तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन…
तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन,
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था यह शे’र इसरार-उल-हक़ मजाज़ के मशहूर अशआर में से एक है, माथे पे आँचल होने के कई मायने
मजाज को हम आज इसलिए याद कर रहे हैं, क्योंकि उनका जन्म 11 अक्टूबर को ही हुआ था। अग्रणी एवं प्रख्यात प्रगतिशील शायर, रोमांटिक और क्रांतिकारी नज़्मों के लिए प्रसिद्ध, ऑल इंडिया रेडियो की पत्रिका “आवाज” के पहले संपादक, मशहूर शायर और गीतकार जावेद अख़्तर के मामा असरारुल हक़ मजाज़ (1911-1955) उर्दू के प्रगतिशी
सुप्रसिद्ध शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने मजाज़ की क्रांतिवादिता एवं कवित्व के बारे में लिखा है कि “मजाज़ की क्रांतिवादिता आम शायरों से भिन्न है।.. मजाज़ क्रांति का प्रचारक नहीं, क्रांति का गायक है। उसके नग़मे में बरसात के दिन की सी आरामदायक शीतलता है और वसंत की रात की
सी प्रिय उष्णता की प्रभावात्मकता।”
एक झलक देखने के लिए उनका यह शेर भी काफी है…
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी,
कुछ मुझे भी ख़राब होना था
कहते हैं कि आगरा तक तो मजाज इश्किया शायर थे, पर अलीगढ़ आते-आते इश्किया शिद्दत इंकलाब में तब्दील हो गई। वैसे भी वह दौर स्वाधीनता आंदोलन में आए तारीखी उबाल का था। देश के नामी कवि-शायर और फनकार इंकलाबी गीत गाने लगे थे। ऐसे माहौल में उन्होंने ‘रात और रेल’, ‘नजर’, ‘अलीगढ़’, ‘नजर खालिदा’, ‘अंधेरी रात का मुसाफिर’, ‘सरमायादारी’ जैसी बेजोड़ रचनाएं लिखीं। उसी दौरान मजाज आल इंडिया रेडियो की पत्रिका ‘आवाज’ के सहायक संपादक हो कर दिल्ली पहुंच गए।दिल्ली में नाकाम इश्क के दर्द ने लखनऊ लौटा दिया। फिर वे देखते-देखते शराब में डूबते चले गए। 1954 में उनको पागलपन का दौरा पड़ा, फिर भी शराब की लत नहीं गई। ऐसी ही बेपरवाह और अराजक जिंदगी जीते हुए 15 दिसंबर 1955 को दिमाग की नस फटने से इस अजीम शायर ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
मजाज का मिजाज इन दो शेर में भी समझा जा सकता है-
खिजां के लूट से बर्बादिए-चमन तो हुई,
यकीन आमादे -फस्ले-बहार कम न हुआ।
मुझको यह आरजू है वह उठाएं नकाब खुद,
उनकी यह इल्तिजा तकाजा करे कोई।