‘बाप के नाम पर वोट’: एक परिवारवादी सुलभ चिंतन…!

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 महाराष्ट्र के राजनीतिक पिच पर हफ्ते भर से जारी टी-टवेंटी से भी ज्यादा दिलचस्प ‘अमित शाह बनाम शरद पवार’ मैच का अंजाम लगभग तय हो चुका हो मगर शिवसेना के आग उगलू नेता संजय राउत ने ‘परिवारवाद’ की एक आम फहम व्याख्या देश को दे दी है। ये है ‘बाप के नाम’ पर वोट मांगना। वरना राजनीतिक परिवारवाद के खिलाफ डंडा लेकर निकली भाजपा अभी तक ऐसे किसी देसी मुहावरे की खोज में थी, जिसे संजय राउत ने ठेठ अंदाज में ओपन कर दिया है।

संजय राउत यूं तो पत्रकार रहे हैं, लेकिन राजनेताओं को मुट्ठी में करना उन्हें खूब आता है। इस दृष्टि से वो स्व. अमर ‍ सिंह  का सुधरा हुआ तेजाबी संस्करण हैं। ‘बाप के नाम वोट मांगने’ से तात्पर्य शाब्दिक होने के साथ साथ भावनात्मक भी है, क्योंकि बाप के बदले रिश्ता कोई और दूसरा रिश्ता नहीं हो सकता, जिसके नाम पर वोट कबाड़े जा सकें।  हालांकि भारतीय संस्कृति में हर रिश्ते का एक अलग नाम है, इसलिए वोट पाने के लिए उस रिश्तों के हर पहलू और संस्करण का उपयोग राजनीतिक मकसद से किया जा सकता है और भारतीय समाज में यह अस्वीकार्य भी नहीं है।

‘बाप के नाम पर वोट’: एक परिवारवादी सुलभ चिंतन...!

मजेदार बात यह है कि भाजपा की शह पर एकनाथ शिंदे की अगुवाई में अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे शिवसेना के (लगभग) 40 बागी और उद्धव ठाकरे ने नेतृत्व में बचे दर्जन भर विधायक दोनो ही अब ‘बाप के नाम’ के भरोसे हैं। यानी एक के लिए जो ‘पितामह’ है वही दूसरे के लिए महज ‘बाप’ है। अपनी पार्टी में बगावत से बौखलाए संजय राउत ने ‍मीडिया के सामने छाती ठोक कर कहा कि उनकी पार्टी ( उद्धव खेमा) ही असली शिवसेना है। इसलिए वही पार्टी के संस्थापक शीर्ष पुरूष बाला साहब ठाकरे की राजनीतिक  उत्तराधिकारी है। हकीकत भी यही है। उद्धव ठाकरे के पिता ही बाला साहब ठाकरे थे।

इसलिए कोई और खेमा ( यानी एकनाथ शिंदे गुट) बाला साहब के नाम का उपयोग (या दुरूपयोग?) नहीं कर सकता। उधर एकनाथ गुट का कहना है कि बाला साहब कट्टर हिंदुत्व के पैरोकार और पुरोधा थे। लेकिन अब उद्धव ठाकरे ने सत्ता की खातिर हिंदुत्व की मूल लाइन को दरकिनार कर ‘हिंदु्त्व  विरोधी’ और एक हद तक सेक्युलर पार्टियों से समझौता कर लिया है इसलिए उनकी शिवसेना को ‘बाला साहब’ के नाम के उपयोग का नैतिक अधिकार नहीं  रह गया है। सो, एकनाथ गुट ने अपने धड़े के आगे शिव सेना (बाला साहब ठाकरे) लिखना शुरू कर दिया है। इसमें यह संदेश देने की कोशिश है कि ‘शिंदे गुट’ ही असली शिव सेना है। यानी उनके राजनीतिक पितृ पुरूष भी बाला साहब ही हैं। ऐसे में बाला साहब के नाम पर वोट मांगने का जायज अधिकार शिंदे गुट को है, उद्धव गुट को नहीं। भले ही बाला साहब उनके जैविक‍ पिता हों।

‘बाप के नाम पर वोट’: एक परिवारवादी सुलभ चिंतन...!

यानी असल झगड़ा राजनीतिक रूप से नैतिक और जैविक बाप का है। कौन किस पर, किस सियासी मकसद से दावा करता है और इस दावे को जन स्वीकृति मिलती है या नहीं, इस बात का है। महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ तीन पहियों पर चलने वाली महाविकास आघाडी (जिसका हर टायर अलग कंपनी का है) मिलकर अभी तक किसी बड़े चुनाव में नहीं उतरी है। इसलिए उसके राजनीतिक काॅकटेल में चुनाव जीतने की ताकत‍ कितनी है, इसको लेकर सभी के मन में शंका है। हाल में हुए राज्यसभा और विधान परिषद के चुनावों में भाजपा ने पिछले दरवाजे से खेल कर महाविकास आघाडी की घडी के बारह बजा दिए। यह अलग बात है कि इस खेला को लेकर सभी दल दूसरे की दाढ़ी में तिनका खोज रहे हैं।

बहरहाल बात परिवारवाद की। भारतीय परंपरा में परिवारवाद जो कि पूरे खानदान की अस्मिता और प्रतिष्ठा से जुड़ा होता है, अपने आप में सम्मान और गर्व की बात है। लेकिन यह तो सामाजिक प्रतिष्ठा और परंपरा के रक्षण की बात हुई। इसमें किसी की हार जीत नहीं होती बल्कि परिवार का हर सदस्य और रिश्ता अपने तईं परिवार की प्रतिष्ठा में वृद्धि करने का प्रयत्न करता है और ऐसा करके भी परिवार की नैतिक सत्ता का दावा नहीं करता ( कतिपय मामलों में उलटा भी होता है)।

लेकिन राजनीति में परिवारवाद का अर्थ सर्वथा अलग है। यहां परिवारवाद से तात्पर्य समूची राजनीतिक और ‍आर्थिक सत्ता पर एक ही परिवार का काबिज होना है और इस कब्जे को पीढ़ी दर पीढ़ी कायम रखना है। ऐसे परिवारवाद की परिभाषा भी उसके उद्देश्य और स्वार्थपूर्ति के हिसाब से अलग अलग है। यह अलग तरह का जातीय सर्वसत्तावाद है, जिसमें असल कार्यकर्ता की औकात दरी उठाने और नारे लगाने तक ही महदूद रहती है। यह परिवारवाद जहां कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय दलों में वो ‘अनिवार्य पोषक तत्व’ के रूप में है तो भाजपा में यह सुविधा सापेक्ष रूप में है।


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हालांकि सार्वजनिक तौर पर भाजपा इसे अपने  वजूद के लिए ‘विषबेल’ मानते हुए उसे ज्यादा पनपने नहीं देना चाहती। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि परिवारवाद भाजपा  में महापाप है। वहां इसकी व्याख्या परिस्थिति और राजनीतिक चुनौतियों के हिसाब से बदलती भी रहती है। परिवारवाद की नवीनतम भाजपाई व्याख्या पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा की है, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि यदि परिवार का एक सदस्य निर्वाचित जनप्रतिनिधि हो, दूसरा पार्टी पदाधिकारी और अन्य कोई दूसरे पदों पर हो तो यह (सामूहिक मलाई भक्षण) ही परिवारवाद है। दूसरे शब्दों में समझें तो ‘लाभ के पद’ पर एक बार में परिवार का कोई एक मेम्बर ही रह सकता है।

बाकी को ‘धैर्यवाद’ के आसरे जीना होगा। जाहिरा तौर पर पार्टी एक साथ में पूरे खानदान को उपकृत करने के खिलाफ है, क्योंकि ऐसे लाभाकांक्षियों ( जिसे आम भाषा में ‘सेवा’ कहा जाता है) की संख्या बहुत ज्यादा है और पार्टी के निरंतर विस्तार के साथ यह आंकड़ा बढ़ता और जटिल होता जा रहा है। यह बात दूसरी है कि राजनीति में जितनी डालें होती हैं, पात उससे कई गुना ज्यादा होते हैं। मसलन मध्यप्रदेश में हाल में  पार्टी चुनाव चिन्ह पर लड़े जाने चुनावों में टिकट वितरण के मामले में परिवारवाद पर शिकंजा कसने की कोशिश की तो भाई लोगों ने बिना पार्टी चुनाव चिन्ह पर लड़े जा रहे पंचायत चुनावों  में परिवारवाद की सुरंगे बिछा दीं। भला हो मतदाता का जिसने ऐसी ज्यादा सुरंगों को विस्फोट से पहले ही बेकार कर ‍िदया। और पिछले दरवाजे से टिकट जुगाड़ने