आज की ‘सोनिया प्रियंका राहुल’ कांग्रेस

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आज की ‘सोनिया प्रियंका राहुल’ कांग्रेस

स्वस्थ प्रजातंत्र में विश्वास रखने वाले अनेक प्रबुद्ध नागरिक कांग्रेस की दयनीय स्थिति से चिंतित है।अभी संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में तीन हिंदी भाषी राज्यों में कांग्रेस की स्पष्ट हार विचारणीय है। विपक्ष की मुख्य धुरी कांग्रेस ही हो सकती है जिसकी उपस्थिति पूरे भारत में है। कांग्रेस के इतिहास पर दृष्टि डालते ही उसके स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष के शानदार पृष्ठ सामने आ जाते हैं। तिलक, गोखले, लाजपत, सुभाष , अब्दुल कलाम, राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू जैसे अनेक विशाल व्यक्तित्व हमारे समक्ष आ जाते हैं।इसी कांग्रेस को मूर्धन्य नेतृत्व देने वाले भारतीय इतिहास के सर्वकालिक महानतम नेता महात्मा गाँधी ने, न केवल कांग्रेस और स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन का नेतृत्व किया, अपितु उन्होंने भविष्य के भारत के लिये एक समग्र आदर्श भी प्रस्तुत किया। दुर्भाग्यवश स्वाधीनता प्राप्त होते ही महात्मा गांधी के चित्र सरकार और पार्टियों के दफ्तरों में टाँग दिये गये, परन्तु उनके आदर्शों को तिलांजलि दे दी गई।
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत नेहरू ने भारतीय प्रजातान्त्रिक संस्थाओं को प्रगाढ़ बनाया। भारत में सार्वजनिक क्षेत्र मे भारी उद्योग लगाए। लेकिन उनकी समाजवादी सोच आकर्षक और लोक लुभावनी होते हुए भी भारत के पहले चार दशकों में विशेष आर्थिक प्रगति नहीं कर सकी। परन्तु कांग्रेस की धर्म निरपेक्षता की नीति भारत जैसे विविधताओं के देश के लिए पूर्णतया उचित थी। कांग्रेस अपनी इस नीति से तब लड़खड़ा गई जब राजीव गांधी ने मुस्लिमों को प्रसन्न करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के शाहबानो के निर्णय को पलट दिया और हिन्दुओं को संतुष्ट करने के लिए अयोध्या में राम मंदिर का ताला खोलकर शिलान्यास कर दिया।इससे अनेक हिंदू और मुसलमान दोनों ही कांग्रेस से दूर हो गए, और वह आज तक लोक सभा में बहुमत प्राप्त नहीं सकी है। इसके बाद कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर दृढ़ता से न चल कर कभी मुसलमानों को और कभी हिंदुओं को रिझाने के लिए फ़ार्मूलों का प्रयोग करने लगी। कांग्रेस द्वारा एन आर सी और तीन तलाक़ जैसे मुद्दों का विरोध तथा राहुल गांधी का जनेऊ धारण और कमलनाथ की हनुमान भक्ति इसी श्रेणी में आती है।
कांग्रेस के नरसिम्हा राव ने अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को आर्थिक सुधार करने का अवसर प्रदान कर देश की आर्थिक नीतियों में यू टर्न लिया। उनकी यह नीति कुछ फेरबदल के साथ पिछले तीन दशकों में सभी सरकारों द्वारा भारत को नई आर्थिक ऊंचाइयों पर ले जा रही है। लेकिन कांग्रेस खुलकर इसका श्रेय लेने के बजाए अब अपने को समाजवादी आवरण में ग़रीबों के मसीहा तथा कारपोरेट के विरोधी के रूप में प्रस्तुत कर रही है।
कांग्रेस की मुख्य समस्या उसका शीर्ष नेतृत्व है। गांधी-नेहरू परिवार वर्तमान में कांग्रेस को सशक्त नेतृत्व देने में पूर्णतया विफल रहा है। इस नेतृत्व का अस्तित्व और औचित्य मात्र उसका पारिवारिक उत्तराधिकार है। कांग्रेस की दूसरी पंक्ति के जनाधार विहीन नेता तर्क देते हैं कि गांधी परिवार पार्टी के लिए फेविकॉल का काम करता है। यह एक भ्रांति है।पार्टी नेतृत्व में आमूल चूल परिवर्तन से कुछ समय के लिए बिखराव होता है, परंतु नई ऊर्जा से पार्टी पुनः और शक्तिशाली होकर उदित होती है। 2014 में पुराने नेतृत्व को हटाकर बीजेपी ने मोदी को नेतृत्व करने का अवसर दिया, जिसके परिणाम स्वयं स्पष्ट है। इसके विपरीत 2022 में मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनना ऐसा ही था जैसे किसी कॉरपोरेट में किसी व्यक्ति को कोई शक्तिविहीन बड़ा पद दे दिया जाय। विख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा बीजेपी की सांप्रदायिक नीतियों के विरोधी हैं तथा कांग्रेस की नीतियों के समर्थक रहे है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वे गांधी परिवार के नेतृत्व से क्षुब्ध हैं। वे कहते हैं, “तीनों गांधी – सोनिया, राहुल और प्रियंका – की निरंतरता न केवल मोदी को समेकित करने में सहायक रही है, बल्कि मोदी शासन को भी मजबूत कर रही है। दूसरी ओर, उनका ( गांधी परिवार का) तत्काल प्रस्थान एक अधिक विश्वसनीय विपक्षी नेता के लिए अवसर उत्पन्न करेगा।”
राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस केन्द्र की सत्ता में आना चाहती है, जो प्रत्येक राजनीतिक दल का अधिकार है। कांग्रेस पिछले दो लोकसभा के चुनाव हार चुकी है। पिछले 9 वर्षों में लगभग 50 विधानसभा चुनावों में से वह केवल 11 जीत सकी है। 6 राज्य सरकारें उसे बीजेपी को गंवानी भी पड़ी हैं। आज उसकी केवल तीन राज्यों में सरकार है। कांग्रेस अपने अकेले बूते पर लोक सभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त करने की सोच भी नहीं सकती। बार- बार की हार से कांग्रेस छोटी सफलताओं पर ही संतुष्ट हो जाती है। अब वह यूपीए की अपेक्षा इंडिया गठबंधन में कमज़ोर स्थिति में चुनाव लड़ने जा रही है। भारत जोड़ो यात्रा की सफलता और कर्नाटक विजय के बाद उसने अपने को इंडिया गठबंधन का स्वाभाविक नेतृत्व कर्ता समझ लिया था। अब तीन हिन्दी भाषी राज्यों में पराजय के बाद उसे थोड़ा बराबरी के साथ गठबंधन के अन्य दलों के साथ बैठना पड़ रहा है। आगामी कुछ दिनों में गठबंधन का एक साझा एजेंडा और सीटों का बँटवारा आ सकता है। कांग्रेस ने तात्कालिक फ़ॉर्मूले के तौर पर जातिगत मतगणना की माँग की है।यह उसका बीजेपी के हिंदू वोट बैंक को खंडित करने का प्रयास है। कांग्रेस पूर्व में सभी धर्मों और जातियों को एक छाते में ले कर चलती थी। उसने मंडल और कमंडल दोनों का विरोध भी किया था। फ़िलहाल हिन्दी भाषी तीन राज्यों में यह फ़ॉर्मूला नहीं चल सका है। आगामी लोकसभा चुनाव में उसका सामना उस बीजेपी से हैं जिसके पास मोदी की अपार लोकप्रियता और एक शक्तिशाली कॉडर आधारित चुनावी मशीन है। कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के सहयोग से लोक सभा चुनाव जीतती है अथवा हार जाती है, दोनों ही स्थितियों में उसे तात्कालिक लाभ सोचने के स्थान पर एक लंबी अवधि की राजनीतिक सोच और नए नेतृत्व और संगठन के साथ आगे बढ़ना होगा। यह परिवर्तन, यदि हुआ तो उसका नौजवान कार्यकर्ता ही कर सकता है।