‘‘यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है…’’
आज हम चंंद्रधर शर्मा गुलेरी को याद कर रहे हैं, जो 7 जुलाई को जन्मे, कम जिए लेकिन इतना खुलकर जिए कि अमर हो गए। खास तौर से उन्होंने गुलाम भारत में हिन्दुस्तानी सोच पर वह कटाक्ष किए, जिनकी वजह से भारत को गुलामी ढोनी पड़ी थी। पूरे देश के सन्दर्भ में, यहाँ फैले अशिक्षा और अन्धविश्वास के माहौल में गुलेरी जी की बातें आज भी संगत और विचारणीय हैं। जबकि हाथरस जैसी घटनाएं आज भी चमत्कार के विकार में जिंदगियों को लील रही हैं। गुलेरी जी उस समय भारतवासियों की कमज़ोरियाँ का लगातार ज़िक्र करते रहे-विशेषकर सामाजिक राजनीतिक सन्दर्भों में। उन्होंने लिखा कि हमारे अधःपतन का एक कारण आपसी फूट है-‘‘यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है’’। जाति-व्यवस्था भी हमारी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। गुलेरी जी सबसे मन की संकीर्णता त्यागकर उस भव्य कर्मक्षेत्र में आने का आह्वान करते हैं जहाँ सामाजिक जाति भेद नहीं, मानसिक जाति भेद नहीं और जहाँ जाति भेद है तो कार्य व्यवस्था के हित में। छुआछूत को वे सनातन धर्म के विरुद्ध मानते हैं। अर्थहीन कर्मकाण्डों और ज्योतिष से जुड़े अन्धविश्वासों का वे जगह-जगह ज़ोरदार खण्डन करते हैं। केवल शास्त्रमूलक धर्म को वे बाह्यधर्म मानते हैं और धर्म को कर्मकाण्ड से न जोड़कर इतिहास और समाजशास्त्र से जोड़ते हैं। धर्म का अर्थ उनके लिए ‘‘सार्वजनिक प्रीतिभाव है’’ ‘‘जो साम्प्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष को बुरा मानता है’’। उनके अनुसार उदारता सौहार्द और मानवतावाद ही धर्म के प्राणतत्त्व होते हैं और इस तथ्य की पहचान बेहद ज़रूरी है-‘‘आजकल वह उदार धर्म चाहिए जो हिन्दू, सिक्ख, जैन, पारसी, मुसलमान, कृस्तान सबको एक भाव से चलावै और इनमें बिरादरी का भाव पैदा करे, किन्तु संकीर्ण धर्मशिक्षा…आदि हमारी बीच की खाई को और भी चौड़ी बनाएँगे।’’धर्म को गुलेरी जी बराबर कर्मकाण्ड नहीं बल्कि आचार-विचार, लोक-कल्याण और जन-सेवा से जोड़ते रहे। आज सनातन-सनातन की रट में गुलेरी जी को याद करना बेहद जरूरी जान पड़ता है।
तो कछुआ धरम रचना में गुलेरी जी लिखते हैं कि कछुआ धर्म से तात्पर्य मनुष्य के उस व्यवहार से है, जिसमें वह समस्या का सामना नहीं करना चाहता और कोई भी विपत्ति संकट या समस्या आने पर इस तरह की प्रतिक्रिया करता है, जैसे उसने समस्या का समाधान कर लिया है, लेकिन वास्तव में समस्या से बचकर भागना चाह रहा है। इसका कारण हमारे हम भारतीयों की कछुआ पालन संस्कृति थी, जिसमें वह केवल अपने बचाव का रास्ता ढूंढते थे और समस्या का मुकाबला नहीं करना चाहते थे। इस तरह लेखक कहता है कि हमारी हिंदुस्तानी सभ्यता भी कछुआ धर्म की तरह है जो केवल समस्या से बचाव करना जानती है, उसका मुकाबला करना नहीं। हालांकि आजादी के 75 साल में यह ट्रेंड अब बदला सा नजर आ सकता है।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी (7 जुलाई 1883 – 11 सितंबर 1922) का जन्म जयपुर में हुआ था। उनके पिता हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव से ताल्लुक रखते थे, इसलिए नाम के अंत में “गुलेरी” (उनके मूल स्थान के लिए एक श्रद्धांजलि के रूप में) है। एक बहुमुखी प्रतिभा के रूप में वर्णित, उन्हें 1915 में पहली बार प्रकाशित हुई उसने कहा था (हिंदी: उसने कहा था) के लेखक के रूप में जाना जाता है , जिसे हिंदी की पहली लघु कहानी माना जाता है। उन्हें जयपुर में जंतर मंतर वेधशाला को संरक्षित करने के उनके प्रयासों के लिए भी याद किया जाता है।
पंडित गुलेरी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और बाद में मेयो कॉलेज,अजमेर में संस्कृत विभाग के प्रमुख बने। 1922 में, उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास और धर्म में मणींद्र चंद्र नंदी चेयर पर नियुक्त किया गया। कहानी उसने कहा था को 1960 में इसी नाम से बड़े पर्दे पर लाया गया था। बिमल रॉय द्वारा निर्मित , सुनील दत्त और नंदा अभिनीत इस फ़िल्म का निर्देशन मोनी भट्टाचार्जी ने किया था।
उनकी निम्नांकित रचनाएं हैं- निबंध – कछुआ धर्म, पुरानी हिंदी, देवकुल, संगीत, आंख । कहानियां- सुखमय जीवन, उसने कहा था, बुद्ध का कांटा। कविताएं-एशिया की विजय दशमी, भारत की जय, वेनॉक बर्न, आहिताग्नि, झुकी कमान, स्वागत, ईश्वर से प्रार्थना। 12 सितम्बर 1922 को काशी में 39 वर्ष की अल्पायु में ही उनका निधन हो ग
या था।