एक साथ चुनाव कराने में संवैधानिक बाधाऐं भी कम नहीं!

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एक साथ चुनाव कराने में संवैधानिक बाधाऐं भी कम नहीं!

विनय झैलावत

‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ यानी लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की संभावनाएं तलाशने के लिए बनाई गई समिति के कारण यह मुद्दा काफी चर्चा में है। देश के नागरिकों को इसे विस्तार से समझना आवश्यक है। देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हो सकते हैं या नहीं, यह पता लगाने के लिए भारत सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। समिति भारत की चुनावी प्रक्रिया का अध्ययन करेगी। सरकार ने संसद का विशेष सत्र भी बुलाया है। यह सत्र बुलाए जाने के केंद्र के फैसले के बाद ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ के लिए एक समिति बनाए जाने की सूचना सामने आई है। इससे देश की राजनीतिक पार्टियों, राजनेताओं के साथ-साथ देश के नागरिकों में भी असमंजस बढ़ा है। ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ के बारे में करीब 40 वर्षों पहले पहली बार चुनाव आयोग ने सुझाव दिया था। उम्मीद जताई जा रही है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने से जनता का पैसा बचेगा, प्रशासनिक व्यवस्था और सुरक्षा बलों पर बोझ कम पड़ेगा, सरकारी नीतियों का समय पर कार्यान्वयन हो सकेगा और प्रशासनिक मशीनरी चुनावी कार्यक्रम के बजाय विकास कार्यों में ज्यादा समय दे पाएगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने के प्रबल समर्थक माने जाते हैं। सन् 2019 में पीएम मोदी ने लाल किले से अपने भाषण में कहा है कि एक साथ चुनाव कराने को लेकर देशभर में बहस चल रही है। यह चर्चा लोकतांत्रिक तरीके से की जानी चाहिए। ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के अपने सपने को साकार करने के लिए हमें ऐसे अनेक नए विचार जोड़ने होंगे। सन 1951 से 1967 के बीच लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। सन 1951-52 में आम चुनाव और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। इसके बाद पुनः सन 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुए। सन 1959 में सीपीआई नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था और राष्ट्रपति शासन लगाया गया। सन 1960 में केरल में विशेष राज्य चुनाव हुआ था, जिसके चलते 1962 में राज्य सरकार भंग नहीं हुई, जब आम चुनाव हुए थे। सन 1964 में केरल में दोबारा राष्ट्रपति शासन लगाया गया। फिर 1965 में चुनाव हुए, लेकिन राष्ट्रपति शासन जारी रहा और 1967 तक चला, जिसके चलते केरल विधानसभा का चुनाव एक बार फिर आम चुनाव के साथ हुआ।

एक साथ चुनाव की कुछ अड़चने भी है। सन् 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने की वजह से पहली बार एक साथ चुनाव होने का चक्र बाधित हुआ था। वहीं, चौथी लोकसभा भी समय से पहले भंग कर दी गई थी, इस वजह से 1971 में नए चुनाव हुए। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं को सामान्य कार्यकाल से पहले भी भंग किया जा सकता है। सन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद अब तक कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो चुके हैं। अप्रैल-मई 2019 से शुरू होकर अब तक कई राज्यों के चुनाव हुए। वर्तमान में हर साल करीब 5-7 राज्यों के विधानसभा चुनाव होते हैं। बार-बार चुनाव होने की वजह से स्वाभाविक रूप से सार्वजनिक जीवन बाधित होता है। सन 2015 में कार्मिक, सार्वजनिक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति ने कहा था कि बार-बार चुनाव होने से सामान्य सार्वजनिक जीवन में व्यवधान होता है और जरूरी सेवाओं के कामकाज पर असर पड़ता है। राजनीतिक रैलियां करने से सड़क यातायात बाधित होता है और ध्वनि प्रदूषण भी होता है।

मौजूदी चुनावी चक्र में शामिल प्रमुख प्रतिकूल प्रभाव चुनाव आयोग की ओर से आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण विकास कार्यों और शासन पर असर भी डालते हैं। बार-बार चुनाव होने के कारण सरकार और अन्य हितधारकों को बड़े पैमाने पर खर्च करना पड़ता है। काफी लंबे समय तक सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ती है। लेकिन, इसकी विरोधी पार्टियों द्वारा कड़ी आलोचना भी की जा रही है। कुछ राजनीतिक दलों और सन् 2015 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति ने एक बार में कराए जाने वाले चुनाव का समर्थन किया था। एआईएडीएमके ने भी गहन विचार-विमर्श के साथ ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ का समर्थन किया था। असम गण परिषद का कहना था कि इससे छोटी पार्टियों पर वित्तीय बोझ कम होगा। आईयूएमएल के मुताबिक ऐसा करने से समय की बचत होगी। डीएमडीके ने लोकसभा और विधानसभाओं के निश्चित कार्यकाल वाले विचार का समर्थन किया। वहीं, शिरोमणि अकाली दल ने इस विचार का समर्थन किया लेकिन कहा कि त्रिशंकु विधानसभा होने पर स्पष्टता की जरूरत है।

संविधान का अनुच्छेद 83 संसद के दोनों सदनों के कार्यकाल का प्रावधान करता है। अनुच्छेद 83(2) लोकसभा के लिए इसकी पहली बैठक की तारीख से पांच साल के कार्यकाल का प्रावधान करता है, जब तक कि इसे पहले भंग न किया जाए. अनुच्छेद 172 (1) राज्य विधानसभा के लिए उसकी पहली बैठक की तारीख से पांच साल के कार्यकाल का प्रावधान करता है। क्या लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है ? इसका जवाब है कि आपातकालीन स्थिति को छोड़कर किसी भी कीमत पर सदन का कार्यकाल बढ़ाया नहीं जा सकता है लेकिन इसे इसके कार्यकाल की समाप्ति से पहले भंग किया जा सकता है।

एक साथ चुनाव पर चुनाव आयोग ने पहली बार सन् 1983 में सुझाव दिया था। उस वर्ष प्रकाशित भारत के चुनाव आयोग की पहली वार्षिक रिपोर्ट में इसका विचार आया था। विधि आयोग की ओर से सन् 1999 में इसका विचार आया था। सन् 1999 में न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में भारतीय विधि आयोग ने चुनावी कानूनों के सुधार पर अपनी 170वीं रिपोर्ट पेश की थी। इसने चुनाव सुधारों के एक भाग के रूप में एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश की थी। सन् 2015 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 79वीं रिपोर्ट में दीर्घकालिक (लंबे समय तक) सुशासन के लिए एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया था और इसकी व्यवहार्यता की भी जांच की थी। सन् 2017 में नीति आयोग ने भी एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। 30 अगस्त, 2018 को जस्टिस बीएस चैहान की अध्यक्षता में भारत के विधि आयोग ने एक साथ चुनाव पर अपनी मसौदा रिपोर्ट जारी की थी। रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने से संबंधित कानूनी और संवैधानिक सवालों की जांच की गई।

एक साथ चुनाव मतदाताओं के व्यवहार को कैसे प्रभावित कर सकता है, इस पर आईडीएफसी इंस्टीट्यूट के एक विश्लेषण से पता चलता है कि औसतन 77 फीसदी संभावना है, कि जब चुनाव एक साथ होंगे तो मतदाता लोकसभा और विधानसभा दोनों के लिए एक ही पार्टी को वोट देंगे। दूसरी और बार-बार चुनाव चक्र जवाबदेही का एक उपाय प्रदान करते हैं। क्योंकि, विभिन्न स्थानीय और राज्य-स्तरीय मुद्दे समय-समय पर चुनावों को प्रभावित करते हैं। इस कारण समकालिक चुनाव करवाने पर कई कानूनी सवाल उठते हैं, जैसे विधानसभाओं और लोकसभा की शर्तों की पहली बार कैसे समकालिक (सिंक्रनाइज) किया जाएगा? अगर चुनाव एक साथ होते हैं तो उस स्थिति में क्या होगा जब सत्तारूढ़ दल या गठबंधन कार्यकाल के बीच लोकसभा या राज्य विधानसभाओं में बहुमत खो देता है? क्या लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल तय होना चाहिए? क्या चुनाव आयोग के लिए लाॅजिस्टिक्स, सिक्योरिटी और मैनपावर संसाधन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए इतने बड़े पैमाने पर चुनाव कराना व्यावहारिक रूप से संभव है? इस तरह के सवाल है जो एक साथ चुनाव से जुड़े हैं। ऐसा सुझाव सामने आया कि देश में एक साथ चुनाव लागू करने के लिए राज्य विधानसभाओं की शर्तों को सिंक्रनाइज (समकालिक) किया जाए।