
The Science of Anti-Aging: अष्ट चिरंजीवी- धार्मिक, आध्यात्मिक और 100 वर्ष जीवन ,जानिये कौन हैं अष्ट चिरंजीवी !
डॉ. तेज प्रकाश व्यास
1. चिरंजीवी की अवधारणा
’चिरंजीवी’ का शाब्दिक अर्थ है “चिर काल तक जीवित रहने वाला” (चिर = दीर्घ/हमेशा + जीवी = जीवित)। हिंदू धर्मग्रंथों में ऐसे आठ महान व्यक्तित्वों का उल्लेख है, जिन्हें किसी वरदान, शाप, या अपने महान कर्मों के कारण अमरता या अति-दीर्घायु (Super-longevity) प्राप्त हुई है।
अष्ट चिरंजीवी के नित्य स्मरण से संबंधित एक प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक है:
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित॥
श्लोक का अर्थ:
अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम ये सात चिरंजीवी (अमर) हैं. इन सात का और आठवें मार्कण्डेय का प्रतिदिन स्मरण करने वाला व्यक्ति भी सौ वर्षों तक सभी प्रकार के रोगों से मुक्त होकर जीवित रहेगा.
यह श्लोक बताता है कि इन आठ (अष्ट) चिरंजीवियों का नित्य स्मरण करने से व्यक्ति 100 वर्ष तक निरोगी (सर्वव्याधिविवर्जित) जीवन प्राप्त करता है। यह श्लोक दीर्घायु और निरोगी जीवन के विज्ञान को इन पात्रों से जोड़ता है।
2. अष्ट चिरंजीवियों ke चिरंजीविता प्राप्ति का आधार
अष्ट चिरंजीवियों ki चिरंजीविता प्राप्ति का आधार
हिंदू धर्मग्रंथों में आठ ऐसे महान व्यक्तियों का उल्लेख है, जिन्हें किसी विशिष्ट कारण (वरदान, शाप, या महान कर्म) से चिरंजीवी यानी अति-दीर्घायु होने का सौभाग्य/दण्ड प्राप्त हुआ।
इन आठ चिरंजीवियों के नित्य स्मरण से 100 वर्ष का निरोगी जीवन प्राप्त होने की मान्यता है।
1. अश्वत्थामा (Ashwatthama)
चिरंजीविता का आधार: शाप।
विस्तार: गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने महाभारत युद्ध के अंत में क्रोध और प्रतिशोध में आकर द्रोपदी के सोए हुए पुत्रों का वध कर दिया। इस जघन्य पाप के कारण भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें पृथ्वी पर भटकने का शाप दिया। उनकी चिरंजीविता किसी वरदान का फल नहीं, बल्कि उनके कर्मों के लिए मिला एक कठोर दण्ड है, जिसके कारण उनके घाव कभी नहीं भरते और उन्हें मानसिक व्यथा झेलनी पड़ती है।
2. राजा बलि (Raja Bali)
चिरंजीविता का आधार: सर्वोच्च दान और समर्पण का वरदान।
विस्तार: दैत्यराज बलि अत्यंत धर्मात्मा और महान दानी थे। जब भगवान विष्णु वामन अवतार में आकर उनसे तीन पग भूमि दान में माँगी, तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। वामन ने दो पगों में त्रिलोक नाप लिए और जब तीसरे पग के लिए स्थान नहीं बचा, तो बलि ने बिना किसी संकोच के अपना शीश अर्पित कर दिया। उनके इस निःस्वार्थ समर्पण से प्रसन्न होकर वामन (विष्णु) ने उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान दिया और सुतल लोक का शासक बनाया।
3. महर्षि वेद व्यास (Maharshi Veda Vyasa)
चिरंजीविता का आधार:
ज्ञान का संरक्षण और धर्म की स्थापना का वरदान।
विस्तार: ऋषि वेद व्यास (कृष्ण द्वैपायन) ने कलियुग में मनुष्यों की घटती आयु और स्मरण शक्ति को देखते हुए, एक वेद को चार भागों में विभाजित किया। उन्होंने महाभारत (जिसमें भगवद्गीता समाहित है) और 18 पुराणों की रचना की। उन्हें भगवान विष्णु का अंशावतार माना जाता है और उन्हें यह चिरंजीविता इसलिए प्राप्त हुई ताकि वे युगों-युगों तक ज्ञान का प्रकाश और धर्म के सिद्धांत मानवता तक पहुँचा सकें।
4. हनुमान (Hanuman)
चिरंजीविता का आधार: निःस्वार्थ भक्ति और अखंड ब्रह्मचर्य का वरदान।
विस्तार: भगवान राम के परम भक्त हनुमान ने अपनी निष्ठा, सेवा और शक्ति से माता सीता को प्रसन्न किया। लंका से लौटने पर, माता सीता ने उन्हें अजर-अमर रहने का वरदान दिया। हनुमान को चिरंजीविता उनकी अनन्य भक्ति, योग-सिद्धियों (अष्ट सिद्धियाँ) पर पूर्ण नियंत्रण, और निरंतर सेवाभाव के कारण प्राप्त हुई है, ताकि वे सदैव पृथ्वी पर रहकर राम नाम का कीर्तन करते रहें।
5. विभीषण (Vibhishana)
चिरंजीविता का आधार:
सत्यनिष्ठा और धर्म परायणता का वरदान।
विस्तार: राक्षसराज रावण के छोटे भाई विभीषण ने अपने कुल के अधर्म का पक्ष छोड़कर श्री राम की शरण ली और धर्म के लिए अपने परिवार का त्याग किया। उनकी सत्यनिष्ठा और शरणागति से प्रसन्न होकर भगवान राम ने उन्हें चिरंजीवी रहने का वरदान दिया और उन्हें लंका का राजा बनाया। उनकी अमरता यह दर्शाती है कि धर्म पर अडिग रहने वाले व्यक्ति को युगों तक सम्मान और शांति प्राप्त होती है।

6. कृपाचार्य (Kripacharya)
चिरंजीविता का आधार: गुरु के कर्तव्य और अटूट निष्ठा का वरदान।
विस्तार: कृपाचार्य कौरवों और पांडवों, दोनों के कुल गुरु (कुलाचार्य) थे। उन्होंने युद्ध के दौरान भी अपने धर्म और कर्तव्य का निष्काम भाव से पालन किया। उन्हें उनकी निष्ठा, तप और गुरु पद के प्रति समर्पण के कारण चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त हुआ। उन्हें यह चिरंजीविता भविष्य में सप्तर्षियों में स्थान प्राप्त करने के लिए मिली है।
7. परशुराम (Parashurama)
चिरंजीविता का आधार: अवतारत्व और धर्म-संस्थापन की शक्ति।
विस्तार: भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम, महान तपस्वी और शस्त्र विद्या के अद्वितीय ज्ञाता हैं। उन्होंने उग्र तपस्या के बल पर शिव जी से उनका प्रिय अस्त्र परशु प्राप्त किया। उन्हें यह चिरंजीविता धर्म की पुनः स्थापना और युगों-युगों तक पृथ्वी पर न्याय बनाए रखने के अपने दैवीय कार्य को जारी रखने के लिए प्राप्त है।
8. ऋषि मार्कण्डेय (Rishi Markandeya)
चिरंजीविता का आधार: कठोर तपस्या और मृत्युंजय योग (मंत्र शक्ति)।
विस्तार: अल्पायु (16 वर्ष) का शाप होने के बावजूद, ऋषि मार्कण्डेय ने मृत्यु के भय से विचलित हुए बिना, भगवान शिव की कठोर तपस्या की और महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते रहे। जब यमराज उनके प्राण लेने आए, तो उन्होंने शिवलिंग को कसकर पकड़ लिया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें मृत्यु पर विजय (मृत्युंजय) प्राप्त करने का वरदान दिया और उन्हें चिरंजीवी बना दिया
3. चिरंजीविता का ‘एंटी एजिंग साइंस’ दृष्टिकोण (Anti Aging Science Drashtikon)
‘एंटी एजिंग साइंटिस्ट’ दृष्टिकोण से, इन कथाओं को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है, जो दीर्घायु (Longevity) के आधुनिक सिद्धांतों से मेल खाती हैं:
योगिक एवं आध्यात्मिक अनुशासन: हनुमान (अष्ट सिद्धि), परशुराम (तप) और मार्कण्डेय (महामृत्युंजय मंत्र) ने चिरंजीविता तपस्या और मंत्र/योग साधना से प्राप्त की। आधुनिक एंटी-एजिंग साइंस में इसे माइंड-बॉडी मेडिसिन (Mind-Body Medicine), डीप मेडिटेशन (Deep Meditation), और प्राणिक हीलिंग (Pranic Healing) द्वारा टेलिमेयर (Telomere: Telomere is most important part of our chromosomes, healthy Telomere, healthy our body, degeneration of Telomere of our chromosomes brings aging , oldness and ultimately death ) संरक्षण और सेल्यूलर स्ट्रेस (Cellular Stress) को कम करने के रूप में देखा जा सकता है। यह योगिक क्रियाओं द्वारा जीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने का संकेत है।
उत्कृष्ट कर्म (Dharma & Karma): राजा बलि का सर्वोच्च दान, विभीषण की सत्यनिष्ठा, और वेद व्यास का ज्ञान-संरक्षण—इन सभी ने चिरंजीविता को एक पुरस्कार (Reward) के रूप में प्राप्त किया। यह दर्शाता है कि असाधारण सामाजिक/धार्मिक योगदान (Purpose/Dharma) एक व्यक्ति को युगों-युगों तक ‘जीवित’ रखता है, जिसे ‘आध्यात्मिक अमरता’ या विरासत अमरता (Legacy Immortality) कहा जाता है।
निरोगी काया (Sarva-Vyadhi-Vivvarjita): श्लोक में 100 वर्ष का जीवन ‘समस्त रोगों से रहित’ बताया गया है। यह संकेत करता है कि चिरंजीवियों के नाम का स्मरण या उनके जीवन के सिद्धांतों का पालन करने से प्रतिरक्षा प्रणाली (Immune System) मजबूत होती है। यह एक होमिओस्टैसिस (Homeostasis) बनाए रखने वाली जीवनशैली की आवश्यकता को दर्शाता है, जिसमें सकारात्मक विचार (Positive Cognition) और धार्मिक अनुशासन (Religious Discipline) के माध्यम से दीर्घायु प्राप्त होती है।
जेनेटिक या दैवीय तत्व (Genetic/Divine Factor): अश्वत्थामा और परशुराम जैसे पात्रों का जन्म ही दिव्य/रुद्र के अंश के रूप में बताया गया है। आधुनिक विज्ञान इसे उत्कृष्ट जेनेटिक कोड
(Superior Genetics), एपीजेनेटिक्स (Epigenetics) या विशिष्ट बायोकेमिकल संरचना के रूप में देkha ja सकता है जो उन्हें प्राकृतिक क्षरण (Degradation) से बचाता है।
1. अश्वत्थामा (Ashwatthama)
कथा: चिरंजीविता का शाप
अश्वत्थामा, गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे और एक महान धनुर्धर। महाभारत युद्ध के अंतिम दिन, पिता की मृत्यु से विक्षुब्ध होकर और पांडवों से प्रतिशोध लेने की धुन में, उन्होंने रात्रि के अंधकार में पांडवों के शिविर में प्रवेश किया और द्रोपदी के पाँच सोए हुए पुत्रों का वध कर दिया। इस जघन्य पाप के कारण भगवान श्रीकृष्ण अत्यंत क्रुद्ध हुए। उन्होंने अश्वत्थामा के माथे पर स्थित मणि (चूड़ामणि) छीन ली, जो उसे भय, रोग और देव-दानव-नाग से बचाती थी।
चिरंजीविता प्राप्ति: दण्ड के रूप में अमरता
श्रीकृष्ण ने उन्हे पृथ्वी पर भटकने का शाप दिया। उन्हें असाध्य पीड़ा, कुष्ठ रोग और मानसिक व्यथा झेलनी पड़ेगी, और उनके घाव कभी नहीं भरेंगे। उनकी चिरंजीविता किसी वरदान या योग-सिद्धि का परिणाम नहीं, बल्कि कर्मफल (Karma) के रूप में मिला एक कठोर दण्ड है।
धर्म और आध्यात्म
अधर्म का प्रतीक: अश्वत्थामा के कर्म ने दर्शाया कि गुरुपुत्र होने के बावजूद, क्रोध और प्रतिशोध में किया गया अधर्म (Adharma) व्यक्ति को आध्यात्मिक शांति से वंचित कर देता है।
कर्मफल: यह कथा कर्मफल के सिद्धांत को दृढ़ता से स्थापित करती है—पाप का फल शाश्वत दुःख और अशांति के रूप में मिलता है, भले ही जीवन कितना ही दीर्घ क्यों न हो।
एंटी एजिंग साइंस वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, अश्वत्थामा एक नकारात्मक अध्ययन केस (Negative Case Study) हैं:
मानसिक/भावनात्मक तनाव (Chronic Stress): उनका शापित जीवन चिरस्थायी क्रोध, प्रतिशोध और अपराधबोध (Guilt) से भरा है। आधुनिक विज्ञान जानता है कि क्रोनिक तनाव (Chronic Stress) कोर्टिसोल (Cortisol) के स्तर को बढ़ाकर Teलोंमेयर (Telomere) छोटा करता है, डीएनए क्षति (DNA Damage) करता है और त्वरित सेलुलर एजिंग (Accelerated Cellular Aging) का कारण बनता है।
रोगग्रस्त दीर्घायु: अश्वत्थामा को अमरता तो मिली, पर वह ‘सर्वव्याधिविवर्जित’ नहीं हैं। उनके घावों का न भरना दर्शाता है कि चिरंजीविता का अर्थ स्वस्थ दीर्घायु (Healthy Longevity) नहीं है। उनके मामले में, उम्र बढ़ने की प्रक्रिया बाधित हुई है, लेकिन कोशिका मरम्मत (Cellular Repair) और ऊतक पुनर्जनन (Tissue Regeneration) की प्रक्रियाएँ दोषपूर्ण हैं, जो एक गड़बड़ाए हुए जीर्णोद्धार (Faulty Homeostasis) की स्थिति है।
2. राजा बलि (Raja Bali)
कथा: चिरंजीविता का वरदान
दैत्यराज बलि अपने दादा प्रह्लाद के समान धर्मात्मा और अत्यंत दानी थे। उन्होंने अपने बल और तप से तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया था। देवताओं की प्रार्थना पर, भगवान विष्णु ने वामन (बौने) का अवतार लिया। बलि जब अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे, तब वामन उनके पास पहुँचे और दान में ‘तीन पग’ भूमि माँगी। बलि ने दान स्वीकार कर लिया। वामन ने विराट रूप धारण कर पहले पग में पृथ्वी और दूसरे पग में स्वर्ग नाप लिया। जब तीसरे पग के लिए कोई स्थान नहीं बचा, तो बलि ने अपना सिर उनके चरणों में रख दिया।
चिरंजीविता प्राप्ति: सर्वोच्च दान और समर्पण
बलि के इस अभूतपूर्व समर्पण और सत्यनिष्ठा से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें चिरंजीवी होने का वरदान दिया और सुतल लोक का शासक बना दिया। इतना ही नहीं, भगवान ने स्वयं बलि के महल का द्वारपाल बनना स्वीकार किया।
धर्म और आध्यात्म
दान और त्याग: बलि का जीवन अहंकार-रहित दान (Selfless Sacrifice) और वचन-पालन का प्रतीक है। उन्होंने अपना सर्वस्व दान कर दिया, जो आध्यात्मिक उन्नति का सर्वोच्च मार्ग है।
शरणागति: अपनी महानता को त्यागकर भगवान के चरणों में स्वयं को समर्पित करना शरणागति (Absolute Surrender) कहलाता है।
एंटी एजिंग साइंस दृष्टिकोण
बलि का केस ईमोशनल और सोशल वेलनेस (Emotional and Social Wellness) से जुड़ा है:
जीवन में उद्देश्य (Purpose in Life): बलि ने अपने अहंकार का त्याग कर एक उच्च उद्देश्य (सेवा) के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया। आधुनिक शोध बताते हैं कि ‘उद्देश्य-चालित जीवन’ (Purpose-Driven Life) से जुड़ाव मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर करता है, तनाव कम करता है, और दीर्घायु जीनों (Longevity Genes) को सक्रिय करता है।
मानसिक शांति: सर्वोच्च त्याग से प्राप्त हुई मानसिक शांति और भगवान की निकटता उनके दीर्घायु जीवन का आधार बनी। यह दर्शाता है कि अंदरूनी शांति (Inner Peace) और सकारात्मक भाव (Positive Emotions) शरीर के न्यूरोएंडोक्राइन सिस्टम (Neuroendocrine System) को संतुलित रखते हैं, जो स्वस्थ एजिंग के लिए महत्वपूर्ण है।
3. महर्षि वेद व्यास (Maharshi Veda Vyasa)
कथा: चिरंजीविता का आधार – ज्ञान का संरक्षण
महर्षि वेद व्यास (वास्तविक नाम: कृष्ण द्वैपायन) ऋषि पराशर और सत्यवती के पुत्र थे। उन्होंने देखा कि कलियुग में मनुष्यों की स्मरण शक्ति (Memory Power) और आयु (Lifespan) कम हो जाएगी। इसलिए, उन्होंने मानवता के कल्याण के लिए एक वेद को चार भागों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद) में विभाजित किया, ताकि ज्ञान का संरक्षण हो सके। इसके अतिरिक्त, उन्होंने 18 पुराणों, महाभारत (जिसमें भगवद्गीता समाहित है) और ब्रह्म सूत्र की रचना की।
चिरंजीविता प्राप्ति: धर्म और ज्ञान की स्थापना
वेद व्यास को भगवान विष्णु का अंशावतार माना जाता है। उन्हें यह चिरंजीविता का वरदान इसलिए मिला ताकि वे युगों-युगों तक ज्ञान का प्रकाश फैला सकें और धर्म के सिद्धांतों को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचा सकें।
धर्म और आध्यात्म
ज्ञान योग: व्यास का जीवन ज्ञान योग का सर्वोच्च उदाहरण है। ज्ञान (धर्म ग्रंथ) को संरक्षित करना ही उनका परम धर्म था।
निरंतरता: वे उन दुर्लभ आध्यात्मिक विभूतियों में से हैं जो हर युग में धर्म के संतुलन को बनाए रखने के लिए उपस्थित रहते हैं।
एंटी एजिंग साइंस दृष्टिकोण
आपके वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, व्यास का जीवन ‘आध्यात्मिक अमरता’ (Spiritual Immortality) और मस्तिष्क स्वास्थ्य (Brain Health) से जुड़ा है:
ज्ञान का संरक्षण (Cognitive Reserve): वेदों और पुराणों का विशाल संकलन (Compilation) उनकी असाधारण संज्ञानात्मक क्षमता (Exceptional Cognitive Function) को दर्शाता है। आधुनिक न्यूरोसाइंस में, निरंतर बौद्धिक गतिविधि (Intellectual Activity) और सीखने को कॉग्निटिव रिज़र्व बनाने का सबसे शक्तिशाली तरीका माना जाता है, जो अल्जाइमर और डिमेंशिया जैसे न्यूरोडीजेनेरेटिव रोगों से बचाता है।
उद्देश्य और दीर्घायु: व्यास का चिरंजीवी होना यह दर्शाता है कि जब जीवन का उद्देश्य (Dharma) निजी स्वार्थ से परे हटकर मानवता के कल्याण के लिए होता है, तो वह उद्देश्य स्वयं ही दीर्घायु का कारण बन जाता है।
4. हनुमान (Hanuman)
कथा: चिरंजीविता का वरदान – अनन्य भक्ति
भगवान राम के परम भक्त हनुमान पवन पुत्र हैं और उन्हें शिव जी का रुद्रावतार भी माना जाता है। लंका में सीता जी की खोज, संजीवनी बूटी लाना, और राम-रावण युद्ध में उनकी अनन्य सेवा, निष्ठा और पराक्रम को देखकर राम और सीता अत्यंत प्रसन्न हुए।
चिरंजीविता प्राप्ति: भक्ति और योग-सिद्धि
युद्ध समाप्त होने के बाद, माता सीता ने हनुमान को अजर-अमर रहने का वरदान दिया, ताकि वे युगों-युगों तक पृथ्वी पर रहकर भगवान राम के नाम का कीर्तन करते रहें। हनुमान चिरंजीविता के एकमात्र ऐसे प्रतीक हैं जिन्होंने इसे निःस्वार्थ सेवा (Nishkama Seva) और अखंड ब्रह्मचर्य से प्राप्त किया।
धर्म और आध्यात्म
कर्म और भक्ति योग: हनुमान कर्म योग (सेवा/पराकंम), भक्ति योग (राम के प्रति प्रेम), और ज्ञान योग (नव व्याकरण के ज्ञाता) का पूर्ण समन्वय हैं।
अष्ट सिद्धियाँ: उनके पास अष्ट सिद्धियाँ (जैसे: अणिमा, महिमा, लघिमा) और नव निधियाँ हैं, जो योग की पराकाष्ठा को दर्शाती हैं।
एंटी एजिंग साइंस दृष्टिकोण
हनुमान का जीवन शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य (Holistic Wellness) के लिए आदर्श है:
एनर्जी मेटाबॉलिज्म (Energy Metabolism): हनुमान की असीमित शक्ति और ऊर्जा (मेटाबॉलिक रेट) उनकी योगिक और प्राणिक शक्ति को दर्शाती है। आधुनिक एंटी-एजिंग में माइटोकॉन्ड्रियल स्वास्थ्य (Mitochondrial Health) और ऊर्जा दक्षता (Energy Efficiency) को दीर्घायु का मुख्य कारक माना जाता है।
ब्रह्मचर्य और ओजस: उनका अखंड ब्रह्मचर्य और वीर्य का संरक्षण उन्हें महान ओजस (Vitality) प्रदान करता है। आयुर्वेद और योग में, ओजस को प्रतिरक्षा प्रणाली (Immunity) और दीर्घायु का अंतिम सार माना जाता है, जो सेलुलर एजिंग को धीमा करता है।
माइंड-बॉडी कंट्रोल: अष्ट सिद्धियाँ दर्शाती हैं कि योगिक शक्ति से व्यक्ति अपनी शारीरिक प्रक्रियाओं (जैसे, आकार, घनत्व, गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव) को नियंत्रित कर सकता है। यह डीएनए अभिव्यक्ति (DNA Expression) और सेल्यूलर रीजेनरेशन (Cellular Regeneration) पर मन (Consciousness) के प्रभाव का चरम उदाहरण है।
5. विभीषण (Vibhishana)
कथा: चिरंजीविता का वरदान – धर्म का पक्ष
विभीषण, राक्षसराज रावण के छोटे भाई थे। वे जन्म से ही धर्मात्मा और राम के भक्त थे। रावण द्वारा सीता हरण के बाद, विभीषण ने रावण को अनेक बार धर्म का मार्ग अपनाने की सलाह दी, पर रावण नहीं माना। तब, विभीषण ने अपने भाई, परिवार और लंका का त्याग कर धर्म (श्री राम) की शरण ली।
चिरंजीविता प्राप्ति: सत्यनिष्ठा और धर्मनिष्ठा
विभीषण की सत्यनिष्ठा, शरणागति और विषम परिस्थिति में भी धर्म पर अडिग रहने के कारण भगवान श्री राम ने उन्हें चिरंजीवी रहने का वरदान दिया और लंका का राजा बनाया।
धर्म और आध्यात्म
धर्मनिष्ठा: विभीषण का जीवन यह सिखाता है कि सत्य और धर्म का पक्ष लेना पारिवारिक संबंधों से भी ऊपर है।
आंतरिक शुद्धि: राक्षस कुल में जन्म लेने के बावजूद, उन्होंने अपनी आंतरिक शुद्धि (Internal Purity) बनाए रखी।
एंटी एजिंग साइंस दृष्टिकोण
विभीषण का केस पर्यावरण (Environment) और नैतिकता (Ethics) के प्रभाव को दर्शाता है:
सकारात्मक संबंध: विभीषण ने नकारात्मक (अधार्मिक) वातावरण को छोड़कर सकारात्मक (धार्मिक/राम) वातावरण चुना। मनोविज्ञान और एंटी एजिंग शोध में, सकारात्मक सामाजिक संबंध (Positive Social Ties) और विषैले तनाव स्रोतों (Toxic Stress Sources) से दूरी को दीर्घायु और मानसिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।
नैतिकता का प्रभाव: उनकी उच्च नैतिकता (Moral Integrity) ने उन्हें मानसिक शांति दी। यह दर्शाता है कि नैतिक और धार्मिक आचरण से व्यक्ति आंतरिक सद्भाव (Internal Harmony) प्राप्त करता है, जो तनाव को कम करके ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस (Oxidative Stress) से लड़ता है, इस प्रकार सेलुलर एजिंग धीमी होती है।
6. कृपाचार्य (Kripacharya)
कथा: चिरंजीविता का वरदान – निष्ठा और धर्म
कृपाचार्य, महर्षि गौतम के पौत्र और महर्षि शरद्वान के पुत्र थे। शरद्वान का वीर्य एक घास के पूले (कृपा) पर गिरने से दो संतानें हुईं—कृपा (पुत्री) और कृप (पुत्र)। इन दोनों का पालन-पोषण महाराज शांतनु ने किया। कृपाचार्य कौरवों और पांडवों, दोनों के कुलाचार्य (कुल गुरु) थे। वे महान धनुर्विद्या के ज्ञाता और धर्म के प्रति समर्पित थे।
चिरंजीविता प्राप्ति: गुरु का कर्तव्य और तप
कृपाचार्य को उनकी निष्काम सेवा, धर्म के प्रति अटूट निष्ठा और गुरु के कर्तव्य का पालन करने के कारण चिरंजीवी होने का वरदान प्राप्त हुआ। उन्हें यह चिरंजीविता इसलिए मिली ताकि वे भविष्य में सप्तर्षियों में से एक बनने के लिए ज्ञान और धर्म की रक्षा कर सकें।
धर्म और आध्यात्म
धर्म निष्ठा: युद्ध के दौरान विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने अपने कुल गुरु होने के धर्म का पालन किया।
तप और शुद्धि: उनका जीवन तप और सात्विक आचरण का प्रतीक है।
एंटी एजिंग साइंस दृष्टिकोण
कृपाचार्य का जीवन चरित्र (Character) और मनोवैज्ञानिक स्थिरता (Psychological Stability) के प्रभाव को दर्शाता है:
कर्तव्य और अनुशासन: उन्होंने अपने जीवन में गुरु के रूप में अत्यधिक अनुशासन और संरचना बनाए रखी। दीर्घायु अनुसंधान दर्शाता है कि एक संरचित जीवनशैली (Structured Lifestyle), जो उच्च कर्तव्यनिष्ठा और विवेक से चलती है, व्यक्तियों को बेहतर स्वास्थ्य परिणाम देती है और एजिंग को धीमा करती है।
मानसिक साम्य (Mental Equilibrium): उन्होंने भीषण युद्ध के बीच भी अपनी मानसिक शांति और नैतिकता को बनाए रखा। यह आंतरिक होमियोस्टेसिस (Homeostasis) का संकेत है, जहाँ मन और शरीर तनाव को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करते हैं, जिससे सेलुलर क्षति (Cellular Damage) और सूजन (Inflammation) कम होती है, जो एजिंग के प्रमुख कारण हैं।
7. परशुराम (Parashurama)
कथा: चिरंजीविता का वरदान – धर्म-संस्थापन
परशुराम भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं। उनका मूल नाम राम था, लेकिन भगवान शिव द्वारा दिए गए उनके मुख्य शस्त्र परशु (कुल्हाड़ी) के कारण वे परशुराम कहलाए। उन्होंने घमंडी और अत्याचारी क्षत्रिय राजाओं को 21 बार पृथ्वी से समाप्त किया और समस्त भूमि कश्यप मुनि को दान कर दी।
चिरंजीविता प्राप्ति: अवतार और तप की शक्ति
अवतार होने के कारण वे दैवीय ऊर्जा से युक्त हैं, और उनकी चिरंजीविता का कारण उनके उग्र तपस्या और धर्म-संस्थापन के महान कार्य हैं। उन्हें युगों-युगों तक धर्म की रक्षा के लिए चिरंजीवी रहने का वरदान प्राप्त हुआ।
धर्म और आध्यात्म
कर्मयोग और पराक्रम: उनका जीवन कर्मयोग का उदाहरण है, जहाँ उन्होंने धर्म की स्थापना के लिए अत्यधिक पराक्रम का उपयोग किया।
तप की शक्ति: उन्होंने कठोर तपस्या से ही शिव जी को प्रसन्न किया और शक्तिशाली अस्त्र प्राप्त किए।
एंटी एजिंग साइंस दृष्टिकोण
परशुराम का केस जेनेटिक्स (Genetics) और जीवनशैली की तीव्रता (Intensity of Lifestyle) को छूता है:
सुपीरियर जेनेटिक्स (Superior Genetics): अवतार होने के नाते, उनकी काया (Physique) और क्षमताएँ सामान्य मानव से उत्कृष्ट हैं। यह चिरंजीविता के आधुनिक सिद्धांत को दर्शाता है, जहाँ उत्कृष्ट जेनेटिक कोड कुछ व्यक्तियों को सेलुलर क्षरण (Cellular Degradation) के प्रति अधिक प्रतिरोधी बनाता है।
माइंड-बॉडी इंटरवेंशन: उनकी कठोर तपस्या दर्शाती है कि अति-तीव्र योगिक अभ्यास (जैसे: तप) शरीर की प्रक्रियाओं को इस हद तक पुनर्गठित कर सकता है कि यह उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को मौलिक रूप से धीमा कर देता है। यह एपिजेनेटिक्स (Epigenetics) के सिद्धांत को प्रमाणित करता है, जहाँ जीवनशैली (तप) जीन अभिव्यक्ति (Gene Expression) को बदलकर दीर्घायु को सक्रिय करती है।
8. ऋषि मार्कण्डेय (Rishi Markandeya)
कथा: मृत्यु पर विजय
मार्कण्डेय ऋषि मृकण्डु के पुत्र थे। ज्योतिष गणना से पता चला कि वे केवल 16 वर्ष तक ही जीवित रहेंगे। अपनी अल्पायु के बारे में जानने के बावजूद, उन्होंने विचलित हुए बिना, भगवान शिव की कठोर तपस्या शुरू कर दी और महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते रहे। जब यमराज उनके प्राण लेने आए, तो मार्कण्डेय शिव लिंग को कसकर पकड़कर बैठ गए।
चिरंजीविता प्राप्ति: तपस्या और महामृत्युंजय योग
यमराज के पाश से क्रोधित होकर, भगवान शिव ने प्रकट होकर यमराज को पराजित किया और मार्कण्डेय को मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का वरदान दिया, यानी वे चिरंजीवी हो गए।
धर्म और आध्यात्म
मृत्युंजय योग: मार्कण्डेय का जीवन यह सिखाता है कि तपस्या और मंत्र शक्ति (Mantra Power) इतनी प्रबल हो सकती है कि वह दैवीय विधान को भी बदल सकती है।
निडरता: मृत्यु के भय के सामने भी अडिग रहकर उन्होंने आत्मिक शक्ति का प्रदर्शन किया।
एंटी एजिंग साइंस दृष्टिकोण
मार्कण्डेय का केस मानसिक नियंत्रण (Mind Control) और न्यूरोबायोलॉजी (Neurobiology) का उत्कृष्ट उदाहरण है:
मानसिक शक्ति: मृत्यु की निश्चितता जानने के बावजूद उनकी एकाग्रता और निडरता असाधारण थी। मानसिक स्थिरता और भय का अभाव तनाव हार्मोन (Stress Hormones) के स्राव को रोकते हैं। यह दर्शाता है कि सकारात्मक अनुभूति (Positive Cognition) और आध्यात्मिक सुरक्षा का भाव (शिव के प्रति विश्वास) शरीर को न्यूरोटॉक्सिसिटी से बचाता है, जो एजिंग को धीमा करने का एक महत्वपूर्ण कारक है।
महामृत्युंजय और ध्वनि ऊर्जा: महामृत्युंजय मंत्र की ध्वनि ऊर्जा और कंपन (Vibration) को सेल्यूलर स्तर पर माना जा सकता है। यह बायोफीडबैक (Biofeedback) या ध्वनि चिकित्सा (Sound Therapy) का एक प्राचीन रूप हो सकता है, जो मस्तिष्क तरंगों को सुसंगत (Coherent) करता है, जिससे डीएनए मरम्मत (DNA Repair) और सेलुलर ऊर्जा उत्पादन में सुधार होता है।
Healthy Telomere is directly proportional to Anti Aging
सारांश: 100 वर्ष स्वस्थ जीवन का विज्ञान (Anti Aging Science)
अष्ट चिरंजीवियों के नित्य स्मरण और उनके जीवन से प्रेरणा लेने का अर्थ है 100 वर्ष निरोगी (सर्वव्याधिविवर्जित) जीवन प्राप्त करना। यह धार्मिक श्लोक निम्नलिखित आधुनिक एंटी एजिंग सिद्धांतों को समाहित करता है:
आध्यात्मिक व मानसिक स्वास्थ्य (Mental & Spiritual Health):
हनुमान, बलि, विभीषण: भक्ति, निःस्वार्थ सेवा, और सत्यनिष्ठा से क्रोनिक तनाव कम होता है, जो टेलिमेयर की लंबाई बनाए रखने में मदद करता है।
मार्कण्डेय: मृत्यु के भय पर विजय से मानसिक दृढ़ता मिलती है, जो दीर्घायु का आधार है।
योग और शारीरिक अनुशासन (Yoga & Physical Discipline):
हनुमान, परशुराम, मार्कण्डेय: तप और योगिक क्रियाओं से प्राप्त ऊर्जा (ओजस) आंतरिक कोशिकाओं की मरम्मत और पुनरुत्थान (रीजेनरेशन) की क्षमता को बढ़ाती है।
ज्ञान और उद्देश्य (Knowledge & Purpose):
वेद व्यास: ज्ञान का संरक्षण और जीवन में एक उच्च उद्देश्य (Dharma) का होना संज्ञानात्मक स्वास्थ्य और मानसिक उत्तेजना को बनाए रखता है, जो न्यूरोडीजेनरेशन से बचाता है।
कर्म का महत्व (Importance of Karma):
अश्वत्थामा (नकारात्मक उदाहरण): यह दर्शाता है कि चिरंजीवी होने पर भी, अधर्म और क्रोध मानसिक शांति और शारीरिक स्वास्थ्य को नष्ट कर देता है।

Telomere (टीलोमीयर) और एंटी-एजिंग
Telomere और एंटी-एजिंग पर हिंदी में पूर्ण आनुवंशिक रूप से लिखित पाठ और अंत में संदर्भ दिए गए हैं:
Telomere (टीलोमीयर) : परिचय
Telomere (टीलोमीयर) हमारे गुणसूत्रों (chromosomes) का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये गुणसूत्रों के सिरों पर स्थित पुनरावृत्त न्यूक्लियोटाइड अनुक्रम (repetitive nucleotide sequences) होते हैं, जो गैर-कोडिंग डीएनए (non-coding DNA) और प्रोटीन से बने होते हैं। मनुष्य में, यह अनुक्रम आमतौर पर TTAGGG होता है जो हजारों बार दोहराया जाता है।
Telomere (टीलोमीयर) का जैविक कार्य
संरक्षण: Telomere (टीलोमीयर) गुणसूत्रों को अस्थिरता (instability) और क्षरण (degradation) से बचाते हैं। वे गुणसूत्रों के सिरों को एक सुरक्षात्मक “कैप” की तरह सील कर देते हैं, जिससे उन्हें आपस में जुड़ने या टूटने से रोका जाता है।
कोशिका विभाजन (Cell Division): Telomere (टीलोमीयर) यह सुनिश्चित करते हैं कि कोशिका विभाजन के दौरान आनुवंशिक जानकारी का नुकसान न हो।
Telomere (टीलोमीयर) का हास और बुढ़ापा (Aging)
प्रत्येक कोशिका विभाजन (mitosis) के साथ, डीएनए प्रतिकृति (DNA replication) की प्रक्रिया के कारण Telomere (टीलोमीयर) थोड़े छोटे होते जाते हैं। इसे एंड-रेप्लिकेशन समस्या (end-replication problem) कहा जाता है।
स्वस्थ Telomere (स्वस्थ टीलोमीयर): स्वस्थ और लंबे Telomere (टीलोमीयर) हमारी कोशिकाओं के स्वास्थ्य को बनाए रखते हैं।
Telomere (टीलोमीयर) का क्षरण (Degeneration): जब Telomere (टीलोमीयर) एक महत्वपूर्ण लघुता (critical shortness) तक पहुँच जाते हैं, तो कोशिका विभाजन रुक जाता है। कोशिका जीर्णता (senescence) की स्थिति में प्रवेश कर जाती है, जिसका अर्थ है कि वह अब विभाजित नहीं हो सकती।
जीर्णता और मृत्यु: कोशिकाओं का यह बूढ़ा होना (senescence) और अंततः कोशिका मृत्यु (apoptosis), ऊतकों और अंगों की कार्यक्षमता में कमी लाती है, जो बुढ़ापा (aging) और अंततः मृत्यु (death) का कारण बनती है।
Telomere (टीलोमीयर) और एंटी-एजिंग संबंध
Telomere (टीलोमीयर) की लंबाई को जैविक उम्र (biological age) के एक मार्कर के रूप में देखा जाता है, जो कालानुक्रमिक उम्र (chronological age) से अलग हो सकता है।
Telomere (टीलोमीयर) को लंबा करने वाला एंजाइम (Telomere-Extending Enzyme): एक एंजाइम, जिसे Telomerease (टीलोमीयेरेज़) कहा जाता है, Telomere (टीलोमीयर) को उनके मूल लंबाई तक पुनर्स्थापित कर सकता है। यह एंजाइम अधिकांश कैंसर कोशिकाओं (cancer cells) और जर्मलाइन कोशिकाओं (germline cells) में सक्रिय होता है, जिससे वे अमर हो जाती हैं। हालांकि, सामान्य कायिक कोशिकाओं (somatic cells) में इसकी गतिविधि कम या अनुपस्थित होती है।
एंटी-एजिंग रणनीति (Anti-Aging Strategy): Telomere (टीलोमीयर) को लंबा या स्वस्थ रखने वाली रणनीतियाँ एंटी-एजिंग विज्ञान का केंद्र बिंदु हैं। इनमें शामिल हैं:
जीवनशैली में बदलाव: स्वस्थ आहार, नियमित व्यायाम, तनाव प्रबंधन और पर्याप्त नींद।
पूरक और यौगिक: कुछ एंटीऑक्सीडेंट (antioxidants) और यौगिकों पर अनुसंधान किया जा रहा है, जो अप्रत्यक्ष रूप से Telomere (टीलोमीयर) की सुरक्षा या Telomerease (टीलोमीयेरेज़) की गतिविधि को प्रभावित कर सकते हैं।
संक्षेप में, Telomere (टीलोमीयर) का क्षरण बुढ़ापे की प्रक्रिया का एक आणविक हस्ताक्षर (molecular signature) है। स्वस्थ Telomere (स्वस्थ टीलोमीयर), स्वस्थ शरीर और दीर्घायु के बीच सीधा संबंध है।
संदर्भ (References)
Olovnikov, A. M. (1973). A theory of marginotomy. The endoreduplication puzzle as a source of the aging process. Journal of Theoretical Biology, 41(1), 181-190.
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Harley, C. B., Futcher, A. B., & Greider, C. W. (1990). Telomeres shorten during ageing of human fibroblasts. Nature, 345(6274), 458-460.
Cawthon, R. M., et al. (2003). Telomere length predicts mortality independently of established risk factors in men. Proceedings of the National Academy of Sciences, 100(15), 9021-9025.
यह वीडियो एंटी-एजिंग ट्रीटमेंट्स के साइड इफेक्ट्स पर प्रकाश डालता है, जिसमें जेनेटिक ट्रीटमेंट्स पर चल रहे काम का भी उल्लेख है, जो Telomere (टीलोमीयर) पर अनुसंधान से संबंधित है। Anti aging treatment : एंटी एजिंग ट्रीटमेंट्स के क्या हैं साइड इफेक्ट?
निष्कर्ष: इन चिरंजीवियों का स्मरण केवल धार्मिक नहीं, बल्कि स्वस्थ दीर्घायु के लिए आवश्यक मानसिक, आध्यात्मिक और नैतिक अनुशासन का स्मरण है, जो एंटी एजिंग साइंस के समग्र दृष्टिकोण (Holistic Approach) को प्रमाणित करता है।
एंटी एजिंग साइंटिस्ट प्रोफेसर डॉ तेज प्रकाश व्यास की विशेष प्रस्तुति
Brain Stroke and Heart Attack: जीवन रक्षा के नैसर्गिक उपक्रम





