वोट देने वाले का आशय सीधा, पर मतपत्र पर मुहर उल्टी!

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पंचायत के चुनाव सम्पन्न हो गए हैं, और अब जनपद पंचायतों और ज़िला पंचायतों के चुने हुए सदस्य अपने अपने निकायों के अध्यक्ष का चुनाव करेंगे। पंचायतों के विधिवत चुनाव, सबसे पहले राज्य चुनाव आयोग के गठन के पश्चात, श्री एन.बी. लोहानी साहब की देखरेख में सम्पन्न हुए थे, जो आयोग के अध्यक्ष थे, और राज्य के निकायों के निर्वाचन के अधिनियम और नियमों को सृजित करने के पितामह थे। राज्य निर्वाचन आयोग के निर्देश इतने विस्तृत और स्पष्ट बने थे, कि संशय की कोई गुंजाइश नहीं थी, लेकिन पहले चुनावों में फिर भी बड़ी आपाधापी रही।

उन दिनों मैं सिहोर में पदस्थ था, और मतपत्र छपाई का ज़िम्मा ज़िला प्रशासन का ही था, जो मेरे ही ज़िम्मे आया। एक साथ चार पदों के लिए मतपत्र डालने का अनुभव भी नया ही था, लिहाज़ा कुछ जगहों पर बड़ी मशक़्क़त झेलनी पड़ी। एक-आध स्थान पर तो हमने दोपहर के बाद जाकर बूथ और मतपत्र ठीक करवाए पर चुनाव सम्पन्न हो गए और ग़लतियों से सीख कर सभी ने आगे की प्रक्रियाओं में भरपूर सुधार किया। नए प्रावधानों में चुने हुए अध्यक्ष या सरपंच को अविश्वास मत से हटाने का प्रावधान भी है, पर ये कितना खींचतान भरा हो सकता है, इसका अनुभव मुझे उज्जैन में हुआ।

उज्जैन जनपद में अध्यक्ष पद पर उन दिनों कांग्रेस पार्टी की एक महिला अध्यक्ष निर्वाचित थीं, जिन्हें प्रदेश के मुखिया के अत्यंत निकट के वरिष्ठ सज्जन का आशीर्वाद था, पर कुछ ऐसा हुआ कि सदस्यों का भरोसा ही वे खो बैठीं और अविश्वास मत का प्रस्ताव प्रस्तुत हो गया। नियमों के अधीन तिथि निर्धारित हुई और मुझे इस प्रक्रिया का अभिहित अधिकारी बनाया गया। मैंने परिस्थिति का पता लगाया तो विदित हुआ कि बड़ा गहमागहमी का माहौल है, काँटे की टक्कर है, पर कुछ भी निश्चित नहीं है।

मैं उन दिनों एस.डी.एम. के पद पर था, तो सबसे पहले पर्याप्त फ़ोर्स लगाकर ऐसे लोगों का आना प्रतिबंधित किया जो वोट देने के अधिकारी नहीं थे, अवांछित लोग अपने आप कम हो गए। सभा प्रारम्भ हुई, मैंने सभी को सरल शब्दों में प्रक्रिया समझाई। लोगों को विश्वास मत के पक्ष या विपक्ष में हाँ या न में सही का निशान लगाना था। मतदान सम्पन्न होने के बाद जब मत गिने तो दो मत ऐसे थे जिन्होंने सही का निशान विरोध में लगाया तो था पर निशान उल्टा था। यदि ये दो मत निरस्त होते तो अध्यक्ष सुरक्षित रहती और यदि ये दो मत माने जाते तो अविश्वास का प्रस्ताव पास होता और जनपद अध्यक्ष को हटना पड़ता। मैंने पुनः नियमों का अध्ययन करना प्रारम्भ ही किया था, कि अचानक मोबाइल पर घंटी बजी, उठाया तो एक ऐसे सज्जन का फ़ोन था, जो मुख्यालय के पड़ोस के विधानसभा क्षेत्र के विधायक थे।

मैंने फ़ोन उठाया तो उन्होंने कहा इस परिस्थिति में क्या कर रहे हो? ऐसा तो स्पष्ट नहीं कहा कि मतों को अवैध घोषित करो पर बातचीत का अभिप्राय यही था। कहने लगे सोच समझ कर निर्णय लेना, अभी आपकी बहुत नौकरी है। मैंने सदाशयता से उत्तर दिया, सर आप चिंता ना करें मैं भी ये जानता हूँ कि अभी लम्बी नौकरी करनी है, इसलिए ग़लत निर्णय ना लूँगा। मैंने पाया कि वोट देने वाले का आशय स्पष्ट था अर्थात् वह विश्वास मत के विरोध में मतदान करना चाहता था, पर हो सकता है ज़्यादा पढ़ा लिखा न होने से अथवा मतपत्र उल्टा पकड़ लेने से निशान उल्टा लग गया था। मैंने दोनों मतों को वैध करार दिया और अध्यक्ष को हटना पड़ा। मैंने पाया कि मेरे उक्त निर्णय से अंततोगत्वा सभी प्रसन्न हुए यहाँ तक कि अपदस्थ हुई अध्यक्ष ने भी इस बात को अन्यथा नहीं लिया और पद से हटने पर भी उसके व्यवहार में खटास नहीं आयी।