तुलसी देखें अपने अवगुण…
दुनिया में सभी को दूसरों के अवगुण नजर आते हैं, तो अपने गुण। पर राम नाम की महिमा ऐसी है कि उनका वर्णन करने का साहस तुलसीदास जब जुटाते हैं तो उन्हें सबसे पहले अपने आप में अवगुण ही अवगुण नजर आने लगते हैं। अब अगर तुलसी की कसौटी पर रामभक्त खुद को परखेंगे तो उन्हें आईने के सामने खड़े होकर अपने गुण-अवगुणों की परख करना चाहिए। और वास्तव में रामभक्तों को खुद के अवगुण देखने की क्षमता पैदा करनी पड़ेगी। इक्कीसवीं सदी में ऐसे कितने रामभक्त हैं, जो तुलसी की कसौटी पर खरे उतरते हैं?
तुलसीदास जी खुद को आइना दिखाते हुए लिखते हैं कि जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के भाँड़ें हैं। जो श्री रामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करने वाले, धर्मध्वजी (धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी) और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है। यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जाएगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे मैंने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ लेंगे। मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं। मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार श्री रामजी के गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्री रघुनाथजी के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि।
तुलसीदास जी एक तरफ अपने अवगुण देखते हैं तो दूसरी तरफ खलों की वंदना भी करते हैं। तुलसीदास जी लिखते हैं कि अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है। जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं।जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है। जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाड़ने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। तुलना भी बड़ी सटीक की है कि कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?
बालकांड के इस वर्णन का मतलब ही यही है कि सभी को राम की वंदना करने से पहले खुद के अवगुणों में झांकने की क्षमता होनी चाहिए। खलों की पहचान भी होना चाहिए और खलों की वंदना करने में भी हिचकना नहीं चाहिए, जब यह पता हो कि वह उनके सद्मार्ग में बाधक बनने का दुस्साहस कर सकते हैं। क्योंकि श्री रामजी तो विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, पर तुलसीदास जी खुद पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं कि जगत में मुझसे बढ़कर मूर्ख और मलिन बुद्धि और कौन होगा? तो राम के प्रति विशुद्ध प्रेम अपने-अपने मन में जगाने की इच्छा है तो तुलसी सरीखी सभी को अपनी तस्वीर आइने में नजर आना ही चाहिए। आओ हम सब तुलसी बनने का साहस जुटाएं और अपने-अपने अवगुणों पर गौर कर राम के प्रति सच्चे प्रेम का प्रकटीकरण करें…।