पर्दे पर चार सितारों की चुप्पी: एक भावपूर्ण श्रद्धांजलि

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पर्दे पर चार सितारों की चुप्पी: एक भावपूर्ण श्रद्धांजलि

 

बॉलीवुड की चमचमाती दुनिया में, जहां हर रोशनी, हर मुस्कान और हर संवाद में जीवन होता था, वहां इन-दिनों अजीब सी खामोशी छाई हुई है। ऐसा लगा जैसे पर्दा अपनी सांसें रोक रहा हो। कुछ ही दिनों में तीन भिन्न शैली के कलाकारों ने हमें अलविदा कह दिया: Satish Shah, Pankaj Dheer, Madhumati और Asrani .

इनका जाना केवल चार नामों का अंत नहीं, बल्कि हमारी फिल्मों, टीवी-शो और यादों की एक विरासत का मौन अवसान है।

उनकी मुस्कानें, उनकी भूमिकाएं, उनकी आत्मा अब हमारे बीच नहीं हैं- पर उस खालीपन में, उनकी कला की गूंज ज़रूर बनी हुई है।

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*सतीश शाह:हास्य का राजा*

74 वर्ष की आयु में सतीश शाह ने इस दुनिया को अलविदा कहा। उन्होंने टीवी-शो और फिल्मों में ऐसा स्थान बनाया कि उनकी उपस्थिति ही हास्य में बदल जाती थी।

उनका किरदार “इंद्रवदन साराभाई” ने हजारों घरों में हंसी का महल बनाया- सिर्फ भूमिका नहीं, उनकी “पनाही आंखों”-वाली मुस्कान व संवाद इसे विजयी बनाते थे। उनकी कमी अब हर कॉमेडी शो में खल रही है, क्योंकि उनके बाद किसी के पास उनका वह सहज अंदाज और नज़ाकत नहीं बची।

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*पंकज धीर:गरिमा और दृढ़ता का परिचायक*

पंकज धीर ने अपने करियर में ‘कर्ण’ जैसे महाकाव्य-पात्र से श्रृंखला-युग में प्रवेश किया। 68 वर्ष की आयु में उन्होंने कैंसर के खिलाफ लंबी जंग के बाद इस संसार को छोड़ा।

उनकी लंबी कद-काठी, गंभीर भाव, और भूमिका में गहराई ने पर्दे को एक नई शान दी थी। अब जब उनकी उपस्थिति नहीं, तो हर दृश्य में उस शान-गौरव की कमी महसूस होती है- वह शक्ति जो उन्होंने (‘महाभारत’ के पर्दे से) हमें दी थी।

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*मधुमती:नृत्य की कविता, कला की शान*

87 वर्ष की उम्र में मधुमती ने नृत्य-जीवन का समापन किया। उन्होंने शास्त्रीय नृत्य की भाषा को बॉलीवुड के मंच तक पहुंचाया- शैली, ठहराव और भाव का ऐसा संगम, जो हर दृश्य को एक दृश्य-कविता बना देता था। उनकी वही उपस्थिति-भंगिमा अब हमारे स्क्रीन पर विरल है। उस छवि की यादें- हाथ-पैर की लय, शरीर-भाषा की सजगता अभी भी उन फिल्मों-परियों में जीवित हैं, जहां उन्होंने अपने कदमों से कला को अमर बनाया था।

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*असरणी:यादें जिनकी कभी रुकती नहीं*

असरणी अभी जीवित हैं.. उनकी मृत्यु को अभी भी अफवाह माना जा रहा है, जो उनकी प्रासंगिकता और दर्शकों में उनकी जगह को प्रमाणित करती हैं। उनके हास्य-उस्तादाना योगदान ने अत्यधिक प्रभाव छोड़ा है। ‘शोले’ में उनका जेलर-पात्र, ‘चुपके‐चुपके’-वाले संवाद-टाइमिंग आदि ने हमारी फिल्मों की हास्य-इतिहास को सुदृढ़ किया था। उन स्मृतियों की कसक कभी भी कम नहीं होगी।

*विरासत, खालीपन और यादों की अमरता*

ये चार कलाकार अलग-अलग पैंतरे, विकल्प, समय और शैली के साथ आए- पर अब उनका जाना हमें एक-एक खाली जगह छोड़ गया है। फिल्मों-टीवी का रंग-रस, हास्य-संगठन, गंभीरता-रूप सारी चीजें अब किसी-न-किसी रूप में अधूरी-सी लगती हैं।

लेकिन इस खालीपन में भी उनका काम, उनका अंदाज, उनकी विशिष्टता सुनाई देती है- जैसे हवा में किसी धुन-की तरह। ये यादें हमें उम्मीद देती हैं कि कला मरती नहीं, पर स्थिर हो जाती है…हमारे भीतर, हमारी यादों में, हमारी संस्कृति में।

जब हम इन महान कलाकारों को याद करते हैं, तो हम उनकी भूमिका-परिधि-प्रभाव को ही नहीं, बल्कि उस वक्त-और-फ्लैशबैक को याद करते हैं, जब उन्होंने हमारे सामने इश्क, कॉमेडी, नृत्य, ऊंचाई और कमाल पेश किया।

उनका जाना शोक का विषय है- पर उनके जादू, उनकी बुद्धि, उनका लाजवाब अंदाज़ आज भी हर फिल्म-दृश्य-मंच में मौजूद है।

उनका अस्तित्व अब सिर्फ एक याद नहीं, वो एक विरासत बन गई है जिसे हम हर बार थिएटर का पर्दा उठते-उठते, टीवी सेट चालू करते-करते, किसी संवाद पर मुस्कुराते-होते महसूस करेंगे।