आज “मामा” की 23 वीं पुण्यतिथि है…

आदिवासियों को समर्पित संत को बामनिया भील आश्रम में किया जाएगा याद ...

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आदिवासी बाहुल्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले झाबुआ के बामनिया में भील आश्रम में आज आदिवासियों को समर्पित संत मामा बालेश्वर दयाल को याद किया जाएगा। हर वर्ष की तरह इस साल भी राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के भील पांच दिन की पदयात्रा कर बामनिया पहुंचकर आज अपने दिलों में बसे “मामा” को श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। भील आश्रम बामनिया में आदिवासियों का मेला लगेगा।
मामा के उपदेशों पर चर्चा होगी। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को याद किया जाएगा। आदिवासी शराब छोड़ने और सच्चाई के रास्ते पर चलने का संकल्प लेंगे। पदयात्रा का सही मतलब समझना है तो इन आदिवासियों का पदयात्रा कर मामा के भील आश्रम जाकर मत्था टेकने का अद्भुत दृश्य देखकर समझा जा सकता है। अपने मामा के लिए अगाध श्रद्धा लिए यह पदयात्रा सुनियोजित होती है। 21 दिसम्बर को राम मंदिर जगलावद तह. धरियावद जिला प्रतापगढ़ से पद यात्रा प्रारंभ की जाती है रात्रि को विश्राम राम मंदिर पावटी (पीपलखूंट) में किया जाता है।
22 दिसम्बर को सुबह पुनः पदयात्रा प्रारंभ होती है और रात्रि विश्राम मातासूला एवं माही डेम के पास आमली खेडा में। 23 दिसम्बर को पदयात्रियो का विश्राम घाटा गड़ली कुशलगढ एवं संगेसरी। 24 दिसम्बर को पद यात्रियों का रात्रि विश्राम बड़ी सरवा तथा 25 दिसम्बर की शाम को पदयात्रा अपनी मंजिल पर भील आश्रम बामनिया तह. पेटलावद जिला झाबुआ पहुँचती है, रात्रि में मामाजी की समाधि पर आम सभा होती है, जिसमें मामाजी के भजन-कीर्तन होते हैं और मामाजी के साथी वक्ताओं द्वारा भाषण देकर उन्हें दिल से याद किया जाता है।
दो दिन पहले मामा बालेश्वर दयाल पुण्यतिथि समारोह समिति के संयोजक गोविंद यादव का फोन आया और उन्होंने मामा की पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम की सूचना दी, तो मन गदगद हो गया। इससे यह महसूस हुआ कि आदिवासियों का मसीहा भोले-भाले भीलों के दिल में इस दुनिया से विदा होने के 23 साल बाद भी उसी प्रगाढ़ता, श्रद्धा और आस्था के साथ जिंदा है।
इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मामा का व्यक्तित्व कितना विराट था और उनका त्याग कितना अकल्पनीय था। अंग्रेजों के समय में जहां कई आदिवासी नायक हुए हैं तो मामा बालेश्वर दयाल जैसे महान गैर आदिवासी व्यक्तित्व भी रहे हैं, जिन्होंने डिप्टी कलेक्टर जैसी नौकरी को उस जमाने में ठुकराकर इन भोले-भाले भीलों के धर्मांतरण को रोकने का काम किया था। उनकी सुध ली थी और आदिवासियों को बेगारी से बचाने के लिए उन्हें जनेऊ धारण करवाकर ‘ब्राह्मण’ बनाने का उपक्रम भी मामाजी ने ही किया था।
साथ ही उनको शराब छुड़ाने के लिए उनसे ही शराब बंदी के आंदोलन भी चलवाए। आदिवासियों को अपनी ही बुराइयों के खिलाफ युद्ध करने को प्रोत्साहित करना एक अनूठा और अद्वितीय काम था, जिसे मामाजी ने बखूबी किया। गुजरात के पंचमहल, राजस्थान के बांसवाडा और पश्चिमी मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में मामाजी के समाज-सुधार कार्यक्रम से तत्कालीन राजा-महाराज और जमींदार, जागीरदार, चिंतित हो उठे और उन्हें खत्म करने की योजनाएँ बनने लगीं। कई जानलेवा हमले हुए। परंतु मामाजी थे कि टिके रहे। आए दिन जेल भेजे गए पर अपने लक्ष्य से नहीं डिगे।
 आदिवासी भाइयों और बहनों के मसीहा मामा बालेश्वर दयाल का जन्म उत्तरप्रदेश के इटावा जिले में सन् 1905 को रामनवमी के दिन हुआ था।  मामा बालेश्वर दयाल लगभग 14-15 वर्ष के थे तभी ही उनकी माता का देहांत हो गया था। इसके बाद वह गृह नगर और गृह प्रवेश छोड़कर, एक पत्र मित्र के घर मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के खाचरोद गांव आ गये।
यहीं जैन पाठशाला में अध्यापक की नौकरी शुरू की और आसपास के आदिवासी अंचलों में व्याप्त भुखमरी से रूबरू होने के लिए दौरे करने चालू कर दिया। इधर मामाजी के पिताजी मामाजी की डिप्टी कलेक्टर की पद स्थापना का पत्र लेकर खाचरोद आए परंतु उन्हें निराश ही लौटना पड़ा। महान क्रांतिकारी स्व. चन्द्रशेखर आजाद की माता के निमंत्रण पर अलीराजपुर रियासत के ग्राम भाबरा में कुछेक दिन रहने पर चन्द्रशेखरआजाद की माता से मिले।
थांदला के एक स्कूल में मामा जी को प्रधान अध्यापक के पद पर नौकरी मिल गई। यहां इन्होंने समझा कि आदिवासी किस तरह मजबूरियों के आगे घुटने टेक कर धर्मांतरण के दुष्चक्र में फंस जाता है। और फिर क्या था, मामाजी ने  आदिवासी समाज को हार से जीत, कायरता से निडरता, निराशा से आशा, अनेकता से एकता, बैर विरोध से प्रेम प्यार, जगत से भगत और हंसमुख समाज में बदल दिया। मामा बालेश्वर दयाल, आप जैसी महानतम विभूतियां हजारों साल में जन्म लेती हैं। आपको शत-शत नमन।
धन्यवाद गोविंद यादव और आपके सभी साथी, मामा के अनुयायी आदिवासी बंधु-भगिनी जिनकी सांसों में मामा आज भी जिंदा हैं और सदियों तक जिंदा रहेंगे। 1998 में हम सबसे जुदा हुए भील मामाओं के भी मामा बालेश्वर दयाल को आज और सदियों-सदियों तक पूरी शिद्दत से याद किया जाएगा। 1905 में रामनवमी को जन्मे मामा बालेश्वर दयाल वास्तव में भील आदिवासियों के राम बनकर धरा पर उतरे थे। और राम की तरह ही युगों-युगों तक इन भोले-भाले भील सहित जन-जन के मन में जीवंत रहेंगे। संत भी रहे, सांसद भी रहे, समाज सुधारक भी रहे। आदिवासियों के हित में पूरा जीवन समर्पित करने वाले महान तपस्वी तुम फिर लौटकर आना…। इस बार मध्यप्रदेश में ही जन्म लेना …।