजर आता है|

मैं हरि पतित पावन सुने|
मैं पतित तुम पतित-पावन दोउ बानक बने||
ब्याध गनिका गण अजामिल साखि निगमनि मने|
और अधम अनेक तारे जात कायै गने||

जानि नाम अजानि लीन्हें नरक सुर पुर मने|
दास तुलसी सरन आयो, राखिये आपने||

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सुषमा व्यास’राजनिधि’
इंदौर, मध्यप्रदेश

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