बाघों की संख्या पर इतराने की जरूरत नहीं है …

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मध्यप्रदेश में जिस दिन हर जिले में “टाइगर फाइट” चल रही थी और यह खींचतान जारी थी कि किस जिले में किस दल का समर्थक जिला पंचायत अध्यक्ष बनेगा, उस 29 जुलाई को ही अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस था। बाघ दिवस की खास चर्चा इसलिए क्योंकि मध्यप्रदेश को “टाइगर स्टेट” का तमगा हासिल है। जो इससे पहले कर्नाटक ने मध्यप्रदेश से छीन भी लिया था। यानि कि टाइगर की चिंता करना जरूरी है। 29 जुलाई को हर साल विश्व के कई देशों में अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस मनाया जाता है। अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस बाघों के संरक्षण और उनकी विलुप्त होती प्रजातियों को बचाने के उद्देश्य से मनाते हैं। दरअसल, वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड की रिपोर्ट के मुताबिक, बीते 150 सालों में बाघों की संख्या में लगभग 95 फीसदी तक गिरावट दर्ज की गई है। इसीलिए साल 2010 में बाघ दिवस मनाने का फैसला करते हुए देशों ने बाघों की संख्या को दोगुना करने का लक्ष्य रखा था।
कई देश इस लक्ष्य को पूरा करने के दिशा में प्रयास कर रहे हैं। हालांकि भारत ने साल 2018 में ही बाघों की प्रजातियों को दोगुना करने के अपने लक्ष्य को हासिल कर लिया है। साल 2018 में भारत में बाघों की संख्या 2900 से ज्यादा थी। तो यह तो रही सुकून की बात, पर भारत में भी बाघों की मौतों के आंकड़े बार-बार चिंता में भी डालते हैं। यही चिंता है तीन दशक तक मध्यप्रदेश कैडर के भारतीय वन सेवा (आईएफएस) के अफसर रहे आजाद सिंह डबास को। रिटायरमेंट के बाद अब वह प्रदेश की चिंता भी कर रहे हैं। कांग्रेस में रह चुके हैं और अब आम आदमी पार्टी के मेनिफेस्टो कमेटी के अध्यक्ष हैं। आईएफएस रहते खुद को सिस्टम में कभी ढाल नहीं पाए और सिस्टम परिवर्तन अभियान के अध्यक्ष के बतौर ही उन्होंने अपनी नई पारी शुरू की थी। और इसी नाते वह फिलहाल बाघों की चिंता भी कर रहे हैं। उन्होंने अपनी मन की बात प्रकाशनार्थ जारी की है कि ” मध्यप्रदेश वन विभाग को बाघों की संख्या पर इतराने की जरूरत नहीं है…।”
डबास ने वन विभाग को आइना दिखाया है कि अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस पर जैसी खबरें छप रही हैैैं, उस तरह न तो मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या बढ़ रही है और न ही बाघ सुरक्षित हैं। 2018 की गणना में मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या 526 थी, तो कर्नाटक में सिर्फ दो बाघ कम थे। क्षेत्रफल की दृष्टि से मध्यप्रदेश, कर्नाटक से ढाई गुना ज्यादा है। इसके मुताबिक प्रदेश में बाघों की संख्या 1400 होनी चाहिए। वहीं इस बार की गणना में भी मध्यप्रदेश में 600 बाघ होने का अनुमान लगाया जा रहा है, जो चिंताजनक है। क्षेत्रफल की दृष्टि से एक बाघ को 20 से 25 वर्ग किमी की जरूरत है, इसके मुताबिक प्रदेश में 2 से 2.5 हजार बाघ होना चाहिए। वन क्षेत्रों में अतिक्रमण, संरक्षित क्षेत्रों के बाहर बाघों के रहवास की स्थितियां न बचने, वनों में अवैध खनन, जंगल की अवैध कटाई, जलाऊ लकड़ी की पूर्ति में नष्ट होते जंगल, आग से जंगल और वन्य-जीवों को नुकसान जैसी समस्याओं ने बाघों को नुकसान पहुंचाया है। पिछले छह साल में 184 बाघों की मौत, जिसमें 119 आपसी लड़ाई में मरे जैसी वजहें बचाव और वन अमले की नाकामी जाहिर करती हैं। वास्तव में शिकार से मौतें और बाघों की असुरक्षा मुख्य वजह है।
तो राजनीति भी बाघों के संरक्षण में बाधा बनी हुई है। डबास का मानना है कि रातापानी अभयारण्य को नेशनल पार्क बनाने का प्रस्ताव सालों से अटका है। विभाग लाचार है और बाघ बाहर विचरण करते हुए असुरक्षा से घिरे हैं। राजनीति के चलते ही तीन साल से 10 नए अभयारण्य बनाने का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में है। बाघ और वन संरक्षण को लेकर राजनीतिक बयानबाजी ढकोसला मात्र है। वन अफसरों को चाहिए कि हकीकत से राजनेताओं को अवगत कराएं वरना पन्ना में कभी बाघ विलुप्त हो गए थे। एक वन अधिकारी की मेहनत से वहां बाघों का पुनर्वास हो सका है। इतराने की जरूरत इसलिए नहीं है, क्योंकि ऐसी स्थितियां कभी भी बन सकती हैं। वन अफसर गलत जानकारी देकर अपनी पीठ न थपथपवाएं, बल्कि बाघों के संरक्षण के हित में हकीकत बताएं ताकि बाघों को फिर बुरे दिन न देखने पड़ें।
तो डबास जो शायद खुद भी अपनी तीन दशक की सेवा में बाघों की तरह दहाड़ते रहे लेकिन असुरक्षा के बादल हमेशा उनके सिर पर मंडराते रहे हैं। टेरिटोरियल फाइटिंग के भी वह शिकार रहे और सिस्टम से लड़ने की उनकी पहचान हमेशा कायम रही है। शायद यही वजह है कि अब भी वन और बाघों के संरक्षण की चिंता उन्हें सता रही है। आम आदमी पार्टी से जुड़कर एक बार फिर वह “सिस्टम परिवर्तन” की कोशिश कर रहे हैं। सिंगरौली से उम्मीद जागी है उनकी। आगे क्या हासिल हो पाता है, यह भविष्य बताएगा। पर यह बात सही है कि बाघों को लेकर विभाग को इतराने की जरूरत कतई नहीं है, क्योंकि अपेक्षा के मुताबिक न तो बाघ हैं और न ही उनकी सुरक्षा के चाक-चौबंद प्रबंध…।