
इंदौर की राजनीति के दाएं-बाएं: “पुराने चेहरे हाशिए पर, नई टीम के साथ सीएम मोहन यादव ने इंदौर पर कस ली पकड़”
– राजेश जयंत

INDORE: इंदौर की राजनीति इन दिनों एक चौराहे पर खड़ी है। यह शहर जिसने दशकों तक भारतीय जनता पार्टी के सबसे मज़बूत गढ़ के रूप में पहचान बनाई, आज उसी शहर की सियासत में पुराने समीकरण टूटते और नए बनते दिखाई दे रहे हैं।
ताज़ा तस्वीरें और बैठकों का क्रम यह साबित करने के लिए काफी हैं कि अब इंदौर की राजनीति का नियंत्रण मुख्यमंत्री मोहन यादव के हाथों में केंद्रीकृत हो चुका है और यह बदलाव केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि रणनीतिक है।

**पुरानी विरासत, नया प्रयोग**
इंदौर भाजपा के लिए हमेशा “आदर्श प्रयोगशाला” रहा है। कैलाश विजयवर्गीय से लेकर रमेश मेंदोला, मालिनी गौड़ और महेंद्र हार्डिया तक इन नेताओं ने संगठन, चुनाव और जनसंपर्क के मोर्चे पर वर्षों तक पार्टी को मज़बूती दी। मगर वक्त बदल चुका है। आज पार्टी को ज़रूरत है जनभावना, डिजिटल दक्षता और प्रशासनिक समन्वय के मेल की और यही वह क्षेत्र है जहां मोहन यादव अपनी छाप छोड़ते दिख रहे हैं।
मुख्यमंत्री बनने के बाद से उन्होंने इंदौर को न सिर्फ प्रशासनिक तौर पर, बल्कि राजनीतिक रूप से भी अपने प्रभाव क्षेत्र में शामिल कर लिया है।
इंदौर में उनका कार्यक्रम हो या संगठन की नियुक्ति- हर निर्णय उनकी स्वीकृति और निगरानी में आता दिखता है।
**गौरव रणदिवे और सावन सोनकर की एंट्री का संकेत**
हाल ही में भाजपा ने संगठन में गौरव रणदिवे और सावन सोनकर जैसे युवाओं को प्रमुख जिम्मेदारी देकर यह स्पष्ट कर दिया कि पार्टी अब “युवा प्रयोग” की दिशा में आगे बढ़ना चाहती है।
रणदिवे को प्रदेश महामंत्री का दायित्व सौंपा जाना इस बात का संकेत है कि अब निर्णय लेने की प्रक्रिया में इंदौर के वे चेहरे होंगे जो नए राजनीतिक मिज़ाज को समझते हैं, जनता से संवाद में सक्रिय हैं और “Digital Politics” का इस्तेमाल जानते हैं।
इन दोनों नेताओं की मुख्यमंत्री से मुलाकात ने सिर्फ संगठनात्मक नहीं, बल्कि राजनीतिक संकेत भी दे दिए हैं कि इंदौर का भविष्य पुराने समीकरणों से आगे बढ़कर नए नेतृत्व के इर्द-गिर्द तैयार होगा।

**सुमित्रा ताई का साया और पुष्यमित्र की प्रासंगिकता**
इंदौर की राजनीति की बात हो और सुमित्रा महाजन का नाम न आए, यह संभव ही नहीं।
वह वह चेहरा हैं जिनकी छाया में भाजपा ने न केवल शहर बल्कि प्रदेशभर में अपनी जड़ें जमाईं। हालांकि अब वे सक्रिय राजनीति से दूर हैं, लेकिन “ताई” का आशीर्वाद और नैतिक प्रभाव आज भी शहर की राजनीति में मौजूद है।
मोहन यादव की शैली में भी कहीं न कहीं सुमित्रा ताई की संगठनात्मक अनुशासन और जनसंपर्क नीति की झलक मिलती है।

वहीं, इंदौर नगर निगम के महापौर पुष्यमित्र भार्गव इस नए दौर के “संतुलन बिंदु” के रूप में उभर रहे हैं। वे नई पीढ़ी के शिक्षित और प्रशासनिक सोच वाले नेता हैं- जिन्होंने नगर निगम में अपने कार्यकाल के दौरान न केवल विकास कार्यों को तेज़ किया, बल्कि भाजपा के “गवर्नेंस मॉडल” को भी इंदौर में व्यवहारिक रूप दिया।
मुख्यमंत्री मोहन यादव के साथ उनकी नज़दीकियां यह इशारा देती हैं कि संगठन अब उन्हें एक “पुल” के रूप में देख रहा है- जहां पुरानी परंपरा और नई सोच का मिलन हो सकता है।
**क्या वरिष्ठ नेताओं का वनवास तय है?**

यह सवाल अब सिर्फ गलियारों तक सीमित नहीं रहा। इंदौर भाजपा में चार नाम ऐसे हैं जिन्हें “स्थापित स्तंभ” कहा जाता रहा– कैलाश विजयवर्गीय, रमेश मेंदोला, मालिनी गौड़, और महेंद्र हार्डिया। इन चारों ने अपने-अपने समय में पार्टी की जड़ें मज़बूत कीं, पर अब पार्टी की प्राथमिकताएं और कार्यशैली बदल रही है।

नई टीम में पीढ़ीगत बदलाव साफ नज़र आ रहा है। संगठन का फोकस “मैदान में सक्रियता” और “सार्वजनिक छवि” पर है, जबकि पुरानी पीढ़ी के कई नेता अब प्रशासनिक पहुंच और व्यक्तिगत वफादारी के दम पर टिके हुए दिखते हैं। राजनीति में यह स्थिति अक्सर संक्रमण का संकेत होती है- जहां अनुभव और ऊर्जा के बीच संतुलन बिगड़ता है, वहां नई लहर पुराने किनारों को काट देती है।

**मोहन यादव का “इंदौर मॉडल”**
मुख्यमंत्री मोहन यादव ने इंदौर के प्रति जिस प्रकार की सक्रियता दिखाई है, वह संकेत देता है कि अब यह शहर सीएम की राजनीतिक प्रयोगशाला बन चुका है। उन्होंने प्रशासनिक स्तर पर पहले ही कई फैसले सीधे इंदौर से जुड़े अधिकारियों के माध्यम से किए हैं, जिससे उनका नियंत्रण स्पष्ट झलकता है।
अब संगठन में भी वही ढर्रा अपनाया जा रहा है- “केंद्र से सीधा नियंत्रण, नीचे तक स्पष्ट दिशा।” इंदौर अब केवल एक शहर नहीं रहा, यह भाजपा के भविष्य की “नेतृत्व नीति” का प्रतीक बनता जा रहा है।जहां पार्टी यह परख रही है कि क्या वह पुराने नेतृत्व पर निर्भर रहे या नए चेहरों पर भरोसा करे जो आने वाले वर्षों में संगठन की कमान संभाल सकें।

**जनता की उम्मीदें, नेताओं की सीमाएं**
इंदौर देश के सबसे तेज़ी से विकसित होते शहरों में से एक है। यहां की जनता अब राजनीतिक बयानबाज़ी से ज़्यादा परिणाम चाहती है। साफ सड़कें, व्यवस्थित ट्रैफिक, बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, उद्यमिता को बढ़ावा- यही शहर का नया एजेंडा है। इसलिए, जो नेता जनता से संवाद में सक्रिय नहीं, वे अब सिर्फ नाम से राजनीति नहीं चला सकते। मोहन यादव का फायदा यही है कि वे प्रशासनिक तौर पर तेज़ और संगठनात्मक रूप से दृढ़ नेता माने जाते हैं। उन्होंने इंदौर को अपने “Signature City” के रूप में पेश करने का ठान लिया है और इस अभियान में उन्हें संगठन का भी पूरा समर्थन दिख रहा है।
**सत्ता और संगठन: नई लकीर, नया संतुलन**

भाजपा की परंपरा में संगठन और सरकार दो समानांतर ध्रुव रहे हैं।मगर इंदौर के ताज़ा घटनाक्रम ने यह स्पष्ट किया है कि अब दोनों ध्रुव मुख्यमंत्री के नेतृत्व में अभिसरण (merger) की ओर बढ़ रहे हैं।
संगठनात्मक नियुक्तियां, कार्यक्रमों की दिशा, यहां तक कि पार्टी के ज़मीनी कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री की सीधी भूमिका, सब यही दर्शाते हैं कि “अब दिल्ली नहीं, भोपाल से इंदौर की राजनीति तय होगी।”
**इंदौर का राजनीतिक भूगोल**
यदि विधानसभा क्षेत्रों के संदर्भ में देखा जाए तो इंदौर-1, इंदौर-2 और इंदौर-4 सबसे संवेदनशील राजनीतिक जोन हैं। यहां पिछले दो दशकों में भाजपा की जीत पक्की रही, लेकिन स्थानीय नाराज़गी और कार्यकर्ता असंतोष भी धीरे-धीरे पनपा है।
नए चेहरों को बढ़ावा देकर पार्टी शायद इस असंतोष को ठंडा करना चाहती है। “गौरव रणदिवे” और “सावन सोनकर” जैसे नामों की चर्चा इसी बदलाव की प्रस्तावना माने जा सकती है।
**क्या यह सत्ता हस्तांतरण की शुरुआत है?**
राजनीति में सत्ता कभी अचानक नहीं बदलती, वह धीरे-धीरे “स्थानांतरित” होती है। इंदौर में अब वही प्रक्रिया चल रही है। पुराने चेहरों की लोकप्रियता का उपयोग करते हुए, नया नेतृत्व संगठन की कमान और जनविश्वास दोनों को अपने पक्ष में मोड़ने की रणनीति पर काम कर रहा है। इसे आप “संन्यास की पटकथा” कह सकते हैं या “नए युग की प्रस्तावना”- लेकिन इतना तय है कि इंदौर की राजनीति अब पहले जैसी नहीं रहेगी।
**बदलाव अवश्यंभावी है**
इंदौर का राजनीतिक परिदृश्य इस समय एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। पुराने नेताओं की विरासत सम्मानजनक है, लेकिन राजनीति अब भावनाओं से ज़्यादा परिणाम की मांग करती है। मुख्यमंत्री मोहन यादव ने यह संदेश दे दिया है कि अब पार्टी में वही टिकेगा जो जनता और संगठन दोनों से जुड़ा रहेगा।
इंदौर की सियासत में अब “पुराना नहीं चलेगा”- यह केवल नारा नहीं, बल्कि भविष्य की दिशा का ऐलान है। जहां अनुभव का आदर होगा, लेकिन आगे बढ़ने की गाड़ी अब युवा नेतृत्व के हाथ में होगी। इंदौर के इस बदलाव को केवल “स्थानीय राजनीति” के रूप में न देखा जाए।यह भाजपा के भीतर नई पीढ़ी बनाम पुरानी परंपरा की वह कहानी है जो आने वाले वर्षों में पूरे मध्यप्रदेश की राजनीति को आकार देगी।इंदौर अब एक शहर नहीं, एक संकेत बन गया है कि राजनीति में ठहराव नहीं, केवल प्रवाह टिकता है।





