यह मन की खिन्नता है …

538

यह मन की खिन्नता है …

मैं जनसंघ का दीपक हूं। कांग्रेस में शामिल होने पहुंचे दीपक जोशी ने अपने मन की बात इस वाक्य से ही शुरू की। और अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए और पार्टी छोड़ने को तर्कसंगत बताते हुए आभार प्रदर्शन के साथ आश्वस्त किया कि एक सैनिक के रूप में गांधी-नेहरू की पार्टी की सेवा करूंगा। दीपक जोशी ने साफ किया कि उनकी कांग्रेस से कुछ अपेक्षा नहीं है। पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने जोशी से उनके मन की पीड़ा और भाजपा छोड़ने की वजहों भरा संदेश पूरे प्रदेश में पहुंचाने की अपेक्षा जरूर की। दीपक जोशी अपने पिता स्वर्गीय कैलाश जोशी की तस्वीर लेकर कांग्रेस कार्यालय पहुंचे। शायद पिता जिंदा होते, तो पार्टी भले ही कुछ नहीं देती…तब भी वह अपने कदम भाजपा छोड़कर कांग्रेस की तरफ कभी न बढ़ाते। पिता पर पूरा अधिकार जताना दीपक जोशी का अधिकार है, लेकिन तब भी पिता की तस्वीर ले जाना कतई तर्कसंगत नहीं लगा। वजह भी साफ है कि उनके पुत्र जयवर्धन दीपक जोशी ही अपने पिता से मतभिन्नता रखते हैं और अपने दादाजी स्वर्गीय कैलाश जोशी ने जिस विचारधारा को पूरे जीवन जिया, उसी भाजपा की विचारधारा के संग जुड़े रहने का फैसला किया है। और राजनीति के  संत स्वर्गीय कैलाश जोशी की बराबरी कर पाने का दावा दीपक जोशी भी कभी नहीं कर सकते। हालांकि यह बात स्वीकार करने में कतई संकोच नहीं है कि दीपक जोशी की ईमानदारी और सादगी की बराबरी वर्तमान समय में गिने चुने राजनेता ही कर सकते हैं। फिर भी वह ऐसा दावा कतई नहीं कर सकते हैं कि पार्टी के सभी नेता कीचड़ में डूबे हुए हैं। निश्चित तौर से व्यक्तिगत तौर पर उनका फैसला वह सही ठहरा सकते हैं। पर जिस तरह अपनी उपेक्षा का ठीकरा फोड़ते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर निशाना साधा, वह उनकी मन की खिन्नता तक ही सीमित नजर आता है।

भाजपा के चेहरा रहे दीपक जोशी ने बताया कि जब वह गर्भ में थे तब पिता पहला चुनाव लड़े थे। स्वर्गीय कैलाश जोशी के राजनैतिक जीवन पर एक नजर डालें तो सन् 1955 में हाटपीपल्‍या नगरपालिका के अध्‍यक्ष रहे। सन् 1962 से निरन्‍तर बागली क्षेत्र से विधान सभा के सदस्‍य रहे। सन् 1951 में भारतीय जनसंघ की स्‍थापना से ही उसके सदस्‍य बने। सन् 1980 से 1984 तक भाजपा प्रदेशाध्‍यक्ष रहे। सन् 1970 से 1972 तक उप नेता और मार्च 1972 से 1977 तक दल के नेता तथा नेता प्रतिपक्ष रहे।आपातकाल में एक माह भूमिगत रहने के पश्‍चात् दिनांक 28 जुलाई, 1975 को विधान सभा के द्वार पर गिरफ्तार होकर 19 माह तक मीसा में नज़रबंद रहे। सन् 1977 के निर्वाचन के पश्‍चात् गठित विधान सभा में निर्वाचित होने पर जनता पार्टी दल के नेता और मुख्‍यमंत्री चुने गये। सन् 1978 में अस्‍वस्‍थता के कारण मुख्‍यमंत्री पद त्‍याग दिया। 1993 में भा.ज.पा. किसान मोर्चा के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष बने। वर्ष 2000 से 2004 तक राज्य सभा तथा वर्ष 2004 से 2014 तक लोक सभा के सदस्य रहे। दिनांक 24 नवम्बर, 2019 को आपका देहावसान हो गया। तो ऐसी कोई बात नहीं कि कभी अपने राजनैतिक जीवन में स्वर्गीय कैलाश जोशी ने पार्टी में उपेक्षा का अहसास न किया हो। खुद दीपक जोशी ने बताया कि जब भोपाल लोकसभा से पिता को टिकट न देकर खंडवा जाने का प्रस्ताव दिया गया था तो उन्होंने इंकार कर दिया था। बाद में हालांकि पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भेजा था।  पर स्वर्गीय कैलाश जोशी ने कभी विकल्प का ख्याल उन विपरीत परिस्थितियों में भी अपने मन में नहीं लाया। यह उनका भाजपा और संघ की विचारधारा में गहरा विश्वास ही था। पर पिता जैसी ईमानदारी का दावा करने वाले दीपक जोशी का विश्वास डगमगा गया। जबकि पुत्र जयवर्धन ने भी पिता की मन की इस खिन्नता का समर्थन नहीं किया। बेटे का विचार शायद उनके दादाजी स्वर्गीय कैलाश जोशी के विचारों से मेल खाता नजर आता है। और यही परिवार के भीतर के लोकतंत्र का प्रमाण भी है।

जहां तक बात क्रिकेट के पिच और राजनैतिक मैदान के पिच की बात है, तो फिलहाल यह बात सभी समझ सकते हैं कि बुधनी विधानसभा में शिवराज सिंह चौहान को चुनौती देना हास्यास्पद ही प्रतीत होता है। बात जहां तक स्वर्गीय कैलाश जोशी के स्मारक की है, तो उन राजनीति के संत की सोच इनसे परे ही रही होगी। और यदि क्षेत्रीय जनता से भी दीपक जोशी अपने मन की यह बात साझा कर लेते, तब भी भव्यतम स्मारक का ढांचा खड़ा हो जाता। और शिवराज ने कभी स्वर्गीय कैलाश जोशी के सम्मान में कोई कमी नहीं की। बात जहां तक भाजपा संगठन की है, तो खुद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ भी अपना मुकाबला भाजपा के संगठन से ही मानते हैं। और दीपक जोशी के बहाने पार्टी के भीतर ही संगठन को घेरने की जो बातें हुईं, ऐसी कोई बात खुद दीपक जोशी ने भी नहीं की। वैसे दीपक जोशी के कद के और भाजपा की मूल विचारधारा के नेता समय,काल, परिस्थिति और मन की खिन्नता के चलते भले ही कांग्रेस का दामन थाम लिए हों, लेकिन यह इतिहास है कि उन्हें वापस अपने दल में ही लौटकर सुखद अहसास हुआ है। दीपक जोशी के मामले में भी ऐसी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। मन की खिन्नता कभी भी करवट बदल सकती है, जब वास्तव में कांग्रेस विचारधारा पर खुद को खरा साबित करने की चुनौती सामने होगी और मन खुद को उस चुनौती पर खरा नहीं पाएगा…।