

दक्षिण के तुलसी ‘त्यागराज’…जिनकी हर सांस में बसे थे राम…
कौशल किशोर चतुर्वेदी
भगवान राम को आराध्य मानने वाले वैसे तो पूरी दुनिया में व्याप्त हैं। पर पूरे भारत में राम को ह्रदय में विराजित किए भक्तों की संख्या अनंत है। उत्तर भारत में हम जहां तुलसी को रामभक्त के रूप में देखते हैं, तो दक्षिण भारत के तुलसी ‘त्यागराज’ हैं। सम्मानपूर्वक “श्री त्याग ब्राह्मण” के नाम से प्रसिद्ध रामभक्त त्यागराज भारतीय संगीत के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण संगीतकारों में से एक थे। त्यागराज मात्र 13 वर्ष के थे, उन्होंने राग देसिकथोडी में संस्कृत में अपनी पहली कृति ‘नमो नमो राघवाय अनिषम’ की रचना की थी। जिसका हिंदी में भाव यह है कि
‘भगवान राघव को निरंतर नमस्कार; भगवान राम को निरंतर नमस्कार।
हे दीन लोगों के उपकारी, ऋषि ज़ुका द्वारा प्रशंसित! हे सभी लोकों के लिए दया के महासागर ! भगवान राघव को निरंतर नमस्कार। हे सूर्यों की भीड़ जो आश्रितों के पापों के अंधेरे को दूर करती है! हे सर्वदा रक्षक प्रख्यात कवियों! भगवान राघव को निरंतर नमस्कार। हे सच्चे भक्तों के लिए कामना-वृक्ष! हे ब्रह्मा, जीव और अन्य देवताओं के मुखिया ! भगवान राघव को निरंतर नमस्कार। हे नम्र लोगों की भीड़ के रक्षक! हे महान मन वाले राक्षसों के विनाशक ! भगवान राघव को निरंतर नमस्कार। हे दीर्घायु और स्वास्थ्य के दाता! हे प्रभु, ज़ेसा – सर्प – पर विश्राम करते हुए – जो वायु का उपभोग करता है! भगवान राघव को निरंतर नमस्कार। ओ ताजा मक्खन का अनोखा उपभोग करने वाले! हे पृथ्वी, पाताल तथा अन्य आदि लोकों के साक्षी भगवान राघव को निरंतर नमस्कार है। हे प्रभु जिनके हाथ धन्य हाथी की सूंड के समान हैं! हे प्रभु जिन्होंने राक्षस सुबाहु को बाणों से मार डाला ! भगवान राघव को निरंतर नमस्कार। हे गजेंद्र के रक्षक – हाथियों के राजा ! हे त्यागराज द्वारा पूजित प्रभु! भगवान राघव को निरंतर नमस्कार।’
तेरह साल में राम के प्रति ऐसी भक्ति दुर्लभ ही मानी जा सकती है। ऐसे त्यागराज ( जन्म- 4 मई, 1767, तंजावुर, तमिलनाडु; मृत्यु- 6 जनवरी, 1847) प्रसिद्ध संगीतज्ञ थे। वे ‘कर्नाटक संगीत’ के महान् ज्ञाता तथा भक्तिमार्ग के कवि थे। इन्होंने भगवान श्रीराम को समर्पित भक्ति गीतों की रचना की थी। उनके सर्वश्रेष्ठ गीत अक्सर धार्मिक आयोजनों में गाए जाते हैं। त्यागराज ने समाज एवं साहित्य के साथ-साथ कला को भी समृद्ध किया था। उनकी विद्वता उनकी हर कृति में झलकती है, हालांकि ‘पंचरत्न’ कृति को उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना कहा जाता है। त्यागराज के जीवन का कोई भी पल श्रीराम से जुदा नहीं था। वह अपनी कृतियों में भगवान राम को मित्र, मालिक, पिता और सहायक बताते थे।
उनकी माँ का नाम ‘सीताम्मा’ और पिता का नाम ‘रामब्रह्मम’ था। त्यागराज ने अपनी एक कृति में बताया है कि- “सीताम्मा मायाम्मा श्री रामुदु मा तंद्री” अर्थात् “सीता मेरी माँ और श्री राम मेरे पिता हैं”। इसके जरिए शायद वह दो बातें कहना चाहते थे। एक ओर वास्तविक माता-पिता के बारे मे बताते हैं दूसरी ओर प्रभु राम के प्रति अपनी आस्था प्रदर्शित करते हैं। त्यागराज एक अच्छे सुसंस्कृत परिवार में पैदा हुए थे। वे प्रकांड विद्वान् और कवि थे। वह संस्कृत, ज्योतिष तथा अपनी मातृभाषा तेलुगु के ज्ञानी पुरुष थे।
संगीत के प्रति त्यागराज का लगाव बचपन से ही था। कम उम्र में ही वह वेंकटरमनैया के शिष्य बन गए थे और किशोरावस्था में ही उन्होंने पहले गीत “नमो नमो राघव” की रचना की थी। दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत के विकास में प्रभावी योगदान करने वाले त्यागराज की रचनाएं आज भी काफ़ी लोकप्रिय हैं। धार्मिक आयोजनों तथा त्यागराज के सम्मान में आयोजित कार्यक्रमों में इनका खूब गायन होता है। त्यागराज ने मुत्तुस्वामी दीक्षित और श्यामाशास्त्री के साथ कर्नाटक संगीत को नयी दिशा दी। उनके योगदान को देखते हुए ही उन्हें ‘त्रिमूर्ति’ की संज्ञा से विभूषित किया गया है।
तंजावुर नरेश त्यागराज की प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने त्यागराज को दरबार में शामिल होने के लिए आमंत्रित भी किया था। लेकिन प्रभु की उपासना में डूबे त्यागराज ने उनके आकर्षक प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने राजा के प्रस्ताव को अस्वीकार कर प्रसिद्ध कृति “निधि चल सुखम” यानी ‘क्या धन से सुख की प्राप्ति हो सकती है’ की रचना की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि त्यागराज के भाई ने श्रीराम की वह मूर्ति, जिसकी पूजा-अर्चना आदि त्यागराज किया करते थे, पास ही कावेरी नदी में फेंक दी थी। त्यागराज अपने इष्ट से अलगाव को बर्दाश्त नहीं कर सके और घर से निकल पड़े। इस क्रम में उन्होंने दक्षिण भारत के लगभग सभी प्रमुख मंदिरों की यात्रा की और उन मंदिरों के देवताओं की स्तुति में गीत बनाए।
त्यागराज ने क़रीब 600 कृतियों की रचना करने के अलावा तेलुगु में दो नाटक ‘प्रह्लाद भक्ति विजय’ और ‘नौका चरितम’ भी लिखे। ‘प्रह्लाद भक्ति विजय’ जहां पांच दृश्यों में 45 कृतियों का नाटक है, वहीं ‘नौका चरितम’ एकांकी है और इसमें 21 कृतियां हैं। त्यागराज की विद्वता उनकी हर कृति में झलकती है। हालांकि ‘पंचरत्न’ कृति को उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना कहा जाता है। सैंकड़ों गीतों के अलावा उन्होंने उत्सव संप्रदाय ‘कीर्तनम’ और ‘दिव्यनाम कीर्तनम’ की भी रचनाएं कीं। उन्होंने संस्कृत में भी गीतों की रचना की। हालांकि उनके अधिकतर गीत तेलुगु में हैं।
जो कुछ भी त्यागराज ने रचा है, वह सब कुछ अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में है। उसमें प्रवाह भी ऐसा है, जो संगीत प्रेमियों को अपनी ओर खींच लेता है। आध्यात्मिक रूप से त्यागराज उन लोगों में थे, जिन्होंने भक्ति के सामने किसी बात की परवाह नहीं की।
त्यागराज राम भक्ति के गहरे समुद्र में पूरी तरह से डूबे थे। उनकी हर सांस में राम समाए थे। उनके भावों से राम भक्ति की उनकी भावना में गोता लगाया जा सकता है। उन्होंने लिखा था कि
‘राम-भक्ति अपने में एक साम्राज्य के समान है। जो इस साम्राज्य के अधिकारी होते हैं, उनके दर्शन मात्र से ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है। परोक्ष रूप से प्राप्त आनंद ही इतना लोकोत्तर है, तो फिर उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कैसी होती है, इसका वर्णन करना मेरे लिए संभव नहीं है। उसे केवल अनुभव से जाना जा सकता है। कोलाहल से भरा हुआ यह संसार, ये तीनों लोक, ईश्वर की लीला के परिणाम मात्र हैं। इस मायामय संसार का सनातन सत्य केवल राम-भक्ति में पाया जा सकता है।’ तो उन्होंने मन की यह बात भी कही थी कि
‘परख-निरख कर परमात्मा का रूप बार-बार देखो। वह ‘हरि’ भी कहलाता है और ‘हर’ भी। नर और सुर भी वह रहता है। अखिलांड भुवन में, जन-मन में, जल-थल में, नभ में पवन, प्रकाश, चराचर जगत्, खग, नग, मृग, तरु, लताएँ, सब में वही सगुण-निर्गुण त्यागराज का आराध्य ईश्वर व्याप्त है।’
4 मई को जन्मे ऐसी महान विभूति, रामभक्त त्यागराज की रामभक्ति वंदनीय और अतुलनीय है। वास्तव में दक्षिण के तुलसी ‘त्यागराज’…की हर सांस में राम बसे थे…।