संत परंपरा के तीन रत्न,शंकर, रामानुज और सूर…

781

संत परंपरा के तीन रत्न,शंकर, रामानुज और सूर…

आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और सूरदास, अलग-अलग काल में जन्मे तीन महान संतों ने हिंदू धर्म-संस्कृति को न केवल समृद्ध किया, बल्कि पूरी दुनिया को नई दिशा दी। एक साथ तीन संतों की चर्चा इसलिए क्योंकि तीनों महानतम संतों का जन्म वैशाख शुक्ल की पंचमी तिथि को हुआ था। जो वर्ष 2023 में 25 अप्रैल को थी।आइए तीनों संतों का स्मरण करते हैं।

आदि शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूदरी ब्राह्मण शिवगुरु एवं आर्याम्बा के यहां हुआ था।आदि शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की थी। उत्तर दिशा में  बद्रिकाश्रम में ज्योर्तिमठ, पश्‍चिम दिशा में द्वारिका में शारदामठ, दक्षिण में श्रंगेरी मठ और पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन मठ की स्थापना की थी। आदि शकराचार्य ने ही दसनामी सम्प्रदाय की स्थापना की थी। यह दस संप्रदाय गिरि, पर्वत और सागर, इनके ऋषि हैं भ्रगु। पुरी, भारती और सरस्वती, इनके ऋषि हैं शांडिल्य। वन और अरण्य के ऋषि हैं काश्यप।

तीर्थ और आश्रम के ऋषि अवगत हैं।शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएं की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया। शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। आदि शंकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है।उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि ‘ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।’ आत्मा की गति मोक्ष में है। आदि शंकराचार्य ने केदारनाथ क्षेत्र में समाधि ली थी। उनकी समाधि केदारनाथ मंदिर के पीछे स्थित है। उन्होंने ही केदारनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। एक मत के अनुसार हिंदू कैलेंडर के अनुसार 788 ई. में वैशाख माह के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को भगवान शंकराचार्य का जन्म हुआ था। 820 ई. में इन्होंने हिमालय में समाधि ले ली।

दूसरे महान संत थे रामानुजाचार्य, जो विशिष्टाद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक थे। वह ऐसे वैष्णव सन्त थे जिनका भक्ति परम्परा पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही रामानन्द हुए जिनके शिष्य कबीर, रैदास और सूरदास थे। रामानुज ने वेदान्त दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट अद्वैत वेदान्त प्रतिपदित किया।रामानुजाचार्य दर्शन का आधार वेदान्त के अलावा सातवीं से दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी आलवार सन्तों के भक्ति-दर्शन तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा थी। रामानुजाचार्य की स्मृति में 5 फरवरी 2022 (वसन्त पञ्चमी) को हैदराबाद में समता की प्रतिमा का अनावरण किया गया जो 216 फुट ऊँची है। रामानुज का जन्म 1017 ईसवी में श्रीपेरुमबुदुर नामक गाँव में हुआ था जो वर्तमान समय में तमिल नाडु में आता है।बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे।

गुरु की इच्छानुसार रामानुज से तीन विशेष काम करने का संकल्प कराया गया था – ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम् के यतिराज नामक संन्यासी से सन्यास की दीक्षा ली। मैसूर के श्रीरंगम् से चलकर रामानुज शालिग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। उसके बाद तो उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये पूरे भारतवर्ष का ही भ्रमण किया। 1137 ईसवी सन् में 120 वर्ष की आयु पूर्ण कर वे ब्रह्मलीन हुए।उन्होंने यूँ तो कई ग्रन्थों की रचना की किन्तु ब्रह्मसूत्र के भाष्य पर लिखे उनके दो मूल ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय हुए – श्रीभाष्यम् एवं वेदान्त संग्रहम् । रामानुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गये हैं – ब्रह्म अर्थात् ईश्वर, चित् अर्थात् आत्म तत्व और अचित् अर्थात् प्रकृति तत्व। वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं। वस्तुतः यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है।

सूरदास हिन्दी के भक्तिकाल के महान कवि थे। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं।महाकवि श्री सूरदास का जन्म 1478 ई में रुनकता क्षेत्र में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही नामक स्थान पर एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वह बहुत विद्वान थे, उनकी लोग आज भी चर्चा करते हैं। वे मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। सूरदास के पिता, रामदास बैरागी प्रसिद्ध गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में अनेक भ्रान्तिया है, प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1583 ईस्वी में हुई।

सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में मतभेद हैं। वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को हर साल सूरदास जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। “साहित्य लहरी’ सूर की लिखी रचना मानी जाती है। सूरदास की आयु “सूरसारावली’ के अनुसार उस समय 67 वर्ष थी। राधा-कृष्ण के रूप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के कारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते। सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती और ब्याहलो माने जाते हैं।नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रंथों का उल्लेख है। इनमें ऊपर वर्णित पांच ग्रंथ के अतिरिक्त दशमस्कंध टीका, नागलीला, भागवत्, गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार, प्राणप्यारी आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं। सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं, क्योंकि उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को सुसज्जित किया, वरन् कृष्ण-काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया।

तो इन तीनों महान संतों ने हिंदू धर्म-संस्कृति को नई दिशा दिखाई। आदि शंकराचार्य और रामानुजाचार्य ने भारतीय दर्शन को समृद्ध किया और सूरदास ने काव्य भक्तिभाव का अद्भुत वर्णन किया है। तीनों महान संतों के बारे में “भूतो न भविष्यति” को अक्षरश: सत्य माना जा सकता है।संत परंपरा के तीन रत्न आदि शंकराचार्य , रामानुजाचार्य और सूरदास का हिंदू धर्म संस्कृति में विशिष्ट स्थान है।