Tulsi vivah: तुलसा महाराणी
डॉ. सुमन चौरे,
तुलसा का ध्यान करते ही भगवान् विष्णु के विभिन्न रूपों का स्मरण हो जाता है। भक्ति का मूल स्रोत आध्यात्मिक चेतना का प्रबल स्रोत भगवान् नारायण है। भगवान् विष्णु के हर रूप बालमुकुन्द हों या ठाकुरजी श्रीकृष्ण या फिर शालग्रामजी हों, की पूजा तब तक अपूर्ण मानी जाती है, जब उन्हें तुलसा और तुलसा मंजरी अर्पित नहीं की जाती है। भक्त अपने भगवान् को प्रसाद में छप्पन भोग ही क्यों न लगा दें; किन्तु नारायण उन छप्पन भोग को तभी स्वीकार करते हैं, जब उसमें तुलसी पत्र या तुलसी दल रखा जाय। तुलसी की महत्ता, उसका मान, उसकी प्रतिष्ठा ही लोक संस्कृति का औदार्य भाव है। एक दल (पत्ता) से चराचर के स्वामी और पालक प्रसन्न हो जाते हैं। यह प्रकृति के प्रति हमारा अनन्य आदर भाव है। एकात्म भाव है। यह तुलसा के दर्शन से उपजा एक ज्ञान है।
मध्यप्रदेश के पश्चिम-दक्षिण हिस्से में स्थित निमाड़ लोक सांस्कृतिक क्षेत्र में तुलसा से संबंधित कई लोक मान्यताएँ और आस्था प्रबल हैं। लोक विश्वास है, कि तुलसा आरोग्य दाता है, सुखदाता है। लोक श्रद्धापूर्वक मानता है कि तुलसा महाराणी (महारानी) मृत्यु लोक में साक्षात् विराजित विष्णुप्रिया देवी हैं और जिस घर में तुसली माता का वास है, वहाँ नारायण स्वयं वास करते हैं। जिस स्थान पर ब्रह्माण्ड की परमशक्ति का स्रोत स्वयं वास करे वहाँ तो सुख-समृद्धि की अटूट छाया होती ही है। तुलसा के दर्शन को शुभ माना गया है, इसलिए घर के आँगन में ‘तुलसा क्यारा’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है और तुलसा पूजन दैनिक जीवन का अभिन्न अंग है।
मध्यप्रदेश के पश्चिम-दक्षिण हिस्से में स्थित निमाड़ लोक सांस्कृतिक क्षेत्र में तुलसा का लोक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। तुलसीजी के महत्त्व को दर्शाने वाली बहुत-सी पौराणिक और लोक कथाएँ मिलती है। निमाड़ में ये कथाएँ निमाड़ी बोली में कही जाती हैं और इनको ‘वार्ता’ कहते हैं।। इन वार्ताओं में से एक प्रमुख है – श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ थीं। इनमें से एक सत्यभामा को अपने धन और ऐश्वर्य पर बड़ा गर्व था। उन्होंने श्रीकृष्ण को अपने आभूषणों से तौलने की बात कही और कृष्ण को तराजू के एक पलड़े में बैठाया और दूसरे पलड़े में सत्यभामा अपने आभूषण रखती गईं। उन्होंने अपने सारे आभूषण पलड़े पर रख दिए किन्तु, कृष्ण का पलड़ा अभी भी भारी ही था। वो नीचे ही रहा, थोड़ा-सा भी हिला नहीं। ये देखकर सत्यभामा बड़ी दु:खी हुई। तब दूसरी पटरानी रुकमणी ने तुलसीजी का मात्र एक दल आभूषणों वाले पलड़े पर रख दिया। जैसे ही तुलसी दल रखा, वैसे ही कृष्ण का पलड़ा ऊपर उठ गया। सत्यभामा के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली। तुलसी के मात्र एक दल के माध्यम से तुलसी के प्रति अपने अगाध आदर भाव और प्रेम को कृष्ण ने व्यक्त कर दिया। आडम्बर और ऐश्वर्यपूर्ण भौतिक वस्तुओं पर कृष्ण ने स्नेह और भक्ति से अर्पित तुलसी के एक पत्र को वरीयता दी। एक मुख्य संदेश यह भी है, कि पर्यावरण के तत्त्वों का सम्मान सर्वोपरि है और धन-ऐश्वर्य सब थोथा है।
लोक में प्रचलित देव पूजा-अर्चना की रीतियाँ और परम्पराएँ शास्त्रोक्त पद्धति से अधिक सशक्त मानी गई हैं। अपने अनुभव से लोक ने यह तथ्य अपनी गाँठ में बाँध लिए हैं कि वन-वनस्पति है तो जीवन है, इस गूढ़ मंत्र को उसने अपनी धार्मिक परम्पराओं, व्यवहार में गस लिया है। दूर्वा की महत्ता गणेशजी के साथ, बेलपत्र की शंकरजी के साथ, नीम की शीतला माता के साथ, तो तुलसा की महत्ता नारायण को अर्पित करने से बताई गई है। ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा को प्रकट करने के लिए वनस्पतियों के माध्यम से लोक ने वनस्पतियों में अपनी आस्था को अडिग कर लिया है।
तुलसा पूजन लोक संस्कृति में प्रकृति के वरदानों का सान्निध्य पाने का एक माध्यम है। तुलसा पूजन प्रतीक है वनस्पति विश्व के प्रति श्रद्धापूर्वक सम्मान प्रकट करने का। यह पर्यावरण संरक्षण का मूल है, बीज है, जो आस्था के धरातल पर अंकुरित होता है, पल्लवित होता है, पुष्पित होता है और फलित होता है। ऐसी आस्था ही लोक चेतना और लोक जागरूकता की द्योतक है, जो हमारी प्रकृति को नैसर्गिक रूप में संवर्धित करती है। तुलसा का आध्यात्मिक चिन्तन करें तो यह ध्यान, भक्ति, आरोग्य और ज्ञान की एक ऐसी धारा है जो हमें अपने पर्यावरण से जोड़े रखती है। श्रद्धा युक्त यह धारा अविरल गति से हमारे सांस्कृतिक लोक बहती रहती है।
दीवाली के बाद सबसे बड़ा त्योहार आता है, देव उठनी एकादशी। इसे निमाड़ में ‘ग्यारस खोपड़ी’ या ‘देव उठनी ग्यारस’ कहते हैं। इस दिन तुलसा विवाह किया जाता है। तुलसा-विवाहोत्सव मन्दिरों और घरों में परिवार के साथ बड़ी श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाते हैं। संध्याकाल में माता तुलसा के लग्न बालमुकुन्दजी के साथ लगाए जाते हैं। देवों को जगाया जाता है। इसी दिन से विवाह, गृहप्रवेश आदि कार्य फिर शुरू हो जाते हैं। देव उठनी ग्यारस एक लोक-पर्व है। गाँव गाँव में, घर-घर में अपने कुल की परम्परा के अनुसार लोक इसे मनाता है। लोक तुलसा को अपनी बेटी मानता है। कोई परिवार बालमुकुन्द के साथ, तो कोई शालग्राम के साथ, तो कोई विष्णुजी के साथ तुलसा विवाह करता है। पूरे धूमधाम और आस्था व श्रद्धा के साथ यह अनुष्ठान सम्पन्न किया जाता है।
निमाड़ का लोक विभिन्न शुभावसरों पर पशु-पक्षियों और वनस्पतियों को न्योता देता है। विवाह संस्कार के गीतों में तुलसा का भी गीत गाया जाता है। विवाह उत्सव शुरू होने पर प्रारम्भ में गंगा और तुलसा का विवाह गाया जाता है, जिसमें तुलसा शालग्रामजी से परिणय करने की इच्छा प्रकट करती है। लोक इस गीत में तुलसा से पुत्री का भाव स्थापित करके उससे विवाह की चर्चा कर रहा है –
किरसाण्या की बेटीमाटी लई आईS
माळई की बेटी बिरवा लाई होS राजS
घरS क्यारा मंS वाया माँय बिरवाS
पाणी देवS सिंचाय होS राजS
जदS म्हारी तुळसा दोय पानS ऊँगीS
चारS पानS लह्यर्रा लेS होS राजS
जदS म्हारी तुळसा आठ पानS लह्यरीS
सोळा पानS लह्यर्रा लेS होS राजS
जदS म्हारी तुळसाS बीसS पानी लह्यरीS
तीसS पानS लह्यर्रा लेS होS राजS
मातS पिताS खS लाग्यो चिन्तनS
कोणS खS तुळसाँ परणाओ होS राजS व
कहो बेटी तुळसा ब्रह्मा वरS वराँSS
कहो तोS विष्णु वरS वराँS S होS राजS
कहोS बेटी तुळसाँ शंकर वरS वराँSS
कहोS तोS ठाकुरS परणावाँS होS राजS
ब्रह्मा वरS तोS बाबुल मनS नहीं भावS
सृष्टि रचतS दिनS जायS होS राजS
विष्णु वरS तो बाबुल मनS नहीं भावS
लक्ष्मी चरणS दबावS होS राजS
शंकर वरS तोS बाबुल चितS नहीं भावS
गंगा गौरी को स्वामी होS राजS
गौरा गजाननS साथS होS राजS
हमखS तेS बाबुल शालिग्राम वरS वरणोंS
जिनS संगS आननS कराँ होS राजS
तुम्हाराS आँगणS की हरी हाऊँS तुळसा
आँगणS तुम्हाराS वासूँ होS राजS
भावार्थ : किसान की बेटी माटी भर लाई और माली की बेटी तुलसी का बिरवा ले आई। दोनों ने मिलकर तुलसा रोपी। तुलसा के दो पान (पत्ता) हुए, फिर बढ़कर चार पान, आठ और सोलह पान हो, जब मेरी तुलसा चौबीस पान की हुई फिर बढ़कर तीस पान लहरा उठे। माता-पिता को चिन्ता हुई तुलसा के परिणय की। उन्होंने पूछा – “हे बेटी, मैं ब्रह्मवर से तुम्हारा परिणय कर दूँ क्या।” तुलसा ने उत्तर दिया “पिता वह वर मुझे पसंद नहीं है, वे दिनभर सृष्टि की रचना करने में व्यस्त रहते हैं।” फिर पिता ने बेटी से पूछा – “हे बेटी, विष्णु वर से वरा दूँ क्या।” तुलसा ने कहा – “हे पिताजी, विष्णुजी के पास तो उनकी पत्नी लक्ष्मी हैं, जो उनके चरण दबाकर उनकी सेवा कर रही हैं।” पिता ने पूछा – “बेटी तुम कहो तो शंकर से तुम्हारा परिणय करा दूँ।” बेटी तुलसा ने कहा – “हे पिता, शंकरजी के पास गंगा, गौरा और पुत्र गणपति हैं। मुझे यह वर भी पसन्द नहीं है।” फिर माता-पिता पूछते हैं – “हे बेटी तुलसा, तुम्हारा विवाह नारायण शालग्रामजी से करवा दें क्या।” उत्तर में तुलसा कहती हैं – “हे पिताजी, मुझे शालिग्राम से परणा दीजिए, मैं उनके साथ प्रसन्न रहूँगी। हे पिताजी, मैं आपके आँगन की हरी तुलसा हूँ, मैं आपके आँगन में ही लहराती रहूँगी।”
निमाड़ में देव उठनी ग्यारस के अवसर पर किया जाने वाला सम्पूर्ण विवाह-विधान और पूजा विधान इस क्षेत्र से जुड़ी कृषि संबंधी उपज पर ही आधारित होता है। लोक द्वारा तुलसाजी का भगवान् से विवाह जिस मण्डप में सम्पन्न होता है, उसे निमाड़ में मण्डप न कहकर ‘खोपड़ी’ कहते हैं। यह खोपड़ी जुवार के छोटे पौधों और गन्नों से बनाई जाती है। इसमें पाँच खम्ब स्वरूप गन्ना और जुवार के पौधों को बाँधकर झोपड़ीनुमा मण्डप बना लेते हैं। चारों तरफ़ तोरण स्वरूप जुवार के भुट्टे लटका दिए जाते हैं। इसलिए निमाड़ में इस देव उठनी ग्यारस को ‘ग्यारस खोपड़ी’ कहते हैं। मण्डप के मध्य तुलसाजी का सौभाग्य शृँगार, वस्त्राभूषण और शालग्रामजी के अंगवस्त्रम् तथा जनेऊ आदि रखी जाती है। साथ ही बेर, चने की ताजी भाजी, आँवला, कच्चे सिंगाड़े, भटा, मूला आदि सामग्री रखी जाती है। यही सब भगवान् का भोग भी होता है।
लग्न से समय में तुलसाजी और शालग्रामजी के मध्य अन्तर-पट डालकर वैवाहिक मंगलाष्टक बोले जाते हैं, फिर अन्तर-पट हटाकर तुलसाजी और शालग्रामजी को एक सूत्र में बाँधकर लग्न संपन्न किए जाते हैं। फिर जुवार के भुट्टे से ताम्रकलश को बजाते हुए भगवान् के मण्डप की परिक्रमा करते हुए, जो सूत्र बोले जाते हैं, वे संस्कृत के श्लोक न होकर लोक बोली के श्लोक होते हैं –
आँवळा साँवळा बोरऽ भाजी
उठो रेऽ देव नऽ होणी घण्टाळऽ वाजी
भावार्थ: सावले देव कृष्ण, बोर भाजी खाने का अवसर
आ गया है, जागो घण्टे बज रहे हैं।
दूसरे और भी ऐसे ही पद हैं –
बोर भाजी आँवळा
उठो रेऽ देवऽ साँवळा
भावार्थ: हे श्यामवर्णी देव, आप जाग जाओ। बेर भी खाने योग्य हो गई हैं और चने की भाजी भी आ गई है। आँवला आ गए हैं। गन्नों में रसभर गया है। जुवार भी पकने में आ गई है।
हमारी लोक संस्कृति अपने मनन, चिन्तन-अध्ययन, और अनुभवजन्य निचोड़ की उदाहरण है। चिरकाल से लोक ने वनस्पति का लाभ जानकर उसकी उपलब्धता बनाए रखने के लिए उनकी पूजा की, उससे ऐक्यभाव स्थापित करके अपने साथ रखा। यहाँ तक कि किसी वस्तु का अपवित्र दोष दूर करना हो तो तुलसा-जल छिड़ककर और तुलसी दल का स्पर्श करा कर उस अशौच दोष को दूर किया जाता है।
जीवन के व्यवहार में हम देखते हैं, कि जब धरती पर एक मानव जीव आया, माता की कोख से शिशु का जन्म हुआ, जब उसका नाल निकलता है, तब शिशु और प्रसूता को तुलसी जलसे स्नान कराया जाता है। लोक का विश्वास है कि तुलसी के स्पर्श से सूतक और सौड़ दोष दूर हो जाता है। किसी भी मंगल अवसर पर या पूजन विधान प्रारंभ होने से पूर्व, नर्मदा-जल या गंगा-जल या फिर तुलसा और नीम जल छिड़ककर पूजन स्थान और पूजा-सामग्री को पवित्र किया जाता है। नर्मदा-जल या गंगा-जल सर्वत्र सदैव उपलब्ध नहीं रहता है, तो तुलसा जल का उपयोग किया जाता है। इसलिए तुलसी का एक नाम ‘सुलभा’ भी है।
सामान्य व्यवहार में भी कोई वस्तु देना हो, दान करना हो, तो हथेली में जल लेकर उसमें तुलसा दल डालकर संकल्प कर हथेली से उस जल को छोड़ दिया जाता है। जिसे निमाड़ी में कहते हैं, ‘तुळसी पत्तर छोड़ दिए’।
निमाड़ में मान्यता है, कि किसी वस्तु का दान देना हो, तो उसपर तुलसी पत्र रखकर दान किया जाता है, अन्यथा दान करने का पुण्य नहीं मिलता है। मृतक के नाम से जब दान दिया जाता है तो उसमें तुलसी पत्र रखते। इसे कहते हैं, जीव की मुक्ति के लिए ‘तुलसी पत्तर दान करयो’। मृतक के मुँह में तुलसी-पत्र रख देते हैं। इसके पीछे भाव यह है कि मृतक की आत्मा, परमात्मा में लीन हो गई। माना जाता है, कि तुलसी पत्र मुँह में रखने से यमदूत मृतक के पास नहीं आते, अपितु, भगवान् विष्णु के पार्षद आते हैं और कहा जाता है कि हरि में जीव विलीन हो गया। अंतिम संस्कार, दाह संस्कार के समय तुलसी की सूखी टहनियों को भी चिता पर रख अग्नि दिया जाता है।
गले में तुलसी माला या तुलसी कण्ठी धारण करने से भगवान् नारायण प्रसन्न रहते हैं। तुलसी की माला से जप करने से मंत्र शीघ्रता से सिद्ध होते हैं और इष्ट के दर्शन हो जाते हैं। लोक अपने इष्ट से मिलने के लिए भक्ति का सरलतम मार्ग जानता है, जो है भजन करना। तुलसा भक्ति का एक निमाड़ी लोक भजन है –
तुळसा तूS देवी कव्हायS माँयS कव्हायS
धरा पS साक्षात लछमीS
हरो भर्यो थारा रूपS लछमीS
मंजरी तेS मन खS लुभायS
साक्षात लछमीS
देवS का देवS नारायण हर्या
बिनS थाराS आहारS नी लेS
साक्षात लछमीS
दरशS थारा सीS काया निरोगी
पलS पलS प्राणS तेS देयS
साक्षात लछमीS
किरपा करS म्हारी मायS
साक्षात लछमीS
किरपा करS म्हारी मायS
भावार्थ : हे तुलसी, तू देवी कहलाती है, माता कहलाती है। इस धरती पर तू साक्षात् लक्ष्मी है। तेरा रूप हरा-भरा है, जो मन को आनन्दित करता है। तेरी मंजरी मन को लुभाती है। तू इस धरा पर साक्षात् लक्ष्मी है। हे तुलसा माता, देवों के देव नारायण तेरे सामने हार गए। वे तेरे बिना आहार तक ग्रहण नहीं करते हैं। हे तुलसा महारानी, तेरे दर्शन से यह शरीर निरोगी और हृष्ट-पुष्ट रहता है। हे माता, तू हम सब पर कृपा कर। हे माता, तू धरा पर साक्षात् लक्ष्मी है।
विवाहोत्सव के लोकगीतों में तुलसी-वृन्दावन मंगल एवं ऐश्वर्य के प्रतीक के रूप में मिलता है। बेटी के विवाह के समय जब बराती घर के द्वार पर आते हैं, तब ये गीत गाया जाता है –
उच्चाS तेS ववराS ववरीS उच्चाS तेS मंदिर मायS
निकलो लाड़ी ववू भायरS साजनS आया द्वारS
तुलसी वृन्दावन आँगणS लछमी को अंतS नी पारS ।
भावार्थ : ऊँचे महल-अटारियों के बीच बहुत ही ऊँचा मन्दिर सदृश्य घर है। हे बहू, तुम घर के द्वार पर आकर देखो, हमारे साजन (समधी) आ गए हैं। इस घर के आँगन में तुलसीजी का सुन्दर वृन्दावन बना है, इसलिए घर में लक्ष्मीजी का अनन्त वास है।
लोक तुलसा को केवल लक्ष्मी तुल्य ही नहीं मानता है, अपितु, आरोग्य दाता के रूप में भी पूजता है। सदा प्राणवायु देने वाली माता तुलसा के निकट वास करने वाले निरोग रहते हैं। तुलसा का निरादर न हो, इसलिए ऐसा विधान भी है, कि भगवान् को अर्पित की गई तुलसा को धोकर, देवताओं को पुन: अर्पित करने पर भी उतना ही पुण्य मिलता है, जितना कि ताजे तुलसी पत्र को अर्पित करने से मिलता है। तुलसी की देखरेख और पत्ते-मंजरी तोड़ने के लिए नियमों का पालन किया जाता है। तुलसा के पत्ते और मंजरी तोड़ते समय भी तुलसा के पौधे का पूरा सम्मान किया जाता है। पत्ते भले ही भगवान् श्री हरि को अर्पित करने के लिए तोड़े जाते हैं, पर तुलसा से प्रार्थना करके, उससे आज्ञा लेकर ही लोक पत्ते और मंजरी तोड़ते हैं। तुसली के पौधे से पत्तों और मंजरी को खींचकर नहीं तोड़ा जाता है। स्नान करके शुचिता का पालन करते हुए तुलसी को प्रणाम करके, उनकी परकम्मा करके धैर्यपूर्वक पत्ते और मंजरी तोड़ते हैं। तुलसा दल और मंजरी तोड़ने से पहले प्रार्थना में उन्हें तोड़ने का उद्देश्य भी बता दिया जाता है यथा – श्रीहरि को अर्पित करने के लिए या औषधीय रूप में ग्रहण करने के लिए या किसी के शुद्धिकरण के लिए या अन्य किसी कार्य को पूर्ण करने के लिए। आमतौर पर निरोग रहने के लिए सुबह से तीन, पाँच या सात पत्ते पानी से साथ नियमित सेवन किए जाते हैं। तुसला के पौधे से एक ही ओर से निरन्तर पत्ते नहीं तोड़े जाते हैं। सभी ओर से समान रूप से तोड़े जाते हैं, नियम से पत्ते तोड़ने पर तुसली की वृद्धि अच्छी तरह से होती है।
निमाड़ में तुलसा महारानी की आरती की जाती है। आरती में उनके गुण गाये जाते हैं –
तुळसा महाराणी नमोS नमोS
हरS की पटराणीS नमोS नमोS
धरम करमS काजS सारतीS
देवS हरी का मनS मS भावतीS
जगS दुख्रव हारिणी नमोS नमोS
बिनS थारा हरि भोगS नीS पावे
जन-जनS को तू दुखरव नसावेS
त्रिपाप हारिणी नमोS नमोS
आँगणS की तोS शोभा न्यारी
थारा बिनS नीS कोई बलिहारीS
वृन्दावन भरणी नमोS नमोS
जीवन तारिणी नमोS नमोS
हर की पटराणी नमोS नमोS
जीS तुमखS नित सेवS ध्यावS
तेS पाछS हरिपद खS पावS
भावार्थ : हे तुलसा महारानी, आपको बारम्बार प्रणाम है। आप भगवान् श्री हरि की पटरानी हो। हे तुलसा महारानी, तुम धर्म और कर्म के सभी कार्यों को सुसंपन्न करा देती हो। तुम तो हरि के मन में वास करती हो। तुम सब दु:खों को हर लेती हो, तुम्हें बारम्बार प्रणाम है। हे तुलसा महारानी, तेरे बिना भगवान् श्री हरि भोग नहीं ग्रहण करते हैं। तू तो सभी के दु:खों का नाश करती है, तू तो सबके पाप हर लेती है। तेरे से घर के आँगन की शोभा रहती है। तू सभी को निहाल कर देती है। वृन्दावन को हराभरा रखने वाली तुलसा तेरे को प्रणाम। तू सभी को जीवन-मरण के चक्र से पार लगाती है, तू मोक्ष प्रदान करती है। श्री हरि की पटराणी, तूझे बारम्बार प्रणाम है। हे तुलसाजी, जो तुम्हारी नित्य सेवा करता है, नित्य तुम्हारा ध्यान करता है, वह अन्त में श्रीहरि के पद को, वैकुण्ठ धाम को प्राप्त करता है।
तुलसी का एक नाम ‘वृन्दा’ भी है। इसलिए तुलसी क्यारा को वृन्दावन कहते हैं। हम भोर होते ही तुलसा के दर्शन करते हैं और साँझ होते ही वृन्दावन के निकट घी का एक दीपक जलाकर उनसे उनकी कृपा की कामना करते हैं। देव आराधना, देव भक्ति, देव साधना का एक भाव और है ‘परिक्रमा’, जिसको निमाड़ में ‘परकम्मा’ कहते हैं। निमाड़ में सबसे प्रमुख है ‘जल परकम्मा’ माने माता नर्मदाजी की परिक्रमा जिसे ‘नरबदा परकम्मा’ कहते हैं। ये पूरी नर्मदा की होती है। इसका एक लघु रूप है नर्मदा की पंचक्रोशी यात्रा। यह पाँच कोस की होती है। ये नर्मदाजी के किन्हीं विशेष किनारों पर सुनिश्चित तिथियों पर की जाती है। लोक अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए इसे करता है। अगाध श्रद्धा से यात्रा की जाती है। यह जल के प्रति आस्था और आदर भाव को भी दर्शाता है। लोक जल के साथ वनस्पति जगत् को भी पूरा सम्मान देता है। वृक्ष या पौधों की परकम्मा करना, इनके प्रति ऐक्य भाव रखने का प्रमाण है। बड़ (वट) परकम्मा, पीप्पल (पीपल) परकम्मा, आँवला वृक्ष की परकम्मा, बेल वृक्ष की परकम्मा, गूलर की परकम्मा, त्रिवेणी (एक ही स्थान पर लगे नीम-आँवला-गूलर के वृक्ष) की परकम्मा, पंचवट (एक ही स्थान पर लगे बड़-पीपल-नीम-आम-आँवला या फिर गूलर या बेल) परकम्मा आदि। इन सबके साथ ही होती है घर के आँगन में तुलसा परकम्मा। भोर भुमसारे ही तुलसा की तीन बार परकम्मा की जाती है और साँझ में दीपक लगाकर भी तीन बार परकम्मा करते हैं। सुबह तुलसा माता को जल अर्पित करके भी परकम्मा करते हैं।
परकम्मा का एक स्वरूप आनुष्ठानिक भी रहता है। देव सोनी ग्यारस से यह अनुष्ठान प्रारम्भ करते हैं। घर के आँगन में प्रतिष्ठित तुलसा क्यारा के अलावा एक गमले में तुलसी रोपते हैं। लकड़ी के पाट पर आसन बिछाकर तुलसी के गमले के साथ बालमुकुन्दजी या शालग्रामजी को प्रतिदिन स्थापित करके उनकी पूजन और आरती करते हैं। इसके बाद उनकी एक सौ आठ परकम्मा करते हैं। तुलसी की माला से जाप करते हुए परकम्मा की जाती है। प्रतिदिन पूजा के बाद भगवान् को घर के मन्दिर में स्थापित कर देते हैं। जिसको जो मंत्र मिलता है, वह उसी मंत्र से जाप करता है, जैसे, ‘नमो नारायण, ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ आदि आदि। कुछ लोग परम्परानुसार निमाड़ी के मंत्रों, जैसे –‘तुळसा महाराणी हरि की पटराणी नमो नमो’, ‘माँय तुळसा की परकम्मा यम का दूत निकम्मा’, ‘तुळसा माँय दीजे सक्ती, हरि की कराँ भक्ति’ का जाप करते हुए परिक्रमा करते हैं। देव सोनी ग्यारस से देव उठनी ग्यारस तक चार महीने नित्य यही क्रम चलता है। देव उठनी ग्यारस के दिन तुसला का शृंगार करके उनका बालमुकुन्द या शालग्रामजी से विवाह करवाते हैं। इसके बाद तुलसाजी को गाँव के मन्दिर में रख आते हैं । कुछ लोग चाँदी की तुलसा का पौधा और क्यारा बनवाते हैं। ब्राह्मण का जोड़ा (पति-पत्नी) जिमाकर (भोजन करवाना) वस्त्रदान और चाँदी का तुलसी क्यारा भी उनको दान कर देते हैं।
घर के आँगन में ही नहीं, अपितु, मन्दिर प्रांगण में भी तुलसा क्यारा प्रतिष्ठित रहता है। मन्दिर में देव दर्शन के पहले या बाद में तुलसा को भी प्रणाम करके उसकी परकम्मा की जाती है। लोक अपनी पारम्परिक चित्रकला में भी तुलसा क्यारा को नहीं भूलता है। तुलसा क्यारा को लोक चित्रों में ससम्मान स्थान दिया जाता है। यह भी कह सकते हैं, कि तुलसा क्यारा के बिना ये चित्र नहीं बनाए जाते हैं। ये चित्र पारम्परिक रूप से प्रकृति से उपलब्ध सामग्री से बनाए जाते हैं। प्राकृतिक रंगों से बनाए जाने वाले लोकचित्रों में रेखाचित्र भी होते हैं और गोबर, माटी, फूल-पत्तों आदि से बनाई जाने वाली रेखात्मक कलाकृतियाँ भी होती हैं।
नाग पंचमी पर बनाए जाने वाले विविध प्रकारों के चित्रों में सूर्य-चंद्रमा-तारा आदि के साथ तुलसा क्यारा भी बनाया जाता है। जिरोती में भी अनेको चित्रों के साथ तुलसा क्यारा अवश्य बनाते हैं। गोबर से बनाए जाने वाले रेखात्मक चित्रों साँझाफूली, भाईबीज आदि में भी तुलसा क्यारा बनाते हैं।
तुलसा लोक जीवन का अभिन्न अंग है। तुलसा लोक संस्कृति के लिए ऐसी बड़ी प्रेरणा है, जो तुलसा को वनस्पति जगत् का एक श्रेष्ठ प्रतिनिधि बनाती है। एक ऐसी प्रतिनिधि जो पर्यावरण के तत्त्वों के प्रति अपनत्व की चेतना और आदरभाव जाग्रत करती है, लोक ने तुलसा को जगत् के पालनकर्ता के साथ सर्वोच्च स्थान देकर, उसकी जीवन शक्ति को पुष्ट करने वाले तत्त्वों का पोषण और रक्षण करने, उनके प्रति स्नेहपूर्ण आदरभाव रखने तथा उन तत्त्वों के साथ सामंजस्यपूर्ण मार्ग पर चलते रहने का संदेश दिया है।
डॉ. सुमन चौरे, लोक संस्कृतिविद् लोक साहित्यकार भोपाल