MP में BJP की सत्ता के ‘मेरुदण्ड’ बने विन्ध्य का इस बार चुनावी मिजाज क्या..?

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MP में BJP की सत्ता के ‘मेरुदण्ड’ बने विन्ध्य का इस बार चुनावी मिजाज क्या..?

रायपुर के राष्ट्रीय अधिवेशन में राहुल गांधी ने एक बार फिर दोहराया कि वे स्पष्ट देख रहे हैं कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने जा रही है। संभव है कि भारत जोड़ो यात्रा में उन्हें ऐसी कोई दिव्य दृष्टि मिल गई हो जिससे उनमें भविष्य बाँचने की क्षमता आ गई हो। कांग्रेस इसी खयाली पुलाव का स्वाद चख रही है। इधर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कर्ज पर कर्ज लेकर ‘लाडली बहना’ जैसी लोकलुभावन योजनाओं की झड़ी लगाए हुए हैं। नगरीय व पंचायत चुनाव में झटके खाने के बाद बीजेपी युद्धस्तर पर मैंदान में है। नाच-गाँनों के साथ वोटरों की भड़ास झेलते हुए विकास यात्राएं निकल रही हैं। दोनों दलों के बीच सोशल मीडिया में युद्ध छिड़ा है। कमलनाथ और शिवराज एक दूसरे पर सवालों की मीसाइल दाग रहे हैं। युवाओं की नौकरी और भर्तियां 27 परसेंट के फेर में अदालतों में उलझी हैं। किसानों की प्याज को दो रुपए का भाव भी नहीं मिल रहा। पेपरलेस बजट से चुनावी फुलझड़ियाँ झरती दिख रही हैं।

 

एक बार हम 2018 के चुनाव परिणाम को रिकाल कर लेते हैं। 2018 में बीजेपी को 109, कांग्रेस को 114, बीएसपी को 2, सपा को1 और निर्दलीयों को 4 सीटें मिलीं। कमाल यह कि 41.02 प्रतिशत वोट पाकर भाजपा सत्ता के दूर रही और 40.89 प्रतिशत वोट पाकर बल्लभवन में काबिज हो गई। डेढ़ दशक के बाद मिली सत्ता की हरीतिमा को कांग्रेस दो साल भी नहीं सँभाल पाई। ज्योतिरादित्य के 22 समर्थक विधायक टूटे और बीजेपी सत्ता में आ गई। 28 सीटों पर उप चुनाव हुए जिसमें 19 जीतकर बीजेपी ने अपने सत्ता की इमारत पक्की कर ली। विधानसभा सीटों के क्षेत्रीय क्षेत्रीय वितरण को देखें तो मध्य(भोपाल-नर्मदा) में 36, ग्वालियर चंबल में 34, मालवा निमाड़ में 66 विन्ध्य में 30, बुंदेलखंड में 25 और महाकोशल में 38 सीटें आती हैं।

 

छह महीने पहले नगरीय चुनाव में बीजेपी को विन्ध्य, महाकोशल और ग्वालियर चंबल में महापौर के चुनावों में हारी और नगरपालिका व परिषदों में भी कांग्रेस का वर्चस्व रहा। यानी कि 102 सीटों वाले वृस्तित क्षेत्र में छह महीने पहले तक वोट की दृष्टि से कांग्रेस प्रभावी बढ़त पर थी। 2018 के चुनाव में आदिवासी आरक्षित 46 सीटों पर बीजेपी को महज 16 सीटें मिलीं थी 30 पर कांग्रेस आगे रही। आश्चर्यजनक यह कि बीजेपी की विपरीत परिस्थितियों में भी 30 सीटों वाले विन्ध्य ने 24 सीटों का छप्परफाड़ समर्थन दिया। यहाँ हम विन्ध्य में आज की राजनीतिक स्थिति पर बुद्धिविलास करेंगे।

 

“कांग्रेस के एक बुजुर्ग नेता से हाल ही मैंने जानना चाहा कि चुनाव लड़ने के मामले में कांग्रेस और भाजपा के बीच क्या बुनियादी फर्क पाते हैं ? उनका जवाब बड़ा ही वस्तुनिष्ठ रहा, वे बोले- कांग्रेस खेलने से पहले यानी मैदान के बाहर ही इतनी वार्मअप हो जाती है कि उसकी खेलने की ऊर्जा खत्म हो जाती है जबकि भाजपा सतत खेल के मैदान में ही वार्मअप करती रहती है। वह चुनाव के खेल को लंबी रेस की स्पर्धा मानकर चलती है।” विन्ध्य के संदर्भ में भी देखें तो यह बात सोलह आने सही लगती है।

 

छह महीने पहले जब नगरीय निकाय और पंचायतों के चुनाव हुए थे और उसके जो परिणाम सामने आए उसके आधार पर हम मानकर चल रहे थे इस बार कांग्रेस फ्रंट रनर रह सकती है लेकिन अब वह हाँफती सी दिखने लगी है। भाजपा के एक बाद एक ताबड़तोड़ आयोजनों ने उसे और उसके नेताओं को जुबान पर ला दिया है।

 

2018 के विधानसभा चुनाव के बरक्स विन्ध्य को देखें तो कांग्रेस और भाजपा के बीच दिलचस्प जद्दोजहद है। कांग्रेस इस क्षेत्र में अपने खोए हुए जनाधार को पाना चाहती है जबकि भाजपा की पूरी कोशिश पिछले नतीजों की यथास्थिति बनाए रखने की है।

 

पिछले चुनाव में भाजपा को 30 में से 24 सीटें मिलीं थी। दो उपचुनाव हुए उसमें अनूपपुर में भाजपा ने कांग्रेस की सीट छीनी तो रैंगाँँव में कांग्रेस ने। यानी कि हिसाब बराबर। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान यहाँ की आम सभाओं में मतदाताओं को शाष्टांग दंडवत करके आभार जता चुके है। इस बार भाजपा की सरकार का मेरुदण्ड विन्ध्य ही बना। भले ही ज्योतिरादित्य सिन्धिया ने पलटी मारकर कांग्रेस की सरकार गिरा दी हो पर पर 24 सीटों का ठोस आधार विन्ध्य ने ही दिया। यहाँ कांग्रेस में कोई ऐसा विधायक भी नहीं था जो सिंधिया के प्रभाव में रहा हो और पाला बदल किया हो। बिसाहूलाल का मामला अलग है। वे भाजपा के आपरेशन लोटस के पहले चरण के किरदार थे।

 

2020 में जब भाजपा की सरकार बनी तो विन्ध्य के लोग आस लगाए बैठे थे कि इस क्षेत्र को प्रभावशाली प्रतिनिधित्व मिलेगा, लेकिन नहीं मिला। भाजपा ने जिन राजेन्द्र शुक्ल को अपना पोस्टर ब्याय बनाकर पूरे विन्ध्य में दौडाया उन्हें उन्हें कैबिनेट में जगह नहीं दी। पहले मीना सिंह को फिर बिसाहू लाल को कैबिनेट में रखा, रामखेलावन को राज्यमंत्री बनाया ये तीनों नेता अपनी विधानसभा से बाहर ही नहीं निकल सके। गिरीश गौतम को स्पीकर बनाकर ब्राह्मण वर्ग को साधने की कोशिश की पर उनका हाल यह रहा कि वे अपने उत्तराधिकारी बेटे को ही स्थापित करने में पूरी ऊर्जा खपा दी। बेटे को स्थापित तो नहीं कर पाए उल्टे घर की पंचायत में ही उलझकर रह गए। यहाँ के लोग उन्हें श्रीनिवास तिवारी की तरह ताकवर व प्रभावशाली की अपेक्षा कर रहे थे लेकिन उनकी राजनीति देवतलाब क्षेत्र के गांवों के नाली-नरदे और राहत-अनुदान राशि के बँटवारे में उलझकर रह गई।

BJP's New Ticket Formula

नगरीय निकाय के चुनावों में भाजपा को विन्ध्य प्रायः सभी जिला मुख्यालयों में मुँह की खानी पड़ी। सतना नगरनिगम का मेयर पद कांग्रेस के बागी सईद अहमद की बदौलत मिला। रीवा, सिंगरौली नगरनिगम से हारी ही सीधी, शहडोल, उमरिया जैसे जिले हाथ से निकल गए। जिला पंचायतों के सदस्यों में भी कांग्रेस का ही बहुमत रहा अप्रत्यक्ष प्रणाली के चुनाव ने भाजपा की लाज बचा ली। नगरीय निकाय और पंचायतों का चुनाव एक तरह से मतदाताओं के भाजपा के खिलाफ गुस्से का प्रकटीकरण रहा। कांग्रेस ने मिलजुलकर चुनाव लड़े। उस निरंतरता को जारी रखने के लिए कांग्रेस को जो करना चाहिए वो नहीं किया। कमलनाथ ने इस इलाके को उपेक्षित ही रखा। जिस क्षेत्र में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया हो उस इलाके में मुख्यमंत्री रहते हुए कमलनाथ महज दो बार आए। सरकार गिरने बाद से अब तक दो बार आए लेकिन उनका आयोजन कांग्रेस का रायता फैला गया। सतना में महारैली में आए लेकिन आयोजक सिद्धार्थ कुशवाहा डब्बू ने अजय सिंह राहुल और राजेन्द्र सिंह समेत सभी कद्दवरों को आयोजन से दूर रखा। नतीजा टाँय-टाँय फिस्स..एक लाख लोगों को जोड़ने के दावे के विपरीत बमुश्किल 5000 लोग जुटे। इसी तरह फरवरी के शुरुआत में उमरिया में हुए आयोजन में भी अजय सिंह राहुल से दूरी बनाकर रखी। विन्ध्य में कांग्रेस के पास ले देकर अजय सिंह राहुल ही एक चेहरा हैं जिनके समर्थन प्रायः हर कस्बे या गांव में हैं। चुरहट से वे भले ही चुनाव हार गए हों लेकिन अभी भी उनके पीछे खड़े होने वाले समर्धकों की संख्या अन्यों से ज्यादा है। सांगठनिक तौर पर कांग्रेस का काम रीवा में अपेक्षाकृत बेहतर रहा। अनुभवी संगठक पूर्व सांसद प्रतापभानु शर्मा ने यहाँ कांग्रेस की मुर्दानगी काफीकुछ हदतक दूर की है। लेकिन मुश्किल यह कि भाजपा नेताओं के मुकाबले बड़े चेहरे अब शेष नहीं बचे। इस बार प्रत्याशियों को लेकर भी जुएँ सा दाँव खेलना होगा।

MP BJP Working Committee : संविधान के प्रति हमारी निष्ठा और संकल्प सबके सामने

भाजपा इस मामले में बेहद सतर्क है। 2018 के बाद प्रतिपक्ष में रहते हुए शिवराज सिंह 4 बार आए। सत्ता में आने के बाद तो वे प्रायः हर हफ्ते किसी न किसी बहाने इस क्षेत्र पहुंच रहे हैं। सतना और रीवा को छोड़ शेष सभी जिले जनजातीय बाहुल्य है। भाजपा का इनपर कितना फोकस है इस बात का अंदाजा जनवरी में शहडोल में राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू की सभा से लगा सकते हैं। 24 फरवरी को सतना में शबरी जयंती पर कोल महाकुंभ में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह पहुँचे। रीवा-सीधी के बीच विश्वस्तरीय टनल का लोकार्पण नितिन गडकरी कर चुके हैं। गडकरी की सदारत पर विन्ध्यक्षेत्र में 6 नेशनल हाइवेज शुरू हुईं या काम चल रहा है। 15 फरवरी को रीवा एयरपोर्ट की सौगात देने ज्योतिरादित्य जी आए थे। यानी कि हम देख सकते हैं कि भाजपा हर स्तर पर विन्ध्य को साधे रखना चाहती है और इस पर कामयाब होती भी दिख रही है। कांग्रेस यहाँ युवाओं और छात्रों के आक्रोश को भुनाने का काम कर सकती थी। यहाँ के बच्चे करियरिस्ट हैं। भर्तियों में लगने वाली अड़पेंच और बेहतर शैक्षणिक संस्थान मुद्दे बन सकते थे लेकिन कांग्रेस अपनी अलग लकीर खींचने की बजाय भाजपा की लीक पर ही हाँफते हुए चल रही है। विन्ध्य में कांग्रेस यदि आक्रामकता के साथ आगे आए तो अबतक के नुकसान की कुछ हदतक भरपाई कर सकती है पर अफसोस जहाँ शिवराज सिंह की हर नब्ज पर अँगुली है वहीं कमलनाथ विन्ध्य को लेकर अबतक अपनी कोई समझ ही नहीं बना पाए।

अब यदि आज चुनाव होते हैं तो भाजपा और कांग्रेस मुकाबले पर बराबरी में खड़ी दिख रही ही है। पिछले छह महीनों में कांग्रेस जहाँ पर थी वहां से नीचे उतरी है और भाजपा आगे बढ़ी है।

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