आज का दिन आजाद हिन्द फौज और सुभाष का है…

768

आज का दिन आजाद हिन्द फौज और सुभाष का है…

21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ। 22 सितम्बर 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा – हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’। यह स्वतन्त्रता की देवी की मांग है।

दरअसल इस आजाद हिन्द फौज और सुभाष चन्द्र बोस की बात आज इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि बोस ने अपने अनुयायियों को जय हिन्द का अमर नारा दिया था और 21 अक्टूबर 1943 को सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार आजाद हिन्द सरकार की स्थापना की थी। उनके अनुययी प्रेम से उन्हें नेताजी कहते थे। एक मायने में देखा जाए तो 21 अक्टूबर 1943 से 15 अगस्त 1947 को भारत को आजादी मिलने तक का समय आजाद हिन्द फौज और आजाद हिन्द सरकार के साथ ही आजाद भारत की मंजिल तक पहुंचने का समय था। यह सफर अस्थायी सरकार से स्थायी सरकार तक का था। यह सफर सिंगापुर में गठित स्वतंत्र भारत की आजाद हिन्द सरकार से स्वतंत्र भारत की सरकार तक का था।

सिंगापुर में गठित आजाद हिन्द सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों का पद नेताजी ने अकेले संभाला था। इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया था। उनके इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी थी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये थे। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम ‘शहीद द्वीप’ तथा निकोबार का ‘स्वराज्य द्वीप’ रखा गया था। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहराया गया था। इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया।

6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम जारी एक प्रसारण में अपनी स्थिति स्पष्ट की थी और आजाद हिन्द फौज द्वारा लड़ी जा रही इस निर्णायक लड़ाई की जीत के लिये उनकी शुभकामनाएं मांगीं थीं। सुभाष ने कहा था कि “मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की मांग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूं कि यदि हमें आजादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आजादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुंचने के लिए किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आजाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं चाहते हैं।” 6 जुलाई 1944 को सुभाषचन्द्र बोस द्वारा ही गांधी जी के लिए प्रथम बार राष्ट्रपिता शब्द का प्रयोग किया गया था। इसके अतिरिक्त सुभाष चन्द्र बोस ने फौज के कई बिग्रेड बना कर उन्हें ‘महात्मा गाँधी ब्रिगेड’, ‘अबुल कलाम आजाद ब्रिगेड’, ‘जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड’ तथा ‘सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड’ नाम दिए थे। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज खां थे।

इसीलिए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को करिश्माई व्यक्तित्व माना जाता है। और आजाद हिन्द फौज वास्तव में भारत से अंग्रेजों को बाहर का रास्ता दिखाने वाली फौज थी। द्वितीय विश्व युद्ध का पासा न पलटता तो भारत 1944 में ही आजाद हो जाता। दरअसल फ़रवरी से लेकर जून 1944 ई. के मध्य तक आज़ाद हिन्द फ़ौज की तीन ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा किन्तु दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े। ऐसे में नेताजी को टोकियो की ओर पलायन करना पड़ा और कहते हैं कि हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया किन्तु इस बात की पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है। आजाद हिन्द फौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेजों ने 1945 ई. में गिरफ्तार कर लिया और उनका सैनिक अभियान असफल हो गया, किन्तु इस असफलता में भी उनकी जीत छिपी थी। आजाद हिन्द फौज के गिरफ्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज सरकार ने दिल्ली के लाल किला में नवम्बर, 1945 ई. को झूठा मुकदमा चलाया और फौज के मुख्य सेनानी कर्नल सहगलकर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाहनवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया।

इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रूजवाहरलाल नेहरूभूला भाई देसाई और के.एन. काटजू ने दलीलें दी लेकिन फिर भी इन तीनों की फाँसी की सज़ा सुनाई गयी। इस निर्णय के खिलाफ पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, आम जनमानस भड़क उठे और और अपने दिल में जल रहे मशालों को हाथों में थाम कर उन्होंने इसका विरोध किया, नारे लगाये गये- लाल किले को तोड़ दो, आजाद हिन्द फौज को छोड़ दो। विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्युदण्ड की सजा को माफ करा दिया। यह घटना साधारण नहीं, बल्कि अंग्रेजों की हार और भारतीयों की जीत थी। यह घटना आजाद हिन्द फौज और सुभाष चन्द्र बोस के भारत की आजादी में योगदान का प्रमाण थी। आइए आज हम सब आजाद हिन्द फौज और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को याद करते हैं और 21वीं सदी के उस भारत की तस्वीर बनाने में अपनी हिस्सेदारी तय करते हैं जिस पर सुभाष चन्द्र बोस भी गर्व कर सकें…।