सिनेमा में वासंती बहार के नजारों की कमी नहीं!

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सिनेमा में वासंती बहार के नजारों की कमी नहीं!
   पतझड़ के बाद बसंत के मौसम में आने वाली बहार को एक पर्व की तरह मनाया जाता है। बसंत की हवाओं में वासंती खुशबू होती है, तो पेड़-पौधे भी रंग बिरंगे फूलों से अलंकृत होने लगते है। प्रकृति के कैनवास पर तो बहार सदा से आती जाती रही है। लेकिन, सिनेमा के परदे पर भी मौसम-बेमौसम बहार का आगमन होता रहा है। फिल्मकारों ने बहार के इस मौसम को हिन्दी फिल्मों में तरह-तरह से इस्तेमाल किया है। फिल्मों के टाइटल से लेकर गाने तक में बहार का जमकर प्रयोग किया गया।
    बसंत बहार की चर्चा होते ही बाग-बगीचों, फूल-पत्तों और नदी-झरनों के दृश्य न केवल दर्शकों को बल्कि फिल्मकारों और गीतकारों के जहन में तैरने लगते हैं। यदि फिल्मों के टाइटल में बहार के असर को देखा जाए तो हिन्दी फिल्मों में कई तरह से इसका उपयोग किया गया।
यदि किसी नायक या नायिका के बचपन से फिल्म आरंभ होती है, तो उसके बचपन से जवान होने के लिए लम्बी रीलें खींचने के बजाए बहारों के बदलने के दृश्यों को तेजी से परदे पर उतारकर पलभर में उन्हें जवान कर दिया जाता है। यदि कोई पात्र लौटने का कहकर बाहर गया है, तो बहार और पतझड़ के दृष्य जोड़कर फिल्म के नायक या नायिका के साथ साथ दर्शकों के इंतजार को समाप्त करने का काम बरसों से किया जाता रहा है। यदि मिलन का अहसास कराने के लिए फिल्मों में बहार का उपयोग किया गया, तो जुदाई के लिए भी इसका बखूबी उपयोग किया गया।
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    बहार हो न हो फिल्मों की दृश्यावलियों के माध्यम से तो फिल्मकार बहार दिखाकर दर्शकों को मुग्ध करते रहे हैं। लेकिन, फिल्मों के नाम में बहार को जोड़कर भी कुछ फिल्मकार दर्शकों को थियेटर तक खींच लाने में कायमयाब रहे हैं। बहार और इससे मिलते जुलते शीर्षकों से बनी फिल्मों में वैजयंती माला की पहली फिल्म ‘बहार’ शामिल थी, तो गुरूदत्त की आखिरी फिल्म ‘बहारें फिर भी आएंगी’ में भी बहार का जिक्र किया था।
‘आए दिन बहार के’ धर्मेन्द्र को सितारा बनाने वाली फिल्म थी। इसके बाद धर्मेंद्र ने मीना कुमारी के साथ ‘बहारों की मंजिल’ में भी काम किया। हमेशा रोमांटिक फिल्में बनाने वाले नासिर हुसैन ने यूं तो परदे पर हमेशा बहार का मंजर दिखाया, लेकिन ट्रेजडी फिल्म बनाते समय उन्होंने परदे पर बहार तो नहीं बरसाई, पर टाइटल में बहारों के सपने जोड़कर एक आस जरूर जगा दी थी। बहार और फूलों का चोली दामन सा साथ है। बहारों की तरह फूलों ने भी हिन्दी फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गुजरे जमाने की फिल्मों में नायक और नायिका के मिलने पर टहनियों पर दो फूलों को टकराते दिखाने की परम्परा अब भले ही ख़त्म हो गई, पर फूलों के इस मिलन ने दर्शकों तक गुदगुदाया है।
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बहार की तरह ही फूलों को प्रतीक बनकर फिल्मों में इस्तेमाल करने की परम्परा रही है। ‘प्यासा’ में गुरुदत्त ने फूल पर बैठे भंवरे और उसे मसले जाने का बहुत प्रभावी दृष्य शामिल किया गया था। हिन्दी फिल्मों में बलात्कार के दृश्यों को प्रभावी बनाने के लिए, विलेन के पैरों के नीचे फूलों को मसलने के दृश्य भी फिल्मों में आम होते रहे हैं। बहार की तरह ही फिल्मी शीर्षकों में भी फूलों ने खासा योगदान दिया। फूल, दो फूल, फूल बने अंगारे, एक फूल दो माली, एक फूल चार कांटे, एक फूल एक भूल, फूल और पत्थर, रेड रोज, जब जब फूल खिले, फूल खिले हैं गुलशन गुलशन और ‘दो कलियां’ जैसी फिल्मों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाने का काम किया है।
फिल्मी गीतों में भी बहार और फूलों का बेइंतहा उपयोग किया गया है। फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूलों की रानी बहारों की मलिका, फूल बन जाऊंगा शर्त यह है मगर, रंग-रंग के फूल खिले हैं, फूलों का तारों का सबका कहना है, फूल गेंदवा न मारो, दो फूल खिले दो दिल मिले, तुम ही तुम हो मेरे जीवन में फूल ही फूल है जैसे चमन में  जैसे गीतों ने श्रोताओं के जहन में अपनी खुशबू खूब बिखेरी है। यदि बात बहारों की हो तो बहार बन कर वो मुस्कुराए हमारी महफिल में, बहारों फूल बरसाओ, बहारों ने मेरा चमन लूटकर, आए बहार बनकर लुभा कर चले गए। बहारें फिर भी आएंगी। मस्त बहारों का मै आशिक, संभल जाओ चमन वालों कि आए दिन बहार के, दिन है बहार के तेरे मेरे इकरार के, आती रहेंगी बहारें और ‘मेरा जीवन भी संवारो’ जैसे गीतों ने बहार का महिमा मंडन ही किया है।