असली ‘ राष्ट्रवादी ‘ या क्षेत्रीयवादी से तय होगा देश का भविष्य
‘ मैं असली राष्ट्रवादी ‘ महाराष्ट्र के दिग्गज नेता शरद पवार और उनके विरुद्ध खड़े हुए पार्टी और परिवार के सदस्य अजीत पवार दोनों यह दावा कर रहे हैं | पवार ने कई बार कांग्रेस को लात मारने के बाद करीब 24 साल पहले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई थी | यों कांग्रेस पार्टी भी गाँधी नेहरु के आदर्शों पर राष्ट्रवादी समाजवादी सेक्युलरवादी होने का दावा करती रही है | भारतीय जनता पार्टी तो सदैव राष्ट्रवाद और सम्पूर्ण भारत की एकता अखंडता के मूल मन्त्र पर काम करती रही है | समाजवादी पार्टी या विभिन्न राज्यों में जनता दल के नाम से सक्रिय पार्टियां भी राष्ट्रवाद और समाजवाद की दुहाई देती हैं | इसलिए आजादी के 75 वर्ष बाद राष्ट्रवाद की सही परिभाषा और उस पर होने वाली राजनीति पर गहराई से विचार की आवश्यकता है | विशेष रुप इस मुद्दे पर कि हाल के वर्षों में विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों ने स्थानीय हितों के नाम पर अपना प्रभाव बढ़ाया और केंद्र में सत्ता में भागेदारी के लिए राष्ट्रीय पार्टियों का दामन थामा हुआ है | वहीँ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी भी उन क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन के लिए तैयार हो जाती हैं | लेकिन क्षेत्रीय हितों के नाम पर सत्ता में आने वाली पार्टियां क्या सही अर्थों में उन राज्यों की जनता को अधिकाधिक लाभ दे पाई हैं ?
भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक विविधता के साथ राजनीतिक दलों की स्थापना की पूरी छूट है | लेकिन विश्व के किसी अन्य लोकतान्त्रिक देश में इस तरह सैंकड़ों पार्टियां नहीं हैं | अमेरिका में भी 50 राज्य हैं , लेकिन दो बड़ी पार्टियां रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दो सौ वर्षों से प्रमुख भूमिका निभा रहे और कुछ विचारों और मुद्दों पर छोटी तीन चार पार्टियां प्रतीकात्मक सक्रिय दिखती हैं | संभवतः हमारे संविधान निर्माताओं ने कल्पना नहीं की होगी कि राष्ट्रीय पार्टियों के कमजोर होने पर इतनी पार्टियां हो जाएँगी और क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन , सौदेबाजी , राजनीतिक अनिश्चितता बढ़ती जाएगी | यह तथ्य तो प्रामाणिक हैं कि कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के राज्यों में सत्ता में रहने पर स्थानीय विकास भले ही अधिक नहीं हुआ , लेकिन उनके शीर्ष नेता करोड़पति अरबपति हो गए | समाजवादी का नारा देने वाले नेताओं में भी यही प्रवृत्ति रही | जे पी आंदोलन से निकले लालू यादव का परिवार हो या द्रमुक अस्मिता वाले स्टालिन करूणानिधि परिवार बिहार , तमिलनाडु के विकास से अधिक भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे रहे हैं |
इन दिनों राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अधिक विवाद और संकट में दिखाई दी है | शरद पवार को महाराष्ट्र का सर्वाधिक प्रमुख नेता माना जाता रहा | पांच छह दशकों की हर संभव राजनीतिक उठापटक करने के बावजूद उन्हें महाराष्ट्र के बाहर कोई बड़ा जन समर्थन नहीं मिला और अब अपने परिवार और पार्टी में भी वह सबसे कमजोर स्थिति में हैं | उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु यशवंत राव चव्हाण , कांग्रेस के प्रादेशिक नेता वसंतदादा पाटिल , शंकर राव चव्हाण , सुशीलकुमार शिंदे ही नहीं श्रीमती इंदिरा गाँधी , राजीव गाँधी , सोनिया गाँधी , चंद्र शेखर तक को समय समय पर धोखा दिया – साथ छोड़ा , प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री और केंद्र में रक्षा मंत्री तक रहे | फिर भी अब तक राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय नेता नहीं बन सके और प्रदेश में उनकी तरह साथ छोड़ने वाले अजीत पवार , छगन भुजबल , प्रफुल्ल पटेल सहित कई नेताओं के अलग होने से केवल अपनी बेटी सुप्रिया सुले के भविष्य की राजनीति के लिए वर्षों से विरोधी रहे कांग्रेस या राष्ट्रीय जनता दल , उद्धव ठाकरे की टूटी फूटी पार्टी शिव सेना के समर्थन से विपक्ष के गठबंधन की कोशिश कर रहे हैं |मजेदार बात यह है कि इन्ही शरद पवार ने अपनी आत्म कथा में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर यह टिपण्णी भी की है कि गाँधी परिवार अपने ही उत्तराधिकारी का वर्चस्व पार्टी में रखने के लिए किसी अन्य प्रभावी पदेशिक नेता को अधिक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं मिलने देता है | श्रीमती इंदिरा गाँधी के सन्दर्भ में इस तरह की टिपण्णी की गई | अब वही पवार राहुल गाँधी और कांग्रेस का सहारा लेने की कोशिश कर रहे हैं |
इसमें कोई शक नहीं कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में प्रतिपक्ष सशक्त हो और जनता के हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करे | लेकिन शरद पवार , लालू यादव , के चंद्रशेखर राव , चंद्रबाबू नायडू , उद्धव ठाकरे , ममता बनर्जी , स्टालिन , राहुल गाँधी जैसे अधिकांश नेता केवल सत्ता के लिए भाजपा – प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को हटाने के अभियानों से अधिक क्षेत्रीय अथवा सामाजिक हितों की रक्षा के लिए कहाँ कोई संघर्ष करते दिख रहे हैं | राष्ट्रीय स्तर पर तो उनकी कोई स्वीकार्यता ही नहीं है | राष्ट्रवाद की बात करने वाले सांप्रदायिक , जातीय और क्षेत्रीय संकीर्णता पर पूरी राजनीति कर रहे हैं | विदेशों में भारतीय लोकतंत्र पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं , लेकिन सत्ता में रहते असहमत मीडिया या विरोधियों को दबाने की पूरी कोशिश करते हैं | राहुल गाँधी को मानहानि के गंभीर आरोप में दो तीन वर्षों तक की क़ानूनी बहस के बाद निचली अदालत और उच्च न्यायालय ने दोषी करार दिया है | इससे उनकी संसद की सदस्यता चली गई | मोदी सरनेम मानहानि मामले में सूरत की कोर्ट ने कांग्रेस नेता को 2 साल की सजा सुनाई थी। 2 साल या फिर उससे ज्यादा की सजा होने के बाद सांसद या विधायक की सदस्यता रद्द हो जाती है। मानहानि मामले में दोषसिद्धी पर रोक लगाने की अर्जी गुजरात हाई कोर्ट ने खारिज कर दी है। अब इस फैसले के बाद राहुल गांधी के पास सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता है। सुप्रीम कोर्ट से अगर दोषसिद्धी पर रोक लगती है तभी राहुल गांधी चुनाव लड़ पाएंगे वरना नहीं। अगर अर्जी खारिज हो जाती है और दो साल कैद की सजा बहाल रखी जाती है तो राहुल गांधी दो साल जेल काटेंगे और फिर उसके छह साल बाद तक चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। एक संभावना यह है कि अगर राहुल गांधी की अपील पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट दोषी करार देता है लेकिन सजा दो साल से कम कर देता है तो भी राहुल चुनाव लड़ पाएंगे क्योंकि दो साल से कम सजा के मामले में अयोग्यता नहीं होती है। इस सजा को भी वह राजनीतिक सहानुभूति समर्थन और लाभ का माध्यम बनाने की कोशिश कर रहे हैं | वह यह भूल जाते हैं कि मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार द्वारा इस तरह की सजा की अवधि कम होने पर संसद की सदस्यता ख़त्म न होने का प्रावधान करने वाले प्रस्तावित विधेयक को खुद राहुल गाँधी ने ही सार्वजनिक रुप से फाड़कर विरोध किया था | जब स्वयं बबूल का पेड़ लगाया था , तो मीठा आम कैसे मिलेगा ? यही नहीं वर्तमान मानहानि कानून में आवश्यक बदलाव के लिए सम्पादकों के संगठन कांग्रेस सरकार और भाजपा के नेताओं से आग्रह करते रहे , लेकिन तत्कालीन कानून मंत्री कपिल सिबल ने यह सुझाव नहीं माना | छत्तीसगढ़ , बिहार , पश्चिम बंगाल , केरल जैसे विभिन्न राज्यों में आलोचना करने वालों को इसी तरह के कानूनों के आधार पर प्रताड़ित किया जा रहा है | यह स्थिति क्या राजनीतिक पाखंड नहीं कही जाएगी ? इसी तरह संविधान के प्रावधान के अनुसार देश के सभी नागरिकों के लिए समान कानून लाए जाने के मोदी सरकार और विधि आयोग के प्रस्ताव पर इन ‘ राष्ट्रवादी ‘ नेताओं को आपत्ति हो रही है |
इसे भी वह राजनीतिक सहानुभूति समर्थन और लाभ का माध्यम बनाने की कोशिश कर रहे हैं | वह यह भूल जाते हैं कि मनमोहन सिंह की कांग्रेस सरकार द्वारा इस तरह की सजा की अवधि कम होने पर संसद की सदस्यता ख़त्म न होने का प्रावधान करने वाले प्रस्तावित विधेयक को खुद राहुल गाँधी ने ही सार्वजनिक रुप से फाड़कर विरोध किया था | जब स्वयं बबूल का पेड़ लगाया था , तो मीठा आम कैसे मिलेगा ? यही नहीं वर्तमान मानहानि कानून में आवश्यक बदलाव के लिए सम्पादकों के संगठन कांग्रेस सरकार और भाजपा के नेताओं से आग्रह करते रहे , लेकिन तत्कालीन कानून मंत्री कपिल सिबल ने यह सुझाव नहीं माना | छत्तीसगढ़ , बिहार , पश्चिम बंगाल , केरल जैसे विभिन्न राज्यों में आलोचना करने वालों को इसी तरह के कानूनों के आधार पर प्रताड़ित किया जा रहा है | यह स्थिति क्या राजनीतिक पाखंड नहीं कही जाएगी ? इसी तरह संविधान के प्रावधान के अनुसार देश के सभी नागरिकों के लिए समान कानून लाए जाने के मोदी सरकार और विधि आयोग के प्रस्ताव पर इन ‘ राष्ट्रवादी ‘ नेताओं को आपत्ति हो रही है |