आम चुनाव के बीच आज मंगल पांडे को याद ह्रदय गर्व से भर जाता है…

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आम चुनाव के बीच आज मंगल पांडे को याद ह्रदय गर्व से भर जाता है…

 

आज हम आजाद हैं। पर यह आजादी हमें बहुत संघर्षों से मिली है। और आजादी के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बिना इस आजादी की कल्पना नहीं की जा सकती थी। और उस पहले स्वतंत्रता संग्राम के पहले नायक थे मंगल पांडे। आज आजादी के 77वें साल और आम चुनावों के बीच हम खास स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे को याद करते हैं। दरअसल 8 अप्रैल को ही आजादी की लौ जलाने वाले मंगल पांडे को फांसी दी गई थी। देश में आजादी की पहली चिंगारी सुलगाने वाले मंगल पांडे को गिरफ्तार कर 8 अप्रैल 1857 को फांसी दी गई थी। वास्तव में आज की तारीख मंगल पांडे को आंखों के सामने रख कर यह चिंतन करने का अवसर है कि आजाद भारत में क्या उन स्वतंत्रता सेनानियों की उम्मीदों के मुताबिक हमने अपने कदम आगे बढ़ाए हैं? आज के इस दिन के साथ एक और घटना भी जुड़ी है। देश में धधकती आजादी की आंच पूरी दुनिया तक पहुंचाने के लिए मंगल पांडे को फांसी होने के 72 साल बाद क्रांतिकारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जैसे आजादी के परवानों ने आठ अप्रैल 1929 को दिल्ली के सेंट्रल एसेंबली हॉल में बम फेंका था। इस बम धमाके का मकसद किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं था बल्कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की तरफ दुनिया का ध्यान आकर्षित करना था। दोनों घटनाओं में भले ही 72 साल का फासला रहा हो, पर यह घटना बताती है कि आजादी मिलने तक भारत के युवा क्रांतिकारी मंगल पांडे के जज्बातों से जुड़े रहे। और आजादी मिलने तक अलग-अलग चेहरों के रूप में देश की बलि वेदी पर कुर्बानी देने वाले भारत के सपूतों की यात्रा सतत जारी रही। उद्देश्य यही था कि देश की आने वाली पीढ़ियां आजाद हवा में सांस ले सकें और उनका भविष्य सुरक्षित हो।

मंगल पांडे ईस्ट इंडिया कंपनी की 34वीं बंगाल इंफेन्ट्री के सिपाही थे। मंगल पांडे ने गाय की चर्बी मिले कारतूस को मुँह से काटने से मना कर दिया था। तत्कालीन अंग्रेजी शासन ने उन्हें बागी करार दिया जबकि आम हिंदुस्तानी के लिए वह आजादी की लड़ाई के नायक थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को लेकर भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में सन् 1984 में एक डाक टिकट जारी किया गया। मंगल पांडे का जन्म भारत में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगवा नामक गांव में एक “ब्राह्मण” परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे था। ” ब्राह्मण” होने के कारण मंगल पांडे सन् 1849 में 22 साल की उम्र में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना मे बंगाल नेटिव इन्फेंट्री की 34वीं बटालियन मे भर्ती किये गए, जिसमें ज्यादा संख्या मे ब्राह्मणों को भर्ती की जाती थी।

1857 के विद्रोह का प्रारम्भ एक बंदूक की वजह से हुआ था। सिपाहियों को एनफ़ील्ड बंदूक दी गयी। इस नई बंदूक में गोली दागने की आधुनिक प्रणाली प्रिकशन कैप का प्रयोग किया गया था। परन्तु बंदूक में गोली भरने की प्रक्रिया पुरानी थी। नयी एनफ़ील्ड बंदूक भरने के लिये कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारुद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पड़ता था। कारतूस के बाहरी आवरण में चर्बी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी। सिपाहियों के बीच अफ़वाह फैल चुकी थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनायी जाती है। 29 मार्च 1857 को बैरकपुर परेड मैदान कलकत्ता के निकट मंगल पांडे ने रेजीमेण्ट के अफसर लेफ्टीनेण्ट बाग पर हमला कर के उसे घायल कर दिया। सिवाय एक सिपाही शेख पलटु को छोड़ कर सारी रेजीमेण्ट ने मंगल पांडे को गिरफ्तार करने से मना कर दिया। मंगल पांडे ने अपने साथियों को खुलेआम विद्रोह करने के लिये कहा पर किसी के ना मानने पर उन्होने अपनी बंदूक से अपने प्राण लेने का प्रयास किया। परन्तु वे इस प्रयास में केवल घायल हुये। 6 अप्रैल 1857 को मंगल पांडे का कोर्ट मार्शल कर दिया गया और 8 अप्रैल को फ़ांसी दे दी गयी।

पर मंगल पांडे द्वारा लगायी गयी विद्रोह की यह चिंगारी बुझी नहीं। एक महीने बाद ही 10 मई सन् 1857 को मेरठ की छावनी में कोतवाल धनसिंह गुर्जर के नेतृत्व में बगावत हो गयी। और गुर्जर धनसिंह कोतवाल इस के जनक के रूप में सामने आए यह विप्लव देखते ही देखते पूरे उत्तरी भारत में विद्रोह फैल गया जिससे अंग्रेजों को स्पष्ट संदेश मिल गया कि अब भारत पर राज्य करना उतना आसान नहीं है जितना वे समझ रहे थे। इसके बाद ही हिन्दुस्तान में आजादी की जो लौ जगी, वह 1947 में अंग्रेजों की विदाई के साथ ही बुझी। आम चुनाव के बीच ऐसे मंगल पांडे को याद कर ह्रदय गर्व से भर जाता है…।