भारतीयों का बढ़ता वर्चस्व अमेरिकियों को खटकने लगा

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आजकल अमेरिका में रहने वाले भारतीयों पर हमले तेज हो गए है। अमेरिकी कांग्रेस की सदस्य प्रेमा जयपाल को धमकी भरे संदेष मिल रहे हैं और उन्हें भारत लौटने को कहा जा रहा है। चंद दिनों के भीतर ही अमेरिका के विभिन्न क्षेत्रों में छह भारतीयों पर हमले हो चुके है। न्यूयाॅर्क में एक मंदिर के बाहर स्थापित गांधी जी की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त किया गया है। नस्लभेद से जुड़ी ज्यादातर ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट नहीं लिखी जा रही हैं। डोनाल्ड ट्रंप की चुनाव में हार के बाद अमेरिकियों की मानसिकता में बदलाव आया है। इसी मानसिकता के चलते एक साथ चार भारतीय मूल की महिलाओं पर मैक्सिको मूल की महिला ने टेक्सास में हमला करते हुए नस्लीय टिप्पणी भी की। हमलावर महिला एस्मेराल्डा अपटाॅन चिल्लाई थी, ‘हर जगह भारतीय दिख रहे हैं। भारतीय अमेरिका को बर्बाद कर रहे हैं, तुम लोग भारत वापस जाओ।‘ पीड़ित महिला रानी बनर्जी ने बताया कि वह गोली मारने की धमकी दे रही थी। इन हमलों के चलते इंडियन अमेरिकन इम्पैक्ट और हिंदूपैक्ट संगठन ने चिंता जताते हुए कहा है कि इस तरह के नफरत बढ़ाने वाले अपराध आम हो गए हैं। नस्लभेदी हमले से पीड़ित कुलदीप सिंह का कहना है कि यहां भारतीयों का वर्चस्व जिस तेजी से बढ़ रहा है, उससे अमेरिकियों की मानसिकता ईश्र्या की गिरफ्त में आ रही है। ब्रिटेन में भी हालात अच्छे नहीं हैं। ऋशि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री का चुनाव भले ही हार गए हैं, लेकिन इस बात को लेकर मूल फिरंगियों में यह नस्लीय चिंता बढ़ी है कि कोई भारतीय या विदेषी आखिरकार ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने की दोड़ में षामिल कैसे हो गया ?

 दुनिया जानती है कि डोनाल्ड ट्रंप प्रवासी मुक्त अमेरिका के मुद्दे पर चुनाव जीते थे। अमेरिका में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के दावों के बीच यदि किन्हीं व्यक्तियों पर केवल इसलिए हमले किए जाएं कि वह विदेषी हैं, तो यह चिंताजनक पहलू है। साफ है, मानवीयता व समता के दावे खोखले हैं। गौरतलब है कि 25 मई को अमेरिका के मिनेपोलिस में एक श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक शॉविन ने अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड को जमीन पर पटककर उसकी गर्दन तब तक अपने फौलादी घुटने से दबाए रखी, जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई। इस घटना के बाद हालात इतने नाजुक हो गए थे कि ट्रंप को बंकर में छिपना पड़ा और वाश्ंिागटन डीसी समेत देश के 40 शहरों में कफ्र्यू लगाना पड़ा था।

                अमेरिका में नस्लीय हिंसा का शिकार पांच साल पहले दो भारतीय युवा इंजीनियर हुए थे। इनमें से हैदराबाद के एक श्रीनिवास कुचिवोतला की मौके पर ही मौत हो गई थी, दूसरा अलोक मदसानी घायल हुआ था। हमलावर सेवानिवृत्त अमेरिकी नौसैनिक एडम पुरिनटोन था। गोली दागते हुए उसने नस्लीय टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘यहां से निकल जाओ मेरे देश के आतंकी हो तुम।‘ हमलावर ने इन भारतीयों को अरबी नागरिक मानकर गोली चलाई थी। यह हिंसक घटना नस्लीयता पर बहस के बाद सामने आई थी। इस घटना का सुखद एवं सहिष्णु पहलू यह रहा था। वहां मौजूद अमेरिकी नागरिक इयान ग्रिलोट ने अपनी जान की परवाह किए बिना हमलावर को पकड़ने की कोशिश की थी, लेकिन एडम ने उसे भी गोली मारकर जख्मी कर दिया था। घायल इयान ने बेहद संवेदनशील एवं मानवीय बयान देते हुए कहा था हमलावर कहां से था, किस नस्ल से था, मुझे इस बात से कुछ लेना-देना नहीं था। हम सभी इंसान हैं और इंसानियत के नाते मैंने हमलावर को पकड़ने की कोशिश की थी।

इन सकारात्मक और सहिष्णु हालातों के बावजूद अमेरिका में नस्लीय हमले जारी हैं। 15 अगस्त 2015 को रंगभेदी मानसिकता के चलते विस्कोशिन गुरुद्वारे पर हुए हमले में सात सिख मारे गए थे। बाद में हमलावर वेड माइकल पेज ने खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी। श्वेत नस्लवादी पेज फौज में नौकरी कर चुका था। इसके बाद न्यूजर्सी में 24 दिसंबर 2014 को गुजराती व्यापारी अश्वनी पटेल और फरवरी 15 में अमित पटेल की हत्याएं हुईं। 6 फरवरी 2015 को सुरेश भाई पटेल पर पुलिसकर्मियों ने ही बर्बर हमला किया था। इस हमले में वे स्थाई विकलांगता के शिकार हो गए। बाद में अदालत ने हमलावर पुलिसकर्मी एरिक पार्कर को बरी कर दिया। सुनंदों सेन को एक अमेरिकी महिला ने चलती भूमिगत रेल से सिर्फ इसलिए धक्का दे दिया था, क्योंकि वह रंगभेदी मानसिकता के चलते गैर अमेरिकियों से नफरत करने लगी थी। ऐरिका मेंडेज नाम की इस महिला ने अदालत में बेझिझक कबूल भी किया कि वह हिंदुओं, सिख और मुसलमानों से नफरत करती है, लिहाजा उसने सेन की हत्या करके कोई गलत काम नही किया है। दरअसल अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के लोगों पर हमले तेज हुए हैं। दाड़ी और पगड़ी वालों को लोग नस्लीय भेद की दृष्टि से देखने लगे हैं।

भारतीयों पर ये हमले इसलिए हो रहे है, क्योंकि 2018 में हुई अमेरिकी जनगणना के मुताबिक, वहां भारतीयों की संख्या 42 लाख पार कर गई हैं। यह अमेरिका में दूसरा बड़ा अप्रवासी समूह बन गया है। अमेरिकी कांग्रेस (सदन) में भारतीय मूल के पांच सदस्य हैं। 2021 में भारत से 2,32,851 छात्र अमेरिका पढ़ने गए थे। यूएस सिटीजनषिप एंड इमीग्रेषन सर्विसेज के अनुसार इनकी संख्या 12 प्रतिषत बढ़ी है। अमेरिकी दूतावास के अनुसार 2022 में अभी तक 86,000 भारतीय छात्रों को वीसा मिल चुका है। यह आंकड़ा अन्य देषों की तुलना में ज्यादा है। अमेरिका में पढ़ने वाले कुल विदेषी छात्रों में भारतीयों की संख्या 20 प्रतिषत हैं। कामगार वर्ग में भी यह संख्या बढ़ी है। 2021 के आंकड़ों के मुताबिक 27 लाख भारतीय सरकारी या गैर सरकारी नौकरी कर रहे हैं। भारतीयों का यही रसूख अमेरिकियों को खल रहा है।

                दरअसल अमेरिका में रंगभेद, जातीय भेद एवं वैमनस्यता का सिलसिला नया नहीं है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। इन जड़ों की मजबूती के लिये इन्हें जिस रक्त से सींचा गया था वह भी अश्वेतों का था। हाल ही में अमेरिकी देशों में कोलम्बस के मूल्यांकन को लेकर दो दृष्टिकोण सामने आये हैं। एक उन लोगों का है, जो अमेरिकी मूल के हैं और जिनका विस्तार व अस्तित्व उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों में है। दूसरा दृष्टिकोण या कोलम्बस के प्रति धारणा उन लोगांें की है जो दावा करते है कि अमेरिका का वजूद ही हम लोगों ने खड़ा किया है। इनका दावा है कि कोलम्बस अमेरिका में इन लोगों के लिए मौत का कहर लेकर आया। क्योंकि कोलम्बस के आने तक अमेरिका में इन लोगों की आबादी 20 करोड़ के करीब थी, जो अब घटकर 10 करोड़ के आस-पास रह गई है। इतने बड़े नरसंहार के बावजूद अमेरिका में अश्वेतों का संहार लगातार जारी है। अवचेतन में मौजूद इस हिंसक प्रवृत्ति से अमेरिका मुक्त तो नही हो पाया है।

                अमेरिका की कुल जनसंख्या 31.50 करोड़ है, इस आबादी की तुलना में उसका भू-क्षेत्र बहुत बड़ा, यानी 98,33,520 वर्ग किमी है। इतने बड़े भू-लोक के मालिक अमेरिका के साथ विडंबना यह भी रही है कि 15वीं शताब्दी तक उसकी कोई स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पहचान नहीं थी। दुनिया केवल एशिया, यूरोप और अफ्रीका महाद्वीपों से ही परिचित थी। 1492 में नई दूनिया की खोज में निकले क्रिस्टोफर कोलंबस ने अमेरिका की खोज की। हालांकि कोलंबस अमेरिका की बजाय भारत की खोज में निकला था। लेकिन रास्ता भटककर वह अमेरिका पहुंच गया। वहां के लोगों को उसने रेड इंडियन कहकर पुकारा। क्योंकि ये तांबई रंग के थे और प्राचीन भारतीयों से इनकी नस्ल मेल खाती थी। हालांकि इस क्षेत्र में आने के बाद कोलंबस जान गया था कि वह भारत की बजाय कहीं और पहुंच गया है। बावजूद उसका इस दुर्लभ क्षेत्र में आगमन इतिहास व भूगोल के लिए एक क्रांतिकारी पहल थी। कालांतर में यहां अनेक औपनिवेशिक शक्तियों ने अतिक्रमण किया। 17वीं शताब्दी में आस्ट्रेलिया और अन्य प्रशांत महासागरीय द्वीप समूहों की खोज कप्तान जेम्स कुक ने की। जेम्स ने यहां अनेक प्रवासियों की बस्तियों को आबाद किया।

                इसी क्रम में 1607 में अंगेजों ने वर्जीनियां में अपनी बस्तियां बसाईं। इसके बाद फ्रांस, स्पेन और नीदरलैंड ने उपनिवेश बनाए। 1733 तक यहां 13 बस्तियां अस्तित्व में आ गईं। इन सब पर ब्रिटेन का प्रभुत्व कायम हो गया। 1775 में ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध छिड़ गया। 4 जुलाई 1776 में जॉर्ज वाश्गिटंन के नेतृत्व में अमेरिकी जनता ने विजय प्राप्त कर ली और संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन कर स्वतंत्र और शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में वह अस्तित्व में आ गया। इसीलिए कहा जाता है कि अमेरिका के इतिहास व अस्त्तिव में दुनिया के प्रवासियों का बड़ा योगदान रहा है। साथ ही यहां एक बड़ा प्रश्न यह भी खड़ा हुआ कि अमेरिका महाद्वीप के जो रेड इंडियन नस्ल के मूल निवासी थे, वे हाशिये पर चले गए। गोया, मूल अमेरिकी तो वंचित रह गए, अलबत्ता विदेशी-प्रवासी प्रतिभावन किंतु चालाक अमेरिका के मालिक बन बैठे। अमेरिका-फस्र्ट की नीति महत्व देने के कारण भी रंगभेद बढ़ रहा है।

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प्रमोद भार्गव
प्रमोद भार्गव
वरिष्ठ पत्रकार व साहित्‍यकार प्रमोद भार्गव
अलंकृत डॉ. सरोजिनी कुलश्रेष्ठ सम्मान