सत्य नेपथ्य के : पुरी का पौराणिक सत्य, 12 ज्योतिर्लिंगों का संगम, लिंगराज व उड़ीसा के जनजीवन का नेपथ्य

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सत्य नेपथ्य के पुरी का पौराणिक सत्य, 12 ज्योतिर्लिंगों का संगम, लिंगराज व उड़ीसा के जनजीवन का नेपथ्य,पार्ट 5

वरिष्ठ लेखक व पत्रकार चंद्रकांत अग्रवाल का साप्ताहिक कालम

श्री जगन्नाथपुरी की मेरी 8 दिवसीय यात्रा पुरी के ग्रांट रोड स्थित नीलाद्री कांप्लेक्स होटल से प्रारंभ होकर पुरी के आसपास के करीब 100 किलोमीटर के दायरे में सफर करती रही। पर पुरी के अंतिम पंक्ति के आम लोगों से मैं संवाद नहीं कर सका क्योंकि मुझे उड़िया भाषा का ज्ञान नहीं था तो उनको हिंदी का। उड़ीसा के पुरी के आम मूल निवासी अपनी भाषा उड़िया ही बोलना व सुनना पसंद करते हैं पर उनको पर्यटकों व तीर्थयात्रियों से जरूरी होने पर किसी तरह काम चलाऊ,टूटी फूटी हिंदी में बात करने का प्रयास करना ही पड़ता है, क्योंकि यहां आने वाले अधिकांश लोगों को उड़िया बिल्कुल नहीं आती। हालांकि उड़ीसा राज्य के भी हजारों लोग हर रोज यहां आते हैं। उन दिनों बीजू जनता दल के लाखों कार्यकर्ता भी पुरी आए हुए थे, बी जे डी व बीजू पटनायक की सत्ता की सिल्वर जुबली मनाने हेतु। मैं भी हैरान था कि कोई एक पार्टी व उसका कोई एक नेता किसी भी राज्य में इतना लोकप्रिय कैसे हो सकता है कि 25 साल तक लगातार राज कर सके। पर इसका एक बड़ा कारण मुझे यह लगा कि इस प्रदेश की प्रायः आर्थिक रूप से कमजोर जनता के पास अपनी रोजी रोटी की चिंताओं के सामने प्रदेश की राजनीति के लिए,सरकार के लिए कुछ सोचने का समय ही नहीं होता। उनकी सरकार से अधिक अपेक्षाएं भी नहीं होती,बस उनकी गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह चलती रहे,इतने भर से वे संतुष्ट हो जाते हैं। रहन सहन बहुत साधारण है। दिखावा तो बिल्कुल भी नहीं है,जैसा कि हमारे यहां है। यहां की पुलिस भी कर्तव्य परायण,सहयोगी स्वभाव की व विनम्र लगी। आम तौर पर यहां का खानपान,वेशभूषा भी बहुत साधारण लगे मुझे। खैर अन्य चर्चाएं अगली किश्त में करेंगे। इस किश्त में मैने यहां के अति प्राचीन ,ऐतिहासिक व अदभुत लिंगराज मंदिर की चर्चा करने की बात कही थी। तो पहले वही करेंगे व फिर पुराणों में वर्णित पुरी के अति प्राचीन इतिहास से आज के इस कालम को विराम देंगे। गुर्जर प्रतिहार कालीन लिंगराज मंदिर भारत के उड़ीसा प्रांत की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित है। यह भुवनेश्वर का मुख्य मन्दिर है तथा प्रदेश के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। यह भगवान त्रिभुवनेश्वर (शिव) को समर्पित है।इसे ययाति केशरी ने 11वीं शताब्दी में बनवाया था।

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यद्यपि इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप 12 वीं शताब्दी में बना, किंतु इसके कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी अधिक पुराने हैं। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है। यहां भगवान शिव के साथ-साथ भगवान विष्णु की भी पूजा होती है। मान्यताओं के अनुसार भुवनेश्वर शहर का नाम भी लिंगराज मंदिर के नाम पर ही रखा गया है। दरअसल भगवान शंकर की पत्नी को यहां भुवनेश्वरी के नाम से जाना जाता है। लिंगराज शब्द यहां भगवान शिव को समर्पित है क्योंकि लिंगराज का अर्थ है लिंगम के राजा अर्थात भगवान शिव। लिंगराज मंदिर शहर का एक मुख्य धार्मिक स्थल है। मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा जजाति केसरी द्वारा करवाया गया था। यह 55 मीटर ऊंचाई पर बना हुआ है, जिसकी सुंदर नक्काशी यहां आने वाले पर्यटकों को बहुत मनोहरी लगती है। मंदिर का निर्माण कलिंग और उड़िया शैली में किया गया है और इसे बनाने के लिए बलुआ पत्थरों का प्रयोग किया गया है। मंदिर की एक खास बात यह है कि इसकी छत पर उल्टी घंटी और कलश को स्थापित किया गया है, जो लोगों को बहुत हैरानी में डालता है। इस मंदिर में केवल हिन्दूओं को ही जाने की इजाजत है, अन्य धर्म के लोगों का जाना निषेध है।बाकी धर्म के लोगों के लिए बाहर एक चबूतरा बनाया गया है, जहां से मंदिर का पूरा दृश्य दिख जाता है। लिंगराज मंदिर भगवान हरिहर को समर्पित एक हिंदू मंदिर है। जो भगवान शिव और विष्णु जी का एक ही रूप है। ऐसी मान्यता है कि लिट्टी और वसा नामक दो राक्षसों का वध माँ पार्वती ने यहीं पर किया था। लडाई के बाद जब उन्हें प्यास लगी तो भगवान शिव ने यहाँ पर एक कुएं का निर्माण कर सभी नदियों का आवाहन किया व उनको इस सरोवर में समाहित किया। उसे अब बिंदुसागर सरोवर के नाम से जाना जाता है। इसी बिंदुसागर के निकट यह विशाल लिंगराज मंदिर अवस्थित है।

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यह स्थान शैव संप्रदाय के लोगों का एक मुख्य केंद्र रहा है। कहने को यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है पर आपको जानकार हैरानी होगी कि इस मंदिर का आधा भाग शिव जी का और आधा भाग विष्णु जी का है। यानी नीचे के भाग में भगवान् शिव निवास करते हैं और ऊपर का हिस्सा भगवान विष्णु को समर्पित है क्योंकि यहाँ विष्णु जी शालिग्राम के रूप में विराजमान है। लिंगराज मंदिर को कलिंग और उड़िया शैली में निर्मित किया गया है। बलुआ पत्थरों से बने इस लिंगराज मंदिर के ऊपरी भाग पर उल्टी घंटी और कलश स्थापित है। जो सभी के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इस मंदिर के ऊपर वाले हिस्से को पिरामिड के आकार का रूप दिया गया है।यहाँ पर जो शिवलिंग स्थापित है उसकी खासियत यह है कि वह करीब आठ फ़ीट मोटा और एक फीट ऊँचा ग्रेनाइट से निर्मित स्वयंभू शिवलिंग है। इस शिवलिंग के बारे में ऐसी मान्यता है कि भारत में जो 12 ज्योतिर्लिंग पाए जाते है वे सभी इस शिवलिंग में समाहित है। तभी तो इसे लिंगराज नाम दिया गया है। मंदिर कुल चार भागों में बंटा हुआ है जिसमें पहला भाग है – गर्भ गृह, दूसरा भाग है – यज्ञ शैलम, तीसरा भोगमंडप और चौथा भाग नाट्यशाला। यहाँ आने वाले भक्तजन सबसे पहले सर्वप्रथम बिन्दुसरोवर में स्नान करते हैं उसके बाद वे अनंत वासुदेव के दर्शन करते हैं। फिर गणेश पूजा होती है और गोपालन देवी के दर्शन किये जाते है। इसके पश्चात भगवान् शिव की सवारी नंदी के दर्शन होते हैं और अंत में लिंगराज महाराज के दर्शन किये जाते हैं। का प्रांगण 150 मीटर वर्गाकार है और कलश की ऊँचाई 40 मीटर है। प्रतिवर्ष अप्रैल महीने में यहाँ रथयात्रा का आयोजन किया जाता है। इस मंदिर के दायीं तरफ एक छोटा सा कुआं है, जिसे लोग मरीची कुंड कहते हैं। स्‍थानीय लोगों का ऐसा कहना है कि इस कुंड के पानी से स्‍नान करने से महिलाओं को संतान से जुडी परेशानियां दूर हो जाती है। यह मंदिर भारत के कुछ बेहतरीन हिंदू मंदिरों में से एक है। इस मंदिर की ऊँचाई 55 मीटर है और पूरे मंदिर में बेहद सुंदर नक्काशी की गई है। इस मंदिर को बाहर से देखने पर चारों ओर से फूलों का गजरा पहना हुआ सा दिखाई देता है। इस मंदिर के चार मुख्य भाग है, जिन्हें गर्भग्रह, यज्ञशाला, भोग मंडप और नाट्यशाला के रूप में जाना जाता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, लिंगराज मंदिर से होकर एक नदी गुजरती है। इस नदी के पानी से मंदिर का बिन्दुसार सरोवर भर जाता है और इस सरोवर में स्नान करने से मनुष्य की शारीरिक और मानसिक बीमारियाँ दूर हो जाती है। लिंगराज मंदिर का मुख पूर्व दिशा की ओर है, जिसका निर्माण बलुआ पत्थर और लेटराइट से किया गया है। मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व की ओर है जबकि उत्तर और दक्षिण में अन्य छोटे प्रवेश द्वार है। में लोग अधिकतर सर्दियों के मौसम में ही दर्शनों के लिए आते हैं क्योंकि इस दौरान यहां का मौसम सुहावना रहता है। मंदिर के आसपास भी काफ़ी खूबसूरत नजारे देखने को मिलते हैं। हालांकि भुवनेश्वर का मौसम गर्मियों में काफी गर्म और उमस से भरा रहता है और इस मौसम में लोग यहां कम ही आते हैं।

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कुछ पाठकों ने इच्छा जाहिर की है कि पुराणों में जगन्नाथपुरी व मंदिर के संबंध में जो शास्त्रोक्त जानकारी दी गई है,वह भी मैं बताऊं। तो उसी संदर्भ में माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्‍वरम में विश्राम करते हैं। द्वापर के बाद भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ। पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहां भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं। हिन्दुओं की प्राचीन और पवित्र 7 नगरियों में पुरी उड़ीसा राज्य के समुद्री तट पर बसा है। जगन्नाथ मंदिर विष्णु के 8 वें अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसी पवित्र नगरी पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर है। आज का उड़ीसा प्राचीनकाल में उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था। यहां देश की समृद्ध बंदरगाहें थीं, जहां जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, थाईलैंड और अन्य कई देशों का इन्हीं बंदरगाह के रास्ते व्यापार होता था। पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहां लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे।

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जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते हैं। पुराण के अनुसार नीलगिरि में पुरुषोत्तम हरि की पूजा की जाती है। पुरुषोत्तम हरि को यहां भगवान राम का रूप माना गया है। सबसे प्राचीन मत्स्य पुराण में लिखा है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की देवी विमला है और यहां उनकी पूजा होती है। रामायण के उत्तराखंड के अनुसार भगवान राम ने रावण के भाई विभीषण को अपने इक्ष्वाकु वंश के कुल देवता भगवान जगन्नाथ की आराधना करने को कहा। आज भी पुरी के श्री मंदिर में विभीषण वंदापना की परंपरा कायम है। स्कंद पुराण में पुरी धाम का भौगोलिक वर्णन मिलता है। स्कंद पुराण के अनुसार पुरी एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है और यह 5 कोस यानी 16 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। माना जाता है कि इसका लगभग 2 कोस क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में डूब चुका है। इसका उदर है समुद्र की सुनहरी रेत जिसे महोदधी का पवित्र जल धोता रहता है। सिर वाला क्षेत्र पश्चिम दिशा में है जिसकी रक्षा महादेव करते हैं। शंख के दूसरे घेरे में शिव का दूसरा रूप ब्रह्म कपाल मोचन विराजमान है। माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा का एक सिर महादेव की हथेली से चिपक गया था और वह यहीं आकर गिरा था, तभी से यहां पर महादेव की ब्रह्म रूप में पूजा करते हैं। शंख के तीसरे वृत्त में मां विमला और नाभि स्थल में भगवान जगन्नाथ रथ सिंहासन पर विराजमान है। जगन्नाथ मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्‍ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है। राजा इंद्रदयुम्न ने बनवाया था यहां मंदिर : राजा इंद्रदयुम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति था। राजा इंद्रदयुम्न को सपने में हुए थे जगन्नाथ के दर्शन। कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। ‍तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति। विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्‍ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी।

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विश्‍ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे। राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्‍ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए। अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया। जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी ‍मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।

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वर्तमान में जो मंदिर है वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था। यहां स्थित मंदिर 3 बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्‍य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं। अगले पार्ट 6 में हम मेरी यात्रा के कुछ ऐसे संस्मरण की चर्चा करेंगे जो पुरी व उड़ीसा की लोक संस्कृति को रेखांकित करेंगे। जय श्री कृष्ण। जय श्री जगन्नाथ।।