कल्चर के बदलाव में कहीं भटक न जाए नई पीढ़ी!

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कल्चर के बदलाव में कहीं भटक न जाए नई पीढ़ी!

‘बदलाव’ ऐसा शब्द है जो बहुत आसानी से बोल तो दिया जाता है! लेकिन, इसे स्वीकारना उतना ही मुश्किल है। शहरों में हर तरह का कल्चर बदल रहा है। दिन में खुलने वाला बाजार रात में भी खुलने लगा। किसी भी व्यवस्था के लिए बाजार का स्वरूप बदलना तो आसान है, पर इसकी चुनौतियों से मुकाबला करना नहीं! नाईट कल्चर यानी एक पूरी नई तरह की सोच है। इसका पुरानी पीढ़ी पर तो असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि उनकी खरीददारी दिन में ही हो जाएगी। लेकिन, नई पीढ़ी पर नाईट कल्चर ज्यादा असर डालेगी। क्योंकि, उनका सोच कच्चा होने के साथ इसे आत्मसात करने वाला नहीं है। ऐसे में परिवार की जिम्मेदारी ज्यादा बढ़ती है कि वे बदलाव के सकारात्मक और नकारात्मक परिणामों से अपने बच्चों को अवगत कराएं!

जब भी बदलाव की लहर दौड़ती है, तो उसका प्राथमिक बिंदु होता है नवाचार। पूरी दुनिया नवाचार के पीछे भागने लगती है। किंतु, लोग परिणाम के बारे में नहीं सोचते। नवाचार के परिणाम सदैव सुखद हो, यह कतई आवश्यक नहीं। नाईट कल्चर भी कुछ ऐसा ही विषय है। यह आज का नहीं अपितु मेट्रो सिटी में यह कल्चर कई सालों से चल रहा है। बल्कि, हम विदेशों की बात करें तो ऐसे कई लोग है जिनकी आजीविका का साधन ही नाईट शिफ्ट में जॉब करना है। इन दिनों नाईट कल्चर जैसे विषय पर बहुत बात हो रही है। दरअसल, नाईट कल्चर मुद्दा नहीं है। अगर विषय की बात की जाए तो जैसे-जीवन है वैसे मृत्यु है। और जैसे सुख है तो दुख भी है। उसी प्रकार अगर डे-कल्चर है तो नाईट कल्चर भी हैं। सवाल उठता है कि क्यों नाईट कल्चर को लेकर इतना बवाल मच रहा है।

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आज का युवा इतना स्वच्छंद है कि उसे अपने जीवन को अपने तरीके से व्यतीत करने के लिए नाईट कल्चर को ही अपनाने की आवश्यकता नहीं है। उसे जो शौक पूरे करना है, वह दिन में ही कर सकता है। कर भी रहा है। सवाल उठता है कि वह जो कर रहा है वह सही है या नहीं। इस चीज के लिए जिम्मेदार कौन है। बस यही शिक्षा जो है प्राथमिक शिक्षा कहलाती है जो हमें अपने घर से ही बच्चों को देनी होती है। मां-बाप को ही अपने बच्चों को सही और गलत की परिभाषा ठीक तरह से बताना होगी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है आज के परिजनों का अपने बच्चों के साथ खुलकर संवाद नहीं हो पाना। सभी की दिनचर्या इतनी बदल गई है कि बच्चा अपने में व्यस्त हैं और माता-पिता अपने में। बचे रात के कुछ एक-दो घंटे होते हैं जो रात्रि भोजन के होते हैं उस समय में भी घर का हर सदस्य अंतरजाल में उलझा हुआ है। किसी का एक-दूसरे से संवाद ही नहीं हो रहा। हम उसे ‘कम्युनिकेशन गैप’ भी कह सकते हैं।

किसी भी समझाइश के लिए संवाद सबसे जरूरी है। यह बदलाव इस तरीके से भी हो सकते है कि प्राथमिक स्तर पर स्कूलों में जाकर बच्चों के लिए जागरूकता अभियान चले। जिस प्रकार से गुड-टच, बैड-टच के बारे में पूरी दुनिया में बच्चों को बताया जाता है, उसी तरह से छोटे-छोटे विषयों के माध्यम से भी उन्हें सही और गलत बातों के बारे में समझाया जा सकता है। बल्कि, आजकल सोशल मीडिया के माध्यम से शॉर्ट फ़िल्में बनाकर इन्हीं विषयों पर बच्चों को शिक्षा दी जा सकती है। ऐसी शार्ट फ़िल्में दिखाएं जो रियल घटनाओं पर बनी हों! जो वास्तविक घटनाएं घटी हैं उन्हीं को फिल्मों में रूपांतरित कर बच्चों को एक उदाहरण के तौर पर समझाया जाए कि किस प्रकार छोटी-छोटी गलतियों से उनके भविष्य पर बुरा असर हो सकता है। इस तरह से समझाने पर कुछ बदलाव आना तो तय है।

बड़े शहरों में नाईट कल्चर व्यवसाय की दृष्टि से तो ठीक है। लेकिन, सामाजिक दृष्टिकोण से इसे सही नहीं कहा जा सकता। क्योंकि, इससे नई पीढ़ी पर गलत प्रभाव पड़ता है। बीते दिनों इंदौर में एक घटना हुई, जिसमें तीन लड़कियां एक लड़की को बुरी तरह से पीट रही थी। उसका वीडियो वायरल हुआ। बाद में जो कार्रवाई हुई वो अलग बात है। सवाल यह उठता है कि लड़कियों में सरेआम ये करने की हिम्मत कैसे आई! एक बात यह भी कि क्या वीडियो बनाने वाले ने एक बार भी नहीं सोचा कि उसे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए इसे रोकना चाहिए। हमारे यहां पहले सोशल मीडिया पर घटनाओं के वीडियो वायरल होती है, फिर वे परिसंवाद का विषय बनते हैं। टीवी, न्यूज़ चैनल पर मंच पर सामाजिक संगठन के पैरोकार उस पर वाद-विवाद करते हैं और निष्कर्ष निकालते हैं। किंतु इस बात पर कभी ध्यान नही दिया जाता है कि जो व्यक्ति वीडियो बना रहा था या आसपास घटना घटित होते देख रहा था। क्या उसकी जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि उसे उन्हें रोकना चाहिए था न कि वीडियो बनाना।

बदलाव की श्रृंखला बहुत लंबी और जटिल है। वास्तव में तो पूरे सिस्टम में ही बदलाव की जरूरत है। किंतु, अगर भटकाव से बचाने के लिए बदलाव करना है तो शुरुआत घर से ही परिजनों को ही करनी होगी, तभी परिणाम सुखद हो सकते हैं। आजकल बहुत आसानी से परिजन ही बच्चों के दिमाग में यह संदेश डालते है कि जिस प्रकार का जीवन हमने व्यतीत किया हम अपने बच्चों को उससे बेहतर जिंदगी देंगे। बेशक यही तो जिंदगी का फलसफा है कि आप खुद से बेहतर जिंदगी अपनी आने वाली पीढ़ी को दें। किंतु, कम से कम आप उसे अपनी संस्कृति अपनी वेशभूषा से परिचित करवाएं, उसे स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच जो छोटा सा अंतर है उसे बहुत ही गहराई से समझाएं।

यहां पर माता पिता होने के नाते जिम्मेदारी आपकी इसलिए होती है। क्योंकि, बच्चों की वही उम्र होती है जहां पर बहुत आसानी से वे दिशा पकड़ते हैं। वे कौन सी दिशा पकड़ रहे हैं इस पर भी हमारा पूरा ध्यान होना चाहिए। अगर हम उन्हें बाहर एजुकेशन के लिए भेज रहे हैं, तो संभव हो तो एक परिवार जन उनके साथ रहे। हमें उनकी गतिविधियों पर ध्यान रखना चाहिए। उनके साथ दोस्ताना व्यवहार रखें, ताकि वे अपने मन की बात आपके साथ खुलकर साझा कर सकें। हम पूरा सिस्टम तो नहीं बदल सकते किंतु छोटे-छोटे प्रयासों से कुछ बदलाव तो कर ही सकते हैं। जब हम बदलेंगे तो समाज बदलेगा और इसी तरह बदलाव आता रहेगा।

 

Author profile
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वाणी अमित जोशी

वाणी जोशी कई सालों से साहित्य लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। वे सामाजिक विषयों पर लेख लिखती हैं, साथ ही कविताएं और गीत भी लिखती हैं। साहित्यिक मंचों पर वे सूत्रधार की भूमिका भी निभाती हैं। देशभर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख और कविताएं प्रकाशित होती हैं।